दूसरों की सहानुभूति, स्नेह, आत्मीयता पाने की स्वाभाविक आकाँक्षा मनुष्य मात्र में होती है। इसी की पूर्ति के लिए मनुष्य मैत्री करता, परिवार बसता है। मित्रों की सहजता, सुख-दुःख में हाथ बंटाने की प्रवृत्ति मिलने वाली सहानुभूति से उसे मानसिक एवं आत्मिक संतुष्टि मिलती है। परिवार बसाने, पत्नि, बच्चों को जाल-जंजाल मोल लेने के पीछे एक ही मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि निकटता के द्वारा अधिक से अधिक स्नेह, सहयोग, सहानुभूति अर्जित करना। बच्चों से मिलने वाले वात्सल्य की कीमत पर वह बड़े से बड़ा त्याग करने में भी नहीं हिचकता। निकटवर्ती आत्मीय व्यक्तियों को सहयोग करने पर भौतिक दृष्टि से तो घाटा ही घाटा दिखाई पड़ता है, पर इसके बदले में मिलने वाली आत्मीयता के लिए वह यह घाटा सहर्ष स्वीकार करता है। मित्रता में भौतिक वस्तुएँ नहीं, मित्रों का स्नेह ही मिलता है। उनके उन्मुक्त सान्निध्य से मिलने वाले अनिवर्चनीय आनन्द के लिए कीमती वस्तुएँ भी छोड़ दी जाती हैं। पार्टियां इसीलिए आयोजित की जाती हैं कि हितैषी मित्रों की सहानुभूति अधिक से अधिक अर्जित की जा सके।
मनुष्य एक चेतन प्राणी है। वह मात्र भौतिक वस्तुओं से संतुष्ट नहीं हो सकता। अन्तर्निहित चेतना को दूसरों का स्नेह-आत्मीयता पाने की आकाँक्षा होती है। पाने पर ही वह तुष्ट होती है। पूर्ति न होने पर खिन्न, अतृप्त बनी रहती है। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को जानकर ही परिवार बसाने, समाज गठित करने की योजना ऋषियों ने बनायी होगी। पारिवारिकता एवं सामाजिकता के जहां भौतिक लाभ हैं, वहीं इस आत्मिक आवश्यकता की भी पूर्ति अपने आप होती रहती है। पर्व, त्यौहार, बड़े आयोजनों में समूह को एकत्रित करने के पीछे यही तथ्य निहित कि परस्पर एक-दूसरे के प्रति आत्मीयता उभरे- सहानुभूति का आदान-प्रदान चले। सहृदयता एवं सेवा का भाव उमड़े।
सामान्यतया मान्यता यह है कि दूसरों की सेवा, परोपकार, परमार्थ भौतिक वस्तुओं द्वारा ही किये जा सकते हैं, पर यह एक सीमा तक सच है। वास्तविकता तो यह है कि सहृदयता, स्नेह-सहानुभूति से भरे-पूरे शब्द, आश्वासन दूसरों के लिए कही अधिक प्रेरणादायक एवं लाभप्रद सिद्ध होते हैं। जबकि इनके अभाव में उपेक्षा अन्यमनस्कता से किया गया सहयोग भी उतना प्रभावी सिद्ध नहीं हो पता। उपयोगी बनने के लिए उसमें सहानुभूति का चमत्कारी प्रभाव पड़ते देखा गया है। मनोचिकित्सा का सम्पूर्ण काय-कलेवर इसी तथ्य पर अवलम्बित है। मानसिक रूप से विक्षुब्ध मनोरोगी भी स्नेह एवं सम्वेदना का अवलम्बन पाकर ठीक होते देखे गये हैं। मनोचिकित्सक अपनी सहानुभूति दर्शाकर, विश्वास अर्जित कर कठिन मनोरोगों की भी चिकित्सा करने में सफल होते हैं। आत्मीयता प्रकार रोगी के मन में आशा का संचार होने लगता है। असाध्य समझे जाने वाले मनोरोग भी कई बार ठीक होते देखे गये हैं। मनोचिकित्सा की सफलता में उपचार प्रक्रिया का कम, चिकित्सक के अन्तरंग से छलकने वाली सहृदयता का अधिक योगदान होता है, जिसका चमत्कारी प्रभाव रोगी के ऊपर पड़ता है।
सहृदयता स्वयं में एक बड़ी शक्ति है- समग्र उपचार पद्धति है। सन्त, महात्मा, ऋषि, देवदूत इसी के पुँज होते हैं। उनके हृदय के अन्तराल से निकलने वाली सहानुभूति की किरणें निकटवर्ती व्यक्तियों पर चमत्कारी प्रभाव डालती हैं। उनके आशीर्वाद- आश्वासन से कठिन रोग भी ठीक होते देखे गये हैं। आश्वासन पाकर रोगी का मनोबल बढ़ते जाता है। दुर्बल मनःस्थिति ही समस्त रोगों की जड़ है। जिसके रहते कोई भी उपचार पद्धति सफल नहीं होती। इस मनोवैज्ञानिक तथ्य से अवगत सन्त, महात्मा रोगी के मनोबल को ही बढ़ाने का प्रयत्न करते हैं। उनके आश्वासन एवं आशीर्वाद के चमत्कारी प्रभाव के पीछे मनोबल का बढ़ना ही प्रमुख कारण होता है। जिससे रोगी भविष्य के प्रति आशान्वित हो जाता है।
सहानुभूति की आवश्यकता रोगी को ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति को होती है। मनुष्य की यह मौलिक आवश्यकता है जिसकी आपूर्ति वह चाहता है। नर-नारी, बच्चे, युवक, वृद्ध सभी को अपेक्षा होती है कि उनसे अन्य लोग सहानुभूति रखें। स्नेह, सम्मान दें। दुःखों में हिस्सा बंटायें। इसकी पूर्ति जहाँ जिनकी मात्रा में होती रहती है, वहाँ की परिस्थितियाँ भी उतनी ही श्रेष्ठ, स्नेह, सद्भाव से भरी-पूरी होती हैं। व्यक्ति की सहृदयता ही पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन की शालीनता एवं सुव्यवस्था का मूल आधार है। सेवा, सहयोग के अधिकाधिक भावों से ही आत्मीयता का विस्तार होता है। सुख-साधनों की बहुलता भी, अपेक्षा के रहते मनुष्य को संतुष्ट नहीं कर सकती। मनोरोगियों के पर्यवेक्षण अध्ययन से यह निष्कर्ष निकला है कि अधिकांश का जीवन अपेक्षित रहा। वाँछित सहानुभूति न मिल पाने के कारण वे छोटे-छोटे आघातों को भी सहन करने में असमर्थ रहे। प्रेरणाओं के अभाव में वे भविष्य के प्रति निराशावादी बन गये। सामने आयी प्रतिकूलताओं को चिरस्थायी मान लेने, किसी से सहयोग का आश्वासन न मिलने से वे अपना सन्तुलन खो देते हैं। जिससे सामने आये अवरोध जिनको थोड़े प्रयास से टाला जा सकता था, वे भी असम्भव बन जाते हैं।
सहृदयता मानवी गरिमा का मेरुदण्ड है। जिसका सम्बल पाकर ही व्यक्ति एवं समाज ऊंचे उठते, मानवी गुणों से भरे पूरे बनते हैं। इसका अभाव निष्ठुरता, कठोरता, असहिष्णुता जैसी प्रवृत्तियों के रूप में प्रकट होता है। पारिवारिक विग्रहों एवं सामाजिक विघटनों में परस्पर की आत्मीयता का अभाव एवं इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप पनपने वाली संकीर्ण स्वार्थपरता का ही प्रमुख योगदान होता है। चिन्ता, कुण्ठा, आत्महीनता, आवेश, उत्तेजना जैसे मनोरोगों में परिस्थितियों का कम अपेक्षा का अधिक योगदान होता है। स्नेह, आश्वासन के अभाव से निराशावादी चिंतन चलता तथा भविष्य अंधकारमय दिखायी पड़ता है।
मानसिक स्वास्थ्य का एकमात्र आधार है- मनुष्य स्नेह एवं आनंद का अनुभव करे तथा अन्यों को भी अपने स्नेह आनंद में सहभागी बनाये। मूर्धन्य मनोविश्लेषक डा. ‘सिगमण्ड फ्रायड’ का कहना है कि “समस्त मानसिक विकृतियों का कारण स्नेह का अभाव है। स्नेह स्वीकार करने की तथा स्नेह देने की तत्परता मानसिक स्वास्थ्य का लक्षण है।” आदान-प्रदान का यह क्रम जिस भी परिवार अथवा समाज में जितना ही अधिक चलेगा वह उतना ही सभ्य एवं समुन्नत होगा। समस्याओं की अधिकता एवं परिस्थितियों की विकटता आज चरम सीमा पर है। मनुष्य के बीच सौहार्द्र के बन्धन टूटते जा रहे हैं। अविश्वास एवं निराशा का ही साम्राज्य दिखायी पड़ता है। स्वार्थपरता, संकीर्णता की प्रवृत्ति आग की तरह फैलती जा रही है। यह इस बात के प्रमाण हैं कि भाव-सम्वेदनाओं की दृष्टि से मनुष्य खोखला होता जा रहा है। मानवी गरिमा के टूटते हुए इस मेरुदण्ड को हर कीमत पर बचाया जाना चाहिए। सहृदयता विकसित करने, उभारने, स्नेह, सहानुभूति बिखेरने के लिए हर सम्भव प्रयास करना चाहिए।