“जितनी विराट् सृष्टि है मानवीय अस्तित्व उतना ही निराट् नगण्य, तो भी उसके जीवनयापन के सभी साधनों का पहले से पहले संचयन”-जब इस तथ्य पर विचार करने लगता हूँ तो लगता है सृष्टि का आविर्भाव करुणा से हुआ है। करुणा अर्थात् किसी निरीह के लिये, व्यक्ति के लिये अंतःस्फूर्त भावोद्रेक, उसकी पीड़ा में सहयोगी बनने की भावना। यह प्रक्रिया वृक्ष, वनस्पति, जीव-जन्तुओं से लेकर सृष्टि के कण-कण में विद्यमान देखी जा सकती है।
दूसरी बार जब मैं किसी भटके को रास्ता दिखलाता हूँ, किसी पीड़ित के घावों पर मरहम लगता हूँ, अपनी सहायता से किसी को ऊपर और ऊपर उठता हुआ देखता हूँ तो हृदय से एक पुलक भरी सम्वेदना फूटती है और गले को रौंध देती है। उस समय यद्यपि आँखों में अश्रु उतर आते हैं, पर उस क्षण भर के बोध में सारे जीवन भर का आनन्द और शान्ति अवतरित हो उठे लगते हैं।
अनुभव करता हूँ कि भावनाओं की इस तरंग का विराट् की करुणा से कही न कहीं कोई सम्बन्ध है। इसी में हम परमात्मा को करुणा के रूप में उपासते हैं। अपने निरीह प्राणियों पर करुणा की दृष्टि रखकर ही उस करुणाकर का बोध हो पाया है और अब तो इसीलिये इसे पाने की अपेक्षा प्राणियों में करुणा खोजता-फिरता हूँ। वह जहाँ, भी जितनी देर के लिये उपलब्ध हो, ऐसा लगता है उतनी देर हम परमात्मा की गोद में रह आये।
-कान्ट