विज्ञान को विभिन्न शाखा प्रशाखाएँ गहन अध्ययन से इन्हीं निष्कर्षों पर पहुँची हैं कि ‘विविधता में एकता’ ही सृष्टि का परम नियम है एवं समष्टि चेतना का ही अलग-अलग अंशों में वितरण सृष्टि के विभिन्न घटकों में हुआ है।
सृष्टा कोई ऐसा अतिमानव नहीं है जो प्रकृति के बाहर वास करता हो अथवा किसी विशिष्ट स्थान स्वर्ग में बैठा निर्देश देता रहता हो। वेदान्त दर्शन का कथन है कि जीव पुरुषार्थ के सिद्धान्त से बंधा है। अपने भाग्य का निर्माता वह आप है। अपना भविष्य वह स्वयं अपने हाथों निर्धारित करता है। ऐसे मत का प्रतिपादन करने वाला व्यक्ति अन्ध-विश्वासों में न बंधकर पुरुषार्थ द्वारा अपने विकास का पथ-प्रशस्त करता है। ‘कुछ नहीं’ से ‘कुछ’ का निर्माण करने वाला नहीं वरन् आदर्शों की साकार प्रतिमा ही परब्रह्म का स्वरूप है, वह ऐसा मानता है।
जिस परमात्मा की कल्पना आज का अध्यात्म करना चाहता है, वह साकार भी है, निराकार भी है व इन दोनों से परे भी है। यह परमात्मा स्पिनोजा के लिये मूलतत्व (सबस्टेंशिया) हो सकता है, हर्बर्ट स्पेंसर के लिए अज्ञान (अननोएबुल) हो सकता है, प्लोटो के लिये ईश्वर (गाॅड), इमर्सन के लिये पर-आत्मा (ओवर-सोल) तथा काण्ट के लिए “डिज एन सिच” हो सकता है। ऐसा परब्रह्म, सर्वव्यापक, सृष्टा नाम विशेष के बंधन में नहीं बंध सकता। उसकी परिभाषा, उद्बोधन चाहे जो भी हो ईश्वर, परमात्मा, परमपिता, सृष्टा वही रहेगा।
‘अनेकता में एकता’ के अध्यात्म सिद्धान्त का विज्ञान के साथ उसका पूरा तालमेल है। एक ही तत्व को जगत का सार- मूल केन्द्र वह मानता है। उसी में विकास, और विकास की कल्पना उसे ग्राह्य है, पर क्षण विशेष पर सृष्टि रचना उसे एक असंगत तथ्य लगता है। इस सिद्धान्त के आश्रय पर आत्माएं शाश्वत और सनातन जीवाणु हैं। ऐसी जीवाणु जो कारण और कार्य के सिद्धान्तों से परिचालित हैं। आत्मा अनश्वर है, अमर एवं स्वयंभू शक्ति का परिमित स्त्रोत है। जिस मूल केन्द्र बिन्दु से यह आत्मा जुड़ी है वह परमात्म शक्ति बुद्धि तथा पदार्थ दोनों ही रूपों में प्रतिभासित होती रहती है। जिस प्रकार बृहद् अग्नि राशि के सहस्र अग्निकण निकलते रहते हैं, उसी प्रकार परमात्मा से ही आत्मारूपी अग्निकण बहिर्गत हुए हैं। अद्वैत मान्यतानुसार प्रत्येक आत्मा अनंत ब्रह्म स्वरूप है। लाखों जलकणों पर सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़कर लाखों सूर्य के रूप में प्रतिभासित होता है। उसी प्रकार प्रत्येक आत्मा ब्रह्म के प्रतिबिंब के रूप में विद्यमान है।
भौतिक जगत की संरचना किसी क्षण विशेष में हो सकती है, परन्तु उस परम शक्ति, सार तत्व का कोई आदि नहीं है जो आत्मा के भौतिक स्वरूप को अनुप्राणित करती है। प्रत्येक आत्मा कर्मफल के सिद्धान्त से बंधी है और यही उस परमात्मा, परम सत्ता, ईश्वर का अनुशासन वाला पक्ष है। ईश्वर न पुरस्कृत करने वाला है, न दण्डित करने वाला। वह चेतना का अनन्त स्त्रोत है। कर्म-सिद्धान्त, सद्-असद् परिणामों के व्यापकता के रूप में भी उसकी एक छवि है।
एक स्थान ऐसा है, जहाँ पदार्थ विज्ञानी और अध्यात्मवादी एक ही निष्कर्ष पर जा पहुँचते हैं। आधुनिक विज्ञान कहता है कि जगत का मूल स्त्रोत एक है। वह जड़ और चेतन में समान रूप से विद्यमान है। जड़ में उसे हलचल के रूप में और चेतन में उसे इच्छा एवं बुद्धि के रूप में देखा जा सकता है।
आइन्स्टीन जैसे मूर्धन्य वैज्ञानिकों ने भी आत्मसत्ता (चेतना) को व्यापक एवं अविनाशी माना था। इसका प्रमाण एक वार्ता से मिलता है जिसमें उनसे एक मित्र ने उसकी रोगावस्था में पूछा था कि “क्या आपको मृत्यु से भय नहीं लगता? उत्तर में आइन्स्टीन ने कहा- ‘‘मैं समस्त चेतन सृष्टि से इतना अधिक तादात्म्य अनुभव करता हूँ कि उससे अलग अपनी सत्ता का मुझे भास भी नहीं होता। मेरे लिए यह बात अर्थहीन है कि एक व्यक्ति संसार में कब आता है और कब जाता है। आना-जाना तो चेतना की स्थूल एवं सूक्ष्म अभिव्यक्तियां मात्र हैं। चेतना का प्रवाह तो निरन्तर प्रवाहित है ऐसा मैं अनुभव करता हूँ।’’
स्पष्ट है कि आइन्स्टीन मनुष्य के भौतिक जीवन को चेतना से अलग नहीं वरन् उसका ही एक अभिन्न अंग मानते थे। मृत्यु को उन्होंने अन्त के रूप में नहीं वरन् चेतना के नवीनीकरण की एक प्रक्रिया भर माना है। अपनी अभूतपूर्व खोजों के उपरान्त भी आइन्स्टीन संतुष्ट न थे। जीवन के अन्तिम दिनों में वे अत्यधिक व्यस्त देखे गये। व्यस्तता का कारण था- वे समस्त भौतिक शक्तियों के मूल कारणों की खोज में थे। उनका विश्वास था कि चुम्बकीय, गुरुत्वीय नाभिकीय शक्ति का कुछ ठोस आधार होना चाहिए।
भौतिक की शोधों का चरम लक्ष्य है सृष्टि के मूल में रहस्यों का पता लगाना। शोधें सूक्ष्मतर स्तर पर उतर कर अब उस क्षेत्र में जा पहुँची हैं जहाँ से चेतना का क्षेत्र आरम्भ होता है। मूल रहस्यों का उद्घाटन इसीलिए सम्भव नहीं हो पा रहा है कि खोज की प्रक्रिया भौतिक ही बनी हुई है जबकि चेतना का क्षेत्र सर्वथा भिन्न है। उसे जानने समझने के लिए तो चेतना-विज्ञान का ही अवलम्बन लेना होगा। अपने भटकाव का अब भौतिकविद् भी स्वीकार करने लगे हैं।
सृष्टि के मूल रहस्यों को जानने के लिए भौतिक शास्त्री एलिजाबेथ, माइकेल मर्फी, फ्रिटजोफकाप्रा, डेविड फिन्सेल्टाइन ने मिलकर कैलीफोर्निया यूनिवर्सिटी में लारेन्स वर्कले प्रयोगशाला की स्थापना की। वर्ष 1974 में इस लक्ष्य को आपूर्ति के लिए चालीस मूर्धन्य भौतिकविदों एवं प्राच्य धर्म दर्शन के विशेषज्ञों का एक संगठन बनाया गया। भौतिक विज्ञान के अब तक शोध निष्कर्षों के अध्ययन के उपरान्त अधिकांश वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया कि, ‘हमने सृष्टि रहस्यों को जानने में खोज आरम्भ हो की विशुद्ध विज्ञान से, पर आकर भटक गये दर्शन में”। ब्रह्मांडीय चेतना के शोधकर्ता प्रो. मर्फी ने कहा कि एक नये चिन्तन का प्रादुर्भाव हमारी शोध प्रक्रिया से हो रहा है। मान्यता अब अधिक पृष्ठ होती जा रही है कि अन्तरिक्ष ऊर्जा एवं पदार्थ वस्तुतः एक ही तत्व है। उनका उद्गम किसी एक से हुआ है।
प्रो. काप्रा. की नवीन पुस्तक इन दिनों पाश्चात्य जगत में अधिक प्रख्यात एवं लोकप्रिय हुई है। परा-भौतिकी की यह पुस्तक महत्वपूर्ण सृष्टि तथ्यों पर प्रकाश डालती है। “दि ताओ आफ फिजिक्स” नामक इस पुस्तक ने वैज्ञानिक चिंतन को नये आधार दिये हैं, लेखक ने अमेरिका से प्रकाशित होने वाली प्रसिद्ध पत्रिका ‘सेटर्डेरिव्यू’ में लिखा है कि ‘प्रकृति के अन्वेषण एवं मूल रहस्यों को जाने के लिए तार्किक बुद्धि ही पर्याप्त नहीं है। अन्त प्रज्ञा (इन्ट्यूशन) का महत्व बुद्धि से कहीं अधिक है। अधिक सूक्ष्मतर अनुभूतियाँ बुद्धि के द्वारा नहीं, अंतःप्रज्ञा द्वारा होती हैं। वैज्ञानिक क्षेत्र की असफलताओं का कारण स्पष्ट करते हुए प्रो. काप्रा ने कहा कि “अंतःप्रज्ञा की अपेक्षा, विज्ञान की असफलता का कारण रही है।”
विज्ञान का भटकाव दूर होने के दिन अब समीप हैं। सर्वव्यापी चेतना में संव्याप्त इस ब्रह्माण्ड को अगले दिनों उसी परब्रह्म की प्रतिमूर्ति के रूप में समझा जाने लगेगा जैसा कि वेदान्त का “सर्वं खिल्विदं ब्रह्म” के रूप में प्रतिपादन है।