कुण्डलिनी, दिव्य स्तर की प्रचण्ड सामर्थ्य

July 1981

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कुण्डलिनी चिन्मयी, ज्ञान स्वरूपा एक शक्ति का नाम है जिसे योग सम्बन्धी शास्त्रों में साढ़े तीन कुण्डल डाले सर्पिणी के रूप में अलंकारिक ढंग से वर्णित किया गया है। इसके तीन कुण्डल-इच्छा, ज्ञान और क्रिया की तीन धारायें हैं। कुण्डलिनी को ज्ञान स्वरूपा होने के कारण सरस्वती भी कहा जाता है तो पश्यन्ती, मध्यमा, बैखरी प्राणियों के तीन पूरे एवं परा आधा कुंडल मिलाकर साढ़े तीन लपेट कहे जाते हैं। इसी प्रकार आत्मा की तीन अवस्थायें- जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति या विश्व, तेजस् प्राज्ञ तीन अवस्थायें, ॐकार की अकार,उकार, मकार तीन मात्राएं प्रकृति की शक्तियों को सत्, रज, तम तीन गुण वाली होने से इन्हें कुण्डलिनी के तीन कुण्डल कहा जाता है और सभी शक्तियों का उद्भव एवं विलीनीकरण परब्रह्म से होने के कारण उसको आधी मात्रा या आधा कुण्डल कहा जाता है- ऋग्वेद में कुण्डलिनी को साढ़े तीन शक्तियों वाले विष्णु के तेज के रूप में कहा गया है-

सप्तार्ध गर्भा भुवनस्य रेतो विष्णोस्तिष्ठन्ति प्रदिशा विधर्मणि। ये धीतिभिर्मनसा ते विपश्चितः परिभुवः परिभवन्ति विश्वतः॥ (ऋग्वेद मंत्र 1, अ. 22, सूक्त 164, मंत्र 36)

अर्थ- भुवन के व्यापक विष्णु का तेज, साढ़े तीन गर्भयुक्त शक्तियाँ सर्वतोदिशा विभिन्न धर्मों में स्थित हैं अर्थात् अनेक रूपों में अवस्थित है। जो बुद्धि की वृत्तियों और मन द्वारा ज्ञान प्राप्त मनुष्य हैं, वे सर्वत्र सबका पराभव करते हैं।

योग शिखोपनिषद में चिन्मयी कुण्डलिनी महाशक्ति को नमन करते हुए कहा गया है-

सुषुम्नायै कुण्डलिन्यै सुधायै चन्द्रमण्डलात्। मनोन्मन्यै नमस्तुभ्यं महाशक्त्यै चिदात्मने॥ (योग शिखोपनिषद् 6,3)

अर्थ- सुषुम्ना, कुण्डलिनी, चन्द्रमण्डल से झरने वाली सुधा और मन की उन्मनी अवस्था, चिन्मयी महाशक्ति तुझको नमन करता हूँ।

भावनोपनिषद् में क्रिया-शक्ति को पीठ, ज्ञान शक्ति को कुण्डलिनी एवं इच्छा शक्ति का शरीर रूपी गृह की स्वामिनी महात्रिपुर सुन्दरी कहा गया है। इच्छा, ज्ञान, क्रिया ये तीन और आधा चिद्रूप ये साढ़े तीन कुण्डल उसके कहे जाते हैं।

मानव-देह की सर्वोत्कृष्टता उस चैतन्य शक्ति कारण ही है जो सब मनुष्यों में जन्म से कुण्डलिनी शक्ति के रूप में विद्यमान है।समष्टिगत प्राण को ही चितिशक्ति कहा जाता है। चिति शक्ति का व्यष्टि रूप कुंडलिनी कहा गया है। मनुष्य देह को यदि एक चेतन रेडियो यन्त्र के समान माना जाय तो समष्टिगत चेतन शक्ति को ट्रान्समीटर द्वारा प्रसारित विद्युत तंरगों का वैद्युत्मण्डल कहा जा सकता है।

देहस्थ कुण्डलिनी शक्ति जागृत होने पर व्यक्ति का समष्टिगत चेतना से सम्बन्ध जुड़ जाता है। कुण्डलिनी जागरण को आध्यात्मिक पथ का प्रवेश द्वार कहा जाता है। कठोपनिषद् में यमाचार्य नचिकेता को जिस आत्म-तत्व के बारे में बताते हैं, वह वस्तुतः कुण्डलिनी का विवेचन है-

या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी। गुहां प्रविश्य तिष्ठन्ती या भूतेभिर्व्यजायत॥

अर्थात्- जो देवतामयी अदिति प्राण से उत्पन्न होती है, गुहा में प्रवेश करके स्थित हुई वह सब प्राणियों में व्यक्त होती है, वही आत्म- तत्व है।

योग के द्वारा चेतना के विकास से अपनी मनःस्थिति को बदलकर स्नायु संस्थान पर नियन्त्रण किया जा सकता है। योगाभ्यास, मुद्रा, बन्ध, प्राणायामादि का प्रत्यक्ष प्रभाव अंतःस्रावी ग्रन्थियों और स्नायु-संस्थान पर पड़ता है। व्यक्तिगत चेतना इससे विकसित होती है, परिष्कृत चेतना अपने प्रति स्वयं सजग होने लगती है। चेतना का यह परिवर्तन, परिष्कार प्रार्थना, जपादि अन्य अभ्यासों से भी शनैः शनैः होता है परन्तु कुण्डलिनी योग का श्रद्धापूर्वक अभ्यास उसमें शीघ्रता ला देता है। ध्यान की उच्चतम स्थिति- मन के अतिक्रमण की अवस्था में पहुँचने के लिए मन का नियंत्रण इस प्रकार सुगम हो जाता है।

कुण्डलिनी योग, शरीर-चेतना के विभिन्न केन्द्रों को जगाकर मन की शक्तियों के जागरण की प्रक्रिया है। चेतना के विभिन्न केन्द्र मेरुदण्ड में अवस्थित शक्ति भँवर कहलाते हैं। एक-एक चक्र की शक्तियाँ जागृत होते जाने से चेतन-स्थिति में परिवर्तन-उन्नयन होता जाता है। प्रथम चक्र मूलाधार से लेकर छठवें आज्ञाचक्र तक जागृति होने पर चेतना के स्तर में अन्तर आता है, मन का विस्तार होता है। अन्त में अभ्यास करते-करते मन के अतिक्रमण की अवस्था अर्थात् कुण्डलिनी जागरण की अवस्था आ पहुँचती है और साधक अपने की विराट-चेतना में अनुभव करते हुए निहाल हो जाता है।

कुण्डलिनी को ज्ञान शक्ति, दैवी शक्ति, प्राण शक्ति का उद्गम या उच्च चेतना की कुंजी रूप शक्ति आदि कहा जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान के शब्दों में “अचेतन मन की प्रसुप्त शक्ति” को कुण्डलिनी कहा जा सकता है। इसे सर्प-शक्ति भी कहते हैं। हिन्दू इसे देवी या शक्ति नाम से सम्बोधित करते हैं। चीन में ‘ची-शक्ति’ जापान में ‘की-शक्ति एवं अफ्रीका में ‘नॐम’ इसी को कहते हैं। ईसाई सन्त तेरेसा ने भी कुण्डलिनी शक्ति के अनुभवों को लिखा है।

योगी लोग कुण्डलिनी शक्ति का मार्ग शरीरस्थ केन्द्र मूलाधार से सहस्रार तक मानते रहे हैं। रीढ़ की हड्डी (सुषुम्ना) में 6 केन्द्रों (चक्रों) को प्रमुख माना जाता है। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र ये 6 चक्र प्रमुख हैं। सप्तम सहस्रार को सभी चक्रों का नियंत्रक कहा जाता है। सप्तम सहस्रार को सभी चक्रों का नियंत्रक कहा जाता है। शरीर के बिन्दु, भूमध्य आदि अन्य चक्रों का कार्य प्रमुख षट्चक्रों में ही आ जाता है।

मूलाधार चक्र को कुण्डलिनी का स्थान कहा जाता है। इसकी स्थिति मल-मूत्र छिद्रों के मध्य गह्वर में होती है। इसका तत्व पृथ्वी है। दूसरा स्वाधिष्ठान चक्र जननेन्द्रिय से ऊपर की सीध में है। इसका अधिष्ठाता जल तत्व है। तीसरा मणिपूर चक्र नाभि की सीध में पीछे अवस्थित माना जाता है। इसका तत्व अग्नि है, इसे अग्नि चक्र भी कहते हैं। चौथा अनाहत चक्र, हृदय के पीछे स्थित है। इसका अधिष्ठाता वायु तत्व है। पाँचवें आकाश तत्व के प्रतिनिधि विशुद्धि चक्र की स्थिति कंठ के पीछे है। छठा आज्ञाचक्र पीनियल ग्रन्थि पर अवस्थित माना जाता है, यहाँ सब तत्वों का समन्वय है। इसको गुरु चक्र भी कहते हैं। अन्तिम मस्तिष्क मध्य स्थित सहस्रार है जहाँ कुण्डलिनी का विश्व से मिलन होता है।

सुषुम्ना स्थित ये चक्र स्थूल रूप में नहीं हैं बल्कि सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं। आधुनिक वैज्ञानिक इन चक्रों को असीमित शक्ति के भण्डार मानते हैं परन्तु इनके जागरण का उपाय उनके पास नहीं हैं ये आध्यात्मिक चक्र अनेकों रहस्यों को छिपाये हुए हैं। सामान्यतया वे निष्क्रिय-प्रसुप्त पड़े रहते हैं। आध्यात्मिक साधक इन असीम शक्ति चक्रों का उद्घाटन करना चाहता है। यह उद्घाटन कुण्डलिनी जागरण से होता है, साधक को उस समय अपनी शक्तियों का अनुभव होने लगता है।

अमेरिका के डा. ली सेनेला ने कुण्डलिनी शक्ति पर अनेक प्रयोग परीक्षण किये हैं उन्होंने अपनी पुस्तक “कुण्डलिनी साइकोसिस एण्ड ट्रान्सैडेन्स” में कुण्डलिनी जागरण की विधियों का भी उल्लेख किया। व्यक्ति का चरित्र-चिन्तन उत्कृष्ट एवं कर्तृत्व आदर्शवादी होते जाने पर उसकी अन्तःशक्तियों का विकास स्वयं होने लगता है।

कुण्डलिनी जागरण से व्यक्ति की चेतना का स्तर ऊँचा उठा है। यह सूक्ष्म प्रक्रिया है शरीर में स्थूल परिवर्तन नहीं होता। व्यक्तित्व में आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है। व्यक्ति की चेतना का विस्तार होने लगा है फिर वह संकीर्ण, स्वार्थी रह नहीं सकता। व्यक्तियों की जीवनधारा में महान परिवर्तन होकर वे निकृष्टता को छोड़ महानता की ओर इस कुण्डलिनी शक्ति के जागरण से ही बढ़े हैं।


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