गायत्री महाशक्ति का तत्वज्ञान

July 1981

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परब्रह्म की चेतना, प्रेरणा, सक्रियता एवं समर्थता को ‘गायत्री’ कहते हैं। अन्य समस्त देव शक्तियाँ उस परमशक्ति की किरणें ही हैं। उन सबका महत्व एवं अस्तित्व उस आद्य शक्ति के कारण ही है। उत्पादन, विकास एवं संहार की त्रिविध देवशक्तियाँ ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नाम से विख्यात हैं। पंचतत्वों की चेतना को आदित्य, वरुण, मरुत, द्यौ, अन्तरिक्ष कहकर पुकारते हैं। इन्द्र, बृहस्पति, अश्विनी, विश्वेदेवा आदि सृष्टि के विभिन्न प्रयोजनों में लगी शक्तियाँ ही हैं। दिव्य होने के कारण तथा प्राणियों को उनका अनुदान सतत् मिलते रहने के कारण उन्हें देवता कहा जाता है- उनकी पूजा अर्चना की जाती है। परन्तु ये सभी देवतागण उस महत् तत्व के स्फुल्लिंग हैं जिसे अध्यात्म ‘गायत्री’ कहकर सम्बोधित करता है। जिस प्रकार जलते हुए अग्नि कुण्ड में से सतत् चिनगारियाँ निकली रहती हैं, उसी प्रकार विश्व की महान शक्ति गायत्री की विभिन्न धाराएं अनेक देव शक्तियों के रूप में देखी जाती हैं।

गायत्री वेद मातास्ति साद्या शक्तिर्मना भुवि। जगतां जननीं चैव तामुपासेऽहमेवहि॥

अर्थात्- भगवान शंकर कहते हैं- गायत्री वेदमाता है। यही आद्यशक्ति कहलाती है। यही विश्व जननी है। मैं उसी की उपासना करता हूँ।

त्वयैतद् धार्यते विश्वं त्वयैत्सृज्यते जगत्। त्वयै तत्पाल्यते देवि त्वमत्सन्ते च सर्वदा॥ (सप्तशती)

अर्थात्- हे देवी! तुम्हीं इस विश्व की धारण करने वाली शक्ति हो, तुम्हीं इसकी सृष्टि करने वाली हो, तुम्हीं इसका पालन करने तथा सदैव इसका अन्त करने वाली भी हो।

या देवो सर्व भूतेषु विद्यारूपेण संस्थिता।। (सप्तशती)

अर्थात्- वह देवी ही समस्त भूतों (प्राणियों) में विद्या के रूप में प्रतिष्ठित है।

ऐसी महाशक्ति की शरण में जाने का सन्देश समस्त प्राणियों को अध्यात्म ग्रन्थों से मिलता रहा है। शक्ति का सम्पादन, आत्म-बल सम्वर्धन ही समस्त भौतिक एवं आध्यात्मिक सफलताओं का मूल है। इन्द्रियों में शक्ति रहने तक ही भोगों को भोगा जा सकता है। वे अशक्त हो जायें तो आकर्षक से आकर्षक सामग्री भी घृणास्पद लगने लगती है। नाड़ी संस्थान की सामर्थ्य यदि कम हो जाये तो शरीर के कार्य-कलाप ठीक तरह नहीं चल पाते। मानसिक शक्ति घटते ही मनुष्य विक्षिप्तों अथवा बुद्धिहीनों की शरण में आ जाता है। मित्रशक्ति एवं धनशक्ति भी इसी तरह जीवन में जरूरी है। परन्तु आत्म-शक्ति के समाप्त होते ही प्रगति यात्रा रुक जाती है। जीवनोद्देश्य की पूर्ति आत्म-बल से रहित व्यक्ति के लिये असम्भव है। भौतिक जगत की पंचभूतों को प्रभाव करने वाली शक्तियों तथा अध्यात्म जगत की विचारणा एवं भावना की शक्तियों का मूल उद्गम वह महत्तत्व है, जिसे गायत्री नाम से सम्बोधित किया जाता है।

अचिंत्य निर्विकार परब्रह्म को जब विश्व रचना की क्रीड़ा करना अभीष्ट हुआ तो उनकी आकाँक्षा शक्ति के रूप में परिणित हो गयी।वही शक्ति जड़ और चेतन दो में विभक्त होकर परा-अपरा प्रकृति कहलाई। ‘एकोऽहं बहुस्यामि’ के रूप में जब माया रूपी आवरण जीव चेतना पर छा गया तो ‘भर्गो देवस्य धीमहि’ के रूप में उसे हटाने तथा ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’ के रूप में जीव को सत्पथ पर अग्रसर करने के लिये गायत्री महाशक्ति का आविर्भाव हुआ। इस दृश्य जगत में जो कुछ भी विद्यमान है, वह उसी महाशक्ति का स्वरूप है। इस सृष्टि के निर्माण, विकास, विनाश क्रम तथा परिवर्तनों के उपक्रम के पीछे उसी महान शक्ति की सक्रियता है। ब्रह्म तो साक्षी दृष्टा है। उसका समस्त क्रिया-कलाप इस गायत्री महाशक्ति द्वारा ही परिचालित हो रहा है।

उपनिषदकार कहता है-

गायत्री वा इदं सर्व भूतं यदिदं किन्च। (छान्दोग्य)

अर्थात्- जो कुछ था और जो कुछ है अर्थात् यह समस्त विश्व गायत्री रूप है।

इस तथ्य की व्याख्या करते हुए भगवान शंकराचार्य लिखते हैं-

‘‘गायत्री द्वारेण चोच्यते ब्रह्म, ब्राह्मणः सर्व विशेष पर हितस्य नेनिनेतात्यादि विशेष प्रतिषेध-गम्यस्य दुर्बोधत्वात्।’’

अर्थात्- ‘‘जाति गुणादि समस्त विशेषों से रहित अर्थात् निर्विशेष होने के कारण ब्रह्म केवल विशेष सुख से ही सम्यग रूपेण जाना जाता है, अतः वह दुर्विज्ञेय है। उसी को सर्वसाधारण के लिये सुलभ करने को भगवती श्री गायत्री सविशेष ब्रह्म का उपदेश करती है।’’

भगवान की सामर्थ्य भगवान का अंग होते हुए भी उससे पृथक अस्तित्व में दृष्टिगोचर होती है। सूर्य की किरणें निकलती सूर्य में से ही हैं, पर वे गर्मी और रोशनी के रूप में अपने अस्तित्व का अलग परिचय देती हैं। उसी प्रकार ब्रह्म की सामर्थ्य, चेतना एवं सक्रियता उसी के कारण है, पर उसका पृथक अस्तित्व भी अनुभव भी किया जा सकता है। संसार में जो असीम विद्युत का भाण्डागार संव्याप्त है, वह मूलतः विश्वव्यापी उस अग्नितत्त्व की सत्ता के कारण ही है। हमारे शरीर का विद्युत संस्थान उसी मुख्य केंद्र से तारों के माध्यम से जुड़ा हुआ है। यही केन्द्र प्राणियों का तथा संसार की समस्त दृश्यमान हलचलों का प्रेरणा स्थल है। यदि यह शक्ति इस जगत को प्रभावित न करे तो यहाँ सब कुछ निष्क्रिय हो जाय।

शक्ति के बिना शिव भी शव बन जाता है। गायत्री विश्व का- जीवों का प्राण ही नहीं, ब्रह्म का भी प्राण है। कहा गया है-

शक्तिं बिना महेशानिसदऽहं शवरुपकः। शक्तियुक्तो महादेवि शिवोऽहम् सर्वकामदः॥

ब्रह्म का कथन है- “शक्ति के बिना, मैं सदा ही शव के समान अर्थात् प्राण रहित हूँ। जब शक्तियुक्त होता हूँ, तभी मैं सब इच्छाओं को पूर्ण करने वाला मंगल रूप हूं।

वर्तते सर्वभूतेषू शक्ति सर्वनात्मना नृपः। शव वच्छक्ति हीनस्तु प्राणी भवति सर्वदा॥ (देवी भागवत)

अर्थात्- हे राजन्! सम्पूर्ण भूतों में सर्वरूप में शक्ति ही विद्यमान है। शक्तिहीन प्राणी तो सदा शव की भाँति हो जाता है।

सर्वशक्ति परं ब्रह्म नित्यमापूर्ण व्ययम्। न तदस्ति न तस्मिन्यद्विद्यते विततात्मानि॥ (योगवाशिष्ठ)

अर्थात्- नित्य, सर्वथा पूर्ण, अव्यक्त, परम ब्रह्म सर्वशक्तिमय है। ऐसा कोई पदार्थ नहीं, जो उस विस्तृत रूप में न हो।

वस्तुतः इस समस्त जगत की आधारभूत प्रकृति शक्ति ही है। इस शक्ति के ही कारण जीवात्मा का ‘स्व’ बना रहता है। यदि किसी का तिरस्कार करना हो तो उसे रुद्रहीन या विष्णुहीन नहीं कहा जाता वरन् उसे ‘शक्तिहीन’ अशक्त, नपुंसक या निकम्मा कहकर ही तिरस्कृत किया जाता है। उस महाशक्ति के भांडागार से हम जितना असम्बद्ध रहते हैं, उतने ही दुर्बल होते जाते हैं। जितने-जितने उसके समीप पहुँचते हैं, सान्निध्य लाभ लेते हैं, उपासना करते हैं, उतना ही अपना लाभ होता है।

जीवनी शक्ति या प्राणाग्नि के शरीर में प्रतिभासित होने वाले अनेक रूप हैं। पाचन क्रिया से संलग्न जीवनी शक्ति को जठराग्नि, मस्तिष्क में काम करने वाली को मेधा, प्रजनन संस्थान में काम करने वाली को कामोत्तेजना एव मुखमण्डल पर चमकने वाली ऊर्जा को ओजस्विता कहते हैं। पर वस्तुतः वह है एक ही शक्ति। विभिन्न प्रयोजनों के कारण उनके नाम अलग-अलग हैं। देवशक्तियां भी इसी तरह सृष्टि के विभिन्न प्रयोजनों को पूरा करने के लिये विभिन्न रूप धरण किये हैं। तथ्य यही है कि वे एक ही महाशक्ति द्वारा प्रयुक्त होने वाले उपकरण मात्र हैं। इनका वही निर्माण करती है, प्रयोजन में लाती है एवं कार्य कर सकने की क्षमता प्रदान करती है, इसीलिये उसे देवजननी कहा गया है। ऐसी महासत्ता परम शक्तिमान व्यवस्था से संपर्क कर साधक वर्णनातीत आनन्द की अनुभूति करता है एवं भौतिक, आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में असीम लाभ प्राप्त करता है।

पिवन्ति नद्यः स्वयमेनाम्भः, स्वयं न खादन्ति फलानि वृक्षाः। नादन्ति सस्यं खलु वारिवाहाः, परोपकाराय सन्तां विभूतयः॥

-नदियों को किसी ने अपना जल स्वयं पीते नहीं देखा, वृक्ष कभी अपने फल आप नहीं खाते, वारिद अपनी ही वर्षा से उगाया अन्न नहीं ग्रहण करते। उसी प्रकार सन्त-सज्जनों की विभूतियाँ परोपकार में ही प्रयुक्त होती हैं। स्वार्थ में नहीं।


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