प्रेम ही परमेश्वर है।

July 1981

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इन दिनों भौतिकता की जो भयंकर आग लगी है उसने न केवल साँसारिक, यथार्थ एवं सौंदर्य को नष्ट-भ्रष्ट नहीं नहीं, अपितु मानवी संवेदनाओं को भी मटियामेट कर दिया है। मनुष्य नित्य विकृति की ओर अग्रसर होता दिखाई पड़ता है। ऐसा लगता है कि उसका अन्दर से कोई आधार टूट गया है। कोई बहुत अनिवार्य जीवन शिरा जैसे नष्ट हो गया है। यह विकृति और विघटन मात्र व्यक्ति तक ही नहीं सीमित रहे हैं, इसके परिणाम समष्टि तक फैल गये हैं। परिवार से लेकर पृथ्वी की समग्र परिधि तक शुष्कता एवं हृदय की नीरसता से उत्पन्न बेसुरी प्रतिध्वनियाँ सुनाई दे रही हैं। एक तालाब में डाला गया पत्थर लहर वृत्तों को कूल किनारों तक फैला देता है। मानव चित्र में उठी विकृति की लहरें भी इसी तरह सारी मनुष्यता के अंतःस्थल को आन्दोलित करती हैं। मनुष्य एक व्यक्ति मात्र नहीं है। उसकी जड़ें समष्टि तक फैली हैं। इसीलिये उसमें उत्पन्न मानसिक अथवा आत्मिक विकृति व्यापक रूप से संक्रामक सिद्ध होती है।

इस शताब्दी का एक ही महारोग है- मनुष्य हृदय से प्रेम स्त्रोत का सूख जाना। हम सबके हृदय से सहज संवेदना एवं तरल करुणा आज न जाने कहाँ चली गयी है। हृदय इन मानवोचित गुण बिना मात्र धड़कन की यंत्रीकृत प्रक्रिया भर है। प्रेम के अभाव में व्यक्ति अपनी ही काया में स्वयं कैद है, जिसे मोह की, संकीर्णता की काया कहा जा सकता है।

किसी व्यक्ति एक संत से पूछा- ‘‘मनुष्य की भाषा में सबसे मूल्यवान शब्द कौन-सा है?” उनका उत्तर था- प्रेम। पूछने वाला चौंक पड़ा। उत्तर उसकी अपेक्षा के विपरित था। उसने सोचा था- आत्मा परमात्मा या इनसे सम्बन्धित कोई अन्य दार्शनिक शब्द उनके मुख से निकलेगा। वस्तुतः प्रेम ही प्रभु है। प्रेम ही संसार में एक अकेली अपार्थिव वस्तु है। यह अद्वितीय है। मनुष्य का सारा दर्शन, सारा काव्य, सारा धर्म एवं सारी संस्कृति इसी एक शब्द से अनुप्रेरित है। मानवीय जीवन में जो भी श्रेष्ठ और सुन्दर है, वह सब प्रेम से ही जन्म और जीवन पाता है।

प्रेम का अभाव सबसे बड़ी दरिद्रता है। जिसके भीतर प्रेम नहीं, वह दीन है। प्रेम इस बोध का परिणाम है कि मैं सर्वसत्ता से पृथक और अन्य नहीं हूँ। मैं उसमें हूँ और वह मुझमें है। एक सूफी कथा है- किसी प्रेमी ने अपनी प्रेयसी के द्वार को खटखटाया। भीतर से पूछा गया-कौन है? प्रेमी ने उत्तर दिया- मैं हूँ। तुम्हारा प्रेमी। प्रत्युत्तर मिला- इस घर में दो को स्थान नहीं है। कुछ दिनों बाद प्रेमी पुनः उसी द्वार पर लौटा। इस बार “कौन है” के उत्तर में उसका जवाब था- ‘‘तू ही है” और वे बन्द द्वारा उसके लिये खुल गये। ईश्वर और जीव के सम्बन्ध ऐसे ही होते हैं।

प्रेम योग का साधक अपने अन्तरंग में भावात्मक और बहिरंग में क्रियात्मक प्रेमतत्व की दिव्य संवेदनाओं का परिचर देता है। जिसके रसास्वादन से आत्मा को असीम तृप्ति होती है, वह रस और कुछ नहीं प्रेम ही है। प्रेम के द्वार उसके लिये ही खुलते हैं जो अपने “मैं” को छोड़ने के लिए तैयार हो जाता है।

प्रेम के तीन रूप हैं। निष्काम प्रेम, सकाम प्रेम तथा ज्ञानयुक्त प्रेम। सकाम प्रेम आसक्ति है। निष्काम प्रेम भक्ति है। ज्ञानयुक्त प्रेम तर्क पर आधारित है। अपनी-अपनी स्थिति अपने-अपने परिवेश के अनुरूप हर कोई योग के प्रकारों में से कोई एक चुन लेता है। ऐसे ही प्रकारों में से एक है- प्रेमयोग। अध्यात्म क्षेत्र में जब भी प्रेम शब्द आता है। उसका अर्थ ईश्वर के प्रति समर्पण ही होता है। इसमें ईश्वर की कृपा के बरसने की प्रतीक्षा नहीं की जाती। जिस तरह किसी गुम्बद के सामने बोला गया ध्वनि प्रवाह प्रतिध्वनित हो वापिस लौट आता है, उसी तरह प्रेम की प्रतिध्वनि सारे ब्रह्मांड में गुंजाकर अनेक गुनी होकर वापिस लौटती और अन्तरात्मा को भाव-विभोर कर देती है।

प्रेमयोग में समर्पण भाव की प्रधानता है। गीताकार ने इसका महत्व विस्तारपूर्वक बताया है। भगवान अर्जुन से कहते हैं- मुझ में अपना मन रख और मुझ में बुद्धि सौंप दे। तेरा कल्याण इतने मात्र से ही हो जायेगा। प्रेमतत्व का उभार अन्तःकरण से तब तक नहीं हो पाता, जब तक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं को व्यक्ति ईश्वर को नहीं सौंप देते, इसे स्वार्थ का परमार्थ में, संकीर्णता का उदारता में एवं निकृष्टता का उत्कृष्टता में विसर्जन कह सकते हैं। भक्तियोग में इसी समर्पण शरणागति की प्रधानता है। वेदान्त में इसी अद्वैत एकत्व कहते हैं।

संसारी प्रेम में अपने प्रिय का एकाधिकार की चाह होती है। उसके प्रेम क्षेत्र में किसी अन्य का आना डाह का सृजन करता है। जबकि ईश्वर प्रेम में सर्वत्र प्रेम ही प्रेम उद्भासित होता है। तब अखिल विश्व में व्याप्त ब्राह्मी चेतना के तार स्व की चेतना से जुड़ जाते हैं। दूसरों का कष्ट एवं अभाव अपना लगने लगता है। करुणा एवं आत्मीयता का जब अन्तःकरण में प्रादुर्भाव होता है तो वह व्यक्ति को सन्तोष और शान्ति देता है। यही मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग का अवतरण है। इसी के सहारे आत्म-साक्षात्कार से लेकर प्रभु दर्शन तक की आध्यात्मिक उपलब्धियाँ मनुष्य को उपलब्ध होती हैं। ईश्वर प्रेम में स्थायित्व होता है। यहाँ भोगोपभोग का स्वार्थ गल जाना है और एक निष्काम भावना का प्रादुर्भाव होता है। इस भोग में पश्चाताप नहीं, वरन् एक उपलब्धि की अनुभूति है।

जो काम को ही प्रेम समझ लेते हैं, वे प्रेम से वंचित रह जाते हैं। काम प्रेम का आभास और भ्रम है। प्रेम जितना विकसित होता है, काम उतना ही विलीन होता है। प्रेम उस शक्ति का सृजनात्मक ऊर्ध्वीकरण है। प्रेम के ऐसे जीवन का ही नाम ब्रह्मचर्य है। काम से जिसे मुक्त होना है, उसे प्रेम को विकसित करना चाहिए।

प्रेम के अभाव से मनुष्य मात्र ‘अहंता’ तक आबद्ध होकर रह जाता है। वह ‘स्व’ केन्द्रित बनता है और ‘पर’ से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रह जाता। यह क्रमिक मृत्यु है। क्योंकि जीवन तो पारस्परिकता में है। जीवन तो स्नेह सम्बन्धों में है। मृदुल भाव संवेदनाओं सहज सहकारिता में है। जहाँ ‘स्व’ एवं ‘पर’ विलीन हो जाते हैं- वहीं प्रेम जन्म लेता है। वही सत्य है। वही प्रभु है। प्रेम अवर्णणीय है, बