मानवोत्कर्ष का मूलमंत्र- जिज्ञासा

July 1981

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न्यूटन, सेब के एक भाग में बैठे थे। इतने में हवा के झोंके से साथ पेड़ से एक सेब टूटकर नीचे गिरा। मन में यह बात उठी कि कोई वस्तुतः नीचे ही क्यों गिरती है। उत्पन्न जिज्ञासा ने नई दिशा में सोचने को बाध्य किया। फलस्वरूप इस तथ्य का उद्घाटन हुआ कि पृथ्वी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति है। ‘जेम्स वाट’ खौलते हुए पानी को देख रहे थे। अचानक एक विचार उनके मस्तिष्क में कौंध गया। पानी से निकलने वाली वाष्प ढक्कन को ऊपर धकेल रही थी। वाष्प में इतनी शक्ति हो सकती है, तो क्या इसका उपयोग अन्य कार्यों के लिए नहीं किया जा सकता। इन विचारों ने ‘वाट’ को शोध के लिए बाध्य किया। शक्तिशाली भाप का इंजन जेम्सवाट के जिज्ञासा भरे प्रयत्नों की ही परिणति है। जॉन गिटनवर्ग हीरा खरीदने और काटने का व्यवसाय करता था। एक दिन उसने ठप्पों से छपे खेलने वाले ताश के पत्ते देखे जो देखने में भद्दे लगते थे। गिटनवर्ग ने सोचा कि क्या उनकी छपाई सुन्दर एवं अच्छी नहीं हो सकती? हाथ से बनाये गये लकड़ी के ठप्पों से उसने छपाई का कार्य प्रारम्भ किया। उसने सन्त क्रिस्टोफट का चित्र लकड़ी पर खोद कर ठप्पा तैयार किया। उससे तैयार होने वाला चित्र इतना आकर्षक एवं सजीव लगता था जिसे देखकर स्थानीय गिर्जाघर के पादरी ने सन्त जॉन की इतिहास पर हाथ से लिखी पुस्तकें उसे भेंट कीं। गिटनवर्ग ने सन्त जॉन की कथा 60 पृष्ठों में छाप कर तैयार की। जिसमें उसे अत्यधिक श्रम करना पड़ा। गिटनवर्ग द्वारा डाली गई छापेखानों की नींव ने सम्पूर्ण विश्व में छापने की कला का विकास किया। इस आविष्कार को एक शब्द में गिटनवर्ग की जिज्ञासा का ही परिणाम कहा जा सकता है। छापने के आधुनिकतम यन्त्रों के निर्माण में मौलिक प्रेरणा गिटनवर्ग की ही है।

‘लुई डेगुरे’ इंग्लैण्ड का एक चित्रकार था। एक दिन व शीशे के समक्ष खड़ा होकर अपना चेहरा देख रहा था। एकाएक उसके मस्तिष्क में विचार आया कि क्या बिना चित्र के बनाये वस्तुओं का चित्र खींचा जा सकता है? चित्रकारी छोड़कर वह इस दिशा में खोज के लिए जुट पड़ा। आरम्भिक अनेकों कठिनाइयों एवं असफलताओं के पश्चात् वह फोटो चित्रण तकनीक का विकसित करने में सफल हो गया। फोटोग्राफी की नवीनतम विकसित प्रणालियों में भी मौलिक सूझबूझ डेगुरे की ही है।

इंग्लैंड की विलियम फ्रीजग्रीने एक फोटोग्राफर था अपनी स्थिति पर उसे सन्तोष न था। नये आविष्कारों में उसे अभिरुचि थी। आन्तरिक जिज्ञासा ने उसे चल-चित्र की कल्पना दी। चिन्तन और प्रयास कल्पना को साकार रूप देने में लग गये। जिज्ञासा कल्पना तक सीमित नहीं रही वरन् क्रिया में परिणित हुई। चलचित्र का विकास हुआ। ‘फ्रीजग्रीने’ को चलचित्र का आविष्कारक माना जाता है। कालान्तर में चल-चित्र में आश्चर्यजनक विकास हुआ। अब उसे विज्ञान के विलक्षण चमत्कार के रूप में देखा जाता है।

‘अलेक्जेन्डर ग्राह्म बेल’ पुस्तक के अवलोकन में खोया था। पुस्तक साँकेतिक प्रणाली द्वारा समाचार भेजे जाने पर आधारित थी। ‘ग्राह्म’ के मन में ऐसी संचार व्यवस्था के निर्माण की प्रेरणा उठी जिससे एक स्थान पर बैठा व्यक्ति दूरवर्ती व्यक्तियों से उसी प्रकार बात कर सके जैसे दो व्यक्ति आमने सामने करते हैं। ग्राह्म का चिन्तन एवं क्रिया-कलाप इसी खोजबीन में लगा रहा। अंततः उसे सफलता मिली। स्काटलैण्ड के बोस्टन नगर में पहली टेलीफोन संचार व्यवस्था बनाने में ग्राह्मबेल सफल हुआ। आज समर्पण विश्व में मनुष्य को एक दूसरे के निकट लाने में, संपर्क जोड़ने में यह व्यवस्था कितनी समर्थ सिद्ध हुई है, इस तथ्य से हर कोई भली-भांति परिचित है।

