मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति पृथक नहीं-एक है।

July 1981

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जड़ और चेतन के बीच अन्तर है कि क्षुद्रतम चेतन जीव भी स्वतंत्र रूप से सोच-विचार सकता है, निर्णय ले सकता है। जबकि जड़-शक्ति संपन्न होते हुए भी स्वतंत्र विचार करने में सर्वथा असमर्थ है। विशालकाय इंजन, हवाई जहाज और कम्प्यूटर तक मनुष्य द्वारा संचालित होते हैं। यन्त्र के कार्य प्राणियों की भाँति कभी नहीं हो सकते। जीवित प्राणियों में स्वाधीनता है, बुद्धि है- जबकि जड़ में इसका अभाव है। जड़ नियमों में आबद्ध है। चेतनबद्ध नहीं है। जिस स्वाधीनता के कारण जीव यन्त्र से भिन्न है उसी पूर्णभाव से पाने के लिए सारी चेष्टाएं चल रही हैं। प्राणी जगत की सम्पूर्ण क्रियाओं का एकमात्र लक्ष्य है-अधिकाधिक स्वतंत्र होना। इसी को आध्यात्मिक भाषा में ‘मुक्ति’ के लिए प्रयत्न कहा गया है।

पूर्णता की प्राप्ति अथवा ‘मुक्ति’ को जीवन लक्ष्य माना है। संसार भर में प्रचलित साधना उपक्रमों का एकमात्र लक्ष्य यही है। जीवन के सभी व्यापार जाने-अनजाने इसी लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। पराधीनता मानवी प्रकृति के विरुद्ध है। उसे तोड़ने के लिए मनुष्य हर संभव प्रयास करता है। बड़ी-बड़ी राजनैतिक क्रांतियां परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़ने के हुई हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति का भाव इस बात का प्रमाण है कि मानवी अन्तराल में कोई ऐसी वस्तु है, जो बंधनों से निकलने के लिए व्याकुल है। अन्दर बैठी आत्मा ही मुक्त होने का भाव संप्रेषित करती रहती है। बाह्य जगत ये मुड़कर जब अंतःक्षेत्र में जड़ जमाकर बैठी हुई पशु प्रवृत्तियों के बन्धनों को तोड़ने का प्रयास किया जाता है तो यह प्रयास ही मुक्ति का आधार बनता है।

मुक्त होने का भाव मनुष्य में बीज रूप में विद्यमान है। उसकी पूर्ण उपलब्धि के बिना शान्ति एवं सन्तोष मिल सकना सम्भव नहीं। जन्म लेते ही नवजात शिशु रूदन आरम्भ करता है। साँसारिक बंधनों के प्रति जीवात्मा का प्रत्यक्ष विरोधी शिशु के रोने के रूप में प्रकट होता है। बचपन में पारिवारिक एवं सामाजिक बन्धनों का अंकुश उसे अच्छा नहीं लगता। युवावस्था में वह अपने को अधिक मुक्त अनुभव करता है। किन्तु स्थूल बन्धनों के ढीला होने पर भी आन्तरिक लोभ-मोह के बन्धन उसे व्यग्र बनाये रहते हैं। उनसे छुटकारा पाने के लिए अंतःप्रेरणाएं उभरती हैं। किन्तु स्वतन्त्रता के इस अंतःभाव का अभिप्राय वह वस्तुओं का स्वतन्त्र उपयोग करने में समझता है। यही भारी वैचारिक भूल होती है। वस्तुओं के स्वतन्त्र उपभोग तो मनुष्य को उनमें और भी आबद्ध करता जाता है। आन्तरिक भावों की प्रेरणा दब कर रह जाती है। परतंत्रता और भी अधिक बढ़ती जाती है। यही कारण है कि बाह्य स्वतंत्रता के होते हुए भी अन्तःप्रवृत्तियों की दासता के कारण आज मनुष्य अधिक पराधीन है। साधनों के उपभोग की आज जितनी अधिक छूट मिल रही है मनुष्य उतना ही व्यग्र होता जा रहा है। लोभ-मोह के बंधनों में स्वयं को जकड़ता जा रहा है। स्वतंत्रता का यह उपहासास्पद प्रयास मनुष्य को पराधीनता की ओर ले जा रहा है।

मनुष्य का आन्तरिक स्वभाव ही प्रकृति विद्रोही है। अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण वह प्रकृति के नियमों का बन्धन स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि मनुष्य जैसे जैसे वस्तुओं के आकर्षण के आबद्ध होता जाता है, उसकी व्यग्रता उसी अनुपात में बढ़ती जाती है। यह इस बात का प्रमाण है कि अपने अन्दर ऐसा कोई स्वतंत्र पुरुष विद्यमान है जिसे पराधीनता स्वीकार नहीं। जो लोभ-मोह के प्रकृति के बन्धनों से निकलने के लिए छटपटाता रहता है। इस अन्तःभाव को न समझकर सामान्यतया लोग स्थूल जगत में नीति नियमों को तोड़ने को ही स्वतंत्रता समझने की भूल कर बैठते हैं। जबकि यह प्रेरणा आन्तरिक दुष्प्रवृत्तियों से निवृत्त होने के लिए होती है।

स्वतंत्र होने के स्थूल प्रयास विभिन्न प्रकार के संघर्षों के रूप में देखे जाते हैं तथा सामाजिक अव्यवस्था के कारण बनते हैं। यह प्रवृत्ति जब आन्तरिक प्रकृति के बन्धनों को तोड़ने के लिए सचेष्ट होती है तो मुक्ति, लक्ष्य प्राप्ति का आधार बनती है। महापुरुषों के उज्ज्वल इतिहास साक्षी हैं कि मुक्त होने के लिए सबने कठोर संघर्ष किये हैं। किन्तु यह संघर्ष बाह्य परिस्थितियों अथवा व्यक्तियों से नहीं, आन्तरिक प्रवृत्तियों से हुए हैं। बाह्य क्रिया-कलाप छुट-पुट संघर्ष भी आन्तरिक वृत्तियों के परिशोधन एवं उन पर विजय प्राप्त करने के निमित्त होते रहे हैं।

भूल यह होती है कि संचित कुसंस्कारों की प्रेरणाओं को अपनाने पर होने वाली हानि को न समझकर प्रकृति के बाह्य नियमों की अवहेलना करने, उसे तोड़ने को ही मुक्ति मान लिया जाता है। इस प्रयास का परिणाम यह होता है कि प्रकृति की जड़ता में मनुष्य और भी अधिक आबद्ध होता जाता है। संसार में चल रहे अधिकाँश स्वतंत्रता के प्रयास लगभग इसी स्तर के हैं। चाहें वह नैतिक हों, सामाजिक हों अथवा राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय।

स्वतंत्र होना सभी चाहते हैं। उसके लिए सही अथवा गलत प्रयास करते हुए सभी देखे जाते हैं। किन्तु यह मुक्ति प्रकृति के भीतर नहीं है। उसके भीतर तो केवल नियम है। जहाँ नियम है- वहाँ बन्धन है। इन स्थूल बन्धनों को बिना उचित अनुचित का विचार किये तोड़ने पर उतारू हो जाना मुक्ति प्रयास नहीं है। मुक्ति का लक्ष्य तो अन्तः की दुष्प्रवृत्तियों पर विजय प्राप्त करने पर ही सम्भव है।

स्थूल जगत में तो यह प्रयास समस्त जड़-चेतन में एक स्वसंचालित प्रक्रिया के रूप में चलता रहता है। पौधा जमीन की गहराई में जाते ही बन्धनों को तोड़ते हुए निकलता है। अंकुरित बीज सीमाबद्ध क्षेत्र में न रहकर अपने को विस्तृत करता है। यह भी मुक्ति का स्थूल प्रयास है। जो उसे विकसित करता तथा फल-फूल से लदे पौधों का स्वरूप प्रदान करता है। जीव-जन्तुओं में शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों में इस प्रकार का प्रयास निरन्तर चलता रहता है।

वासना-तृष्णा, लोभ-मोह की वृत्तियों मुक्त होना ही वास्तविक मुक्ति है। बाह्य प्रकृति के बन्धनों को तोड़ने में सफलता मिल भी जाये तो भी आन्तरिक प्रवृत्तियाँ पुनः उन बन्धनों में आबद्ध कर देगीं। साधना उपचारों का यही लक्ष्य होता है- आन्तरिक परिष्कार एवं प्रवृत्तियों पर नियंत्रण। जप-तप, अनुष्ठान की कठोर साधनाएं इसीलिए की जाती हैं। साधन के विशाल उपक्रम इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए ही बनाये गये हैं। सबका एकमात्र लक्ष्य है- अन्तःप्रकृति पर नियंत्रण।

मुक्ति के इस मूर्त स्वरूप को ही हम ईश्वर कहते हैं। जिसकी प्राप्ति को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। उस आकाँक्षा को एक पल भी त्यागा नहीं जा सकता। जहाँ भी जीवन है वहीं मुक्ति का किसी न किसी रूप में प्रयास अनुसंधान चल रहा है। यह मुक्ति ईश्वर स्वरूप है। इसके द्वारा ही प्रकृति पर आधिपत्य प्राप्त किया जा सकता है। बाह्य प्रयत्नों की अपेक्षा आवश्यकता इस बात की है कि अपनी चेष्टाओं को अंतर्मुखी बनाया जाय। वासना-तृष्णा के मानसिक विकारों को दूर दिया जाय। इसके लिए समग्र साधना का अवलम्बन लेना होगा। साधन के द्वारा जैसे-जैसे साधक ईश्वरीय प्रकाश के निकट पहुँचता है, वैसे-वैसे उसके मन के विकास दूर होते जाते हैं। लोभ-मोह की अन्ध-तमिस्रा परमात्मा सत्ता के प्रकाश के आलोक से तिरोहित हो जाती है। उस स्थिति में साँसारिक आकर्षण साधक को प्रभावित नहीं कर पाते। ‘मुक्त पुरुष’ जो अन्तरात्मा में विद्यमान है, ईश्वरीय प्रकाश के अवतरित होते ही अपने स्वतंत्र स्वरूप में प्रकाशित होता है। इस स्थिति को ही ‘मुक्ति’ कहा गया है। जिसे प्राप्त कर और कुछ पाने की कामना नहीं रह जाती। मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति दोनों में शाब्दिक भिन्नता है वस्तुतः ये दोनों एक ही उत्कृष्ट मनोभूमि की परिचायक हैं।


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