धर्मधारणा हर दृष्टि से उपयोगी

July 1981

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धर्म को प्रतिभागी एवं अन्धविश्वासी कहना आज का फैशन है। तथाकथित बुद्धिवादी प्रगतिशीलता के जोश में धर्म को अफीम की गोली कहते और उसे प्रगति का अवरोध ठहराते पाये जाते हैं। पर यह बचकानी प्रवृत्ति मात्र है। गम्भीर चिन्तन से इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि मनुष्य के अन्तराल में आदर्शवादी आस्था बनाये रहना और नीति मर्यादा का पालन कराना धर्मधारणा के सहारे ही सम्भव हो सकता है। भौतिक लाभों को प्रधानता देकर चलने और सदाचरण के अनुबंधों को तोड़ देने से उपलब्ध सम्पदाएँ दुष्प्रवृत्तियों को ही बढ़ायेंगी और अन्ततः विनाश का कारण बनेंगी। वैभव पर धर्म का अंकुश रहने से ही शान्ति और व्यवस्था बनाये रह सकना सम्भव होगा।

भूतकाल के और आधुनिक काल के दूरदर्शी दार्शनिक इस सम्बन्ध में एक मत हैं कि धार्मिकता की भावना को नष्ट न होने दिया जाय और उसे जीवन्त रखने से ही व्यक्ति और समाज की सुव्यवस्था बनी रह सकेगी।

मूर्धन्य विचारकों से लेकर सामान्य बुद्धि को भी यह समझने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि सदाचरण और नीति नियमन का प्रयोजन मात्र शासकीय नियंत्रण में नहीं हो सकता। उसकी स्थापना अन्तःकरण के अन्तराल में उच्चस्तरीय आस्थाओं के रूप में होनी चाहिए। धर्म का वस्तुतः यही प्रयोजन है। परम्पराएँ तो सामयिक रीति-रिवाज भर हैं। उनमें विकृति आने पर सुधारने की छूट है, पर इतने भर से समूचे धर्म विज्ञान को अनुपयुक्त नहीं ठहराया जा सकता।

कार्ल जुँग का कहना है कि धर्म की सहायता से ही जीवन के अन्धकार को मिटाया जा सकता है। विकास का वास्तविक लक्ष्य धर्म धारणा से ही सम्भव हो सकता है।

प्रसिद्ध मनोचिकित्सा डा. क्लोसनर ने अपने रोगियों का धर्माचरण की प्रेरणा दी। अनेकों प्रयोगों के उपरान्त घोषणा की कि ‘‘धर्म मनोवैज्ञानिक दृष्टि से शरीर एवं मन को स्वस्थ बनाने का सशक्त माध्यम है। संयम नीति-मर्यादाओं के पालन एवं उच्चस्तरीय आदर्शों के अपनाने से न स्वस्थ एवं प्रसन्न रहता है। फलस्वरूप उसका प्रभाव आरोग्य के रूप में दिखाई पड़ता है।” डा. क्लोसनर ओर कहते हैं कि चिकित्सा के क्षेत्र में उनकी सफलता का प्रधान कारण धार्मिक भावना ही है।

शारीरिक, मानसिक विकास ही नहीं जीवन लक्ष्य की प्राप्ति धर्म धारणा से ही सम्भव है। पूर्णता लक्ष्य है। उस ओर बढ़ना पूर्ण से संबंध जोड़ सकना धर्म-अवलम्बन द्वारा ही सम्भव है। पूर्णता प्राप्ति की सहज प्रवृत्ति मानव अन्तःकरण में विद्यमान है। इसके लिए वह प्रयत्न भी करता है। पर धार्मिक आधारों क अभाव में सफल नहीं हो पाता। इस लक्ष्य की प्राप्ति धर्म धारणा द्वारा ही सम्भव है। धर्म को मनुष्य के जीवन से अलग किया ही नहीं जा सकता।

धर्म जब जीवन में घुल-मिल जाता है- दैनंदिन जीवन की अनुभूति में उतरता है तो विषमता एवं अपने पराये का भेदभाव समाप्त हो जाता है। सर्वत्र अपनी ही सत्ता दिखाई पड़ती है। सम्प्रदाय एवं मजहब की दीवारें आपो-आप समाप्त हो जाती हैं और साधक मुस्लिम धर्म के प्रसिद्ध सन्त ‘इब्नानअली’ की तरह कह उठता है, मेरा हृदय इतना विशाल है कि इसमें मुसलमानों का काबा और कुरान भी, ईसाइयों का गिरजा और बाइबिल है तथा हिन्दुओं का मन्दिर एवं गीता है। मेरा धर्म और मजहब तो मात्र एक है- प्रेम” रामकृष्ण परमहंस ने भी धर्म को साम्प्रदायिकता से अलग हटकर ‘प्रेम’ के रूप में स्वीकार किया था।

परम लक्ष्य ही नहीं व्यावहारिक समस्याओं के समाधान एवं सामाजिक सुव्यवस्था की दृष्टि से भी धर्मावलंबन आवश्यक है। उसके बिना कर्त्तव्यों का बोध एवं उनका परिपालन सम्भव नहीं है। ‘वाल्टेयर’ लिखते हैं कि, “मनुष्य के लिए धर्म उतना ही आवश्यक है जितना कि श्वांस लेना। यदि धर्म नहीं है तो उसका आविष्कार करना होगा।”

वर्तमान समस्याओं पर दृष्टिपात करने पर पता चलता है कि इनकी अभिवृद्धि में धर्म-भावना का अभाव ही प्रधान कारण है। ईश्वर का यदि भय रहा होता तो मनुष्य गिरावट का शिकार कभी नहीं होता। कर्मफल नीति-मर्यादाओं के प्रति आस्था रही होती तो इतनी अव्यवस्था नहीं दिखायी पड़ती। अनीति, अनाचार, दुराचार, अनास्था की ही फलश्रुति है। यदि मानव समाज का उत्थान करना है, पतन से बचाना, श्रेष्ठ एवं सद्गुणी बनना है तो धर्म का अवलम्बन लेना ही होगा। व्यक्तिगत मोक्ष, स्वर्ग, मुक्ति की माना न भी हो तो भी सामाजिक सुव्यवस्था एवं उन्नति की दृष्टि से भी धर्मा का आश्रय लेना उतना ही आवश्यक है। नीति-सदाचार चरित्रनिष्ठा के अभाव में न तो व्यक्तिगत उन्नति सम्भव है और न ही सामाजिक प्रगति। संसार में जितने भी राष्ट्र आगे बढ़े एवं समुन्नत हुए हैं, धार्मिक प्रवृत्तियाँ, नीति, सदाचार जैसी वृत्तियां ही प्रमुख कारण रही हैं। इसके बिना तो भौतिक उपलब्धियाँ भी मनुष्य जाति के लिए लाभप्रद नहीं हो सकतीं।

‘एल्डुअस हक्सले’ का कहना है कि भौतिक प्रगति अथवा विज्ञान की उपलब्धियों का लाभ मनुष्य तभी उठा सकेगा, जब उसके जीवन में धर्म का तत्व जगमगाने लगे। यह न हो तो प्रगति अभिशाप बनकर उलटा प्रहार करती है। पाश्चात्य राष्ट्र इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। प्रगति के क्षेत्र में अमेरिका अग्रणी है, पर अपराध जितने होते हैं उतने अन्य देशों में नहीं। परिवार एवं समाज विश्रृंखलित होते जा रहे हैं। भावात्मक रिश्ते टूटते जा रहे हैं। जन जीवन क्षुब्ध एवं अविश्वासों से भरा है। मनोरोगों की बहुलता है। यह मानसिकता, अशान्ति एवं असन्तोष का ही परिणाम है। क्योंकि सेवा, परमार्थ जैसी प्रवृत्तियों को अपनाने से जो आत्मिक सन्तोष मिल सकता था, वह उन्हें न मिल सका।

नैतिक मर्यादाओं का अंकुश न होने से विज्ञान भी उच्छृंखल बनता जा रहा है। उसकी उपलब्धियाँ विकास की ओर कम विनाश की ओर अधिक बढ़ रही हैं। मानव जाति अणु एवं परमाणु आयुधों के ढेर पर बैठी है, जिसमें कभी भी विस्फोट हो सकता है। तृतीय विश्व युद्ध की विभीषिका सामने है। उसकी कल्पना मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। भावी संकटों को देखते हुये प्रसिद्ध विचारक ‘बट्रैन्ड रसैल’ का कहना है कि “यदि अणु युद्ध हुआ तो सारे संसार में चार या पाँच व्यक्तियों से अधिक नहीं बच सकेंगे। इस विभीषिका में धर्म धारणा ही मनुष्य का उद्धार कर सकती है।’’

बढ़ते मनोरोगों का कारण धर्म भावना का अभाव है। एक आँकड़े के अनुसार विश्व के 10 प्रतिशत व्यक्ति किसी न किसी मनोविकार-मनोरोगों से ग्रसित हैं। चिन्ता, भय, अन्धविश्वास, चिड़चिड़ापन, स्मृति भ्रम, सन्देह, तनाव, थकान, अस्त-व्यस्तता, अवसाद, अनिद्रा जैसे मानसिक रोग दिन-प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं, जो समाज की सुव्यवस्था-आपसी स्नेह सौहार्द की भावना को समाप्त करते जा रहे हैं। इनका उपचार धर्म अर्थात् नीतिमत्ता को अपनाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार हो नहीं सकता।

एक विचारक ने कहा है कि ‘विश्व संकट का समाधान धार्मिकता के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। धर्म धारणा से ही व्यक्तिगत जीवन में प्रसन्नता के स्त्रोत फूटेंगे तथा सामाजिक जीवन में हरियाली का प्रादुर्भाव होगा। वस्तुतः धर्म ही वह आधार है जो मनुष्य को पशु से अलग करता तथा सही अर्थों में मनुष्य बनाता है।


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