“हेनरी ग्रे” ने अपने शरीर पर ध्यान दिया तो उसे अपना हर अवयव अपने में विशिष्ट जान पड़ा। जिज्ञासा विचारों तक सीमित नहीं रही। सत्य की जानकारी प्राप्त करने वास्तविकता को जानने के लिए ‘ग्रे’ ने अनेकों मृत मानव शरीरों को चीर डाला। प्रत्येक अंग प्रत्यंग का बारीकी से अध्ययन किया। मात्र 32 वर्ष तक जीवित रहने वाले उस युवक ने ‘ह्यूमन एनाटमी’ के रूप में चिकित्सा जगत को जो दिया, उसे भुलाया नहीं जा सकता।

भौतिक आविष्कारों के इतिहासकार दृष्टिपात किया जाय तो एक ही तथ्य हाथ लगता है कि मानवी जिज्ञासा ही महत्वपूर्ण उपलब्धियों की आधार रही है। सृष्टि रहस्यमय है और उसके प्रत्येक घटक अपने में अनेकों विचित्रताऐं छिपाये हुए है। कौतूहल मानवी स्वभाव है और विकास का आधार भी। रहस्यों का उद्घाटन एवं महत्वपूर्ण उपलब्धियां इसी के बलबूते सम्भव हो सकी है। पाषाण युग के आदिम मानव ने जिज्ञासा भरे नेत्रों से प्रकृति को देखा और सतत् प्रयत्नों द्वारा नये-नये आविष्कारों को जन्म दिया। वह प्रगति के सोपानों पर चढ़ते हुए, पिछड़ेपन को कुचलते हुये सभ्यता की वर्तमान स्थिति तक जा पहुँचा है। जानने, समझने और कुछ अर्जित करने की जिज्ञासा न रही होती तो मनुष्य पाषाण युग की नर-वानर स्थिति में ही पड़ा रहता। अकर्मण्य बना पशु तुल्य ही जीवन व्यतीत करता। प्रकृति भण्डार से असीम सम्पदा न तो प्राप्त सकना सम्भव हो पाता, न ही वैज्ञानिक आविष्कारों का सूत्रपात।

कौतूहल पशुओं में भी होता है, पर वह जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं- आहार निद्रा और मैथुन जैसे प्रयोजनों तक ही सीमित रहता है। आविष्कारक बुद्धि उनमें नहीं होती। मनुष्य को इस परिधि में सीमित रहना नहीं रुचता। फलस्वरूप वह प्रकृति के रहस्यात्मक जगत में नित नयी छलाँग लगाने का प्रयास करता रहता है। उस उत्साह, लगन एवं जिज्ञासा की ही परिणति है कि वह पृथ्वी की सीमाओं को लाँघकर अन्तरिक्ष क्षेत्र में जा पहुँचा। उद्देश्य सदा उपलब्धियों को अर्जित करना नहीं रहा वरन् जिज्ञासा की सन्तुष्टि रही है। चन्द्रमा के धरातल पर पहुँचकर धूल एवं चट्टान के टुकड़े प्राप्त कर लेने से कोई विशिष्ट प्रयोजन नहीं हल हुआ। मात्र अन्तःजिज्ञासा को तृप्ति मिली।

जिज्ञासा के रूप में परमात्मा का दिव्य अनुदान प्रत्येक मनुष्य को मिला हुआ है। बच्चा पैदा होते ही प्रत्येक वस्तु को जिज्ञासा भरे नेत्रों से देखता है। अभिभावकों के समक्ष क्या एवं क्यों जैसे प्रश्नों की झड़ी लगा देता है। यही प्रवृत्ति उसके भावी विकास का आधार बनती है। तर्क बुद्धि के अभाव में बच्चों को मूढ़, मूर्ख समझा जाता है। वैज्ञानिकों का चिन्तन नये अनुसन्धानों में निरत रहता है। फलस्वरूप वे अनेकानेक उपलब्धियों से समाज को लाभान्वित करते हैं। मानवी जिज्ञासा की यह भौतिक परिणति हुई, जो एक सीमा तक आवश्यक है, उपयोगी भी। पर जीवनपर्यन्त बनी रहने वाली जिज्ञासा इस बात की परिचायक है कि वह बहिर्जगत की उधेड़-बुन द्वारा मात्र सन्तुष्ट नहीं हो सकती। वह तो सृष्टि के मूलभूत सत्य के साक्षात्कार द्वारा ही शान्त होगी।

जिन्होंने भी शाश्वत सत्य की खोज में अन्तःजिज्ञासा को मोड़ा, अपने जीवन को सार्थक बना लिया। शान्ति एवं सन्तोष का- प्रसन्नता एवं प्रफुल्लता जैसी उपलब्धियों का लाभ उठाया। उनके जीवन में असंतोष नहीं रहा। अभावों में भी वे सन्तुष्ट रहे तथा समाज को प्रकरण एवं प्रकाश देते रहे। वह चाहे बुद्ध हों अथवा ईसा, विवेकानंद हों या दयानंद, गान्धी हों अथवा सुकरात- सबने ही उस परम सत्ता के-शाश्वत सत्य के दर्शन को लक्ष्य बनाया। उनकी जिज्ञासा वस्तुओं तक सीमित नहीं रही फलस्वरूप वे अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल रहे स्वयं शान्ति एवं सन्तुष्टि का आनन्द लिया और दूसरों को भी प्राप्त करने के लिये प्रेरित किया।

ईश्वर प्रदत्त जिज्ञासा रूपी दिव्य अनुदान मात्र भौतिक कौतूहलों में उलझा नहीं रहना चाहिए, वरन् जीवन लक्ष्य को समझने एवं प्राप्त करने में नियोजित होना चाहिए। अन्तःजिज्ञासा का समाधान तभी सम्भव है।


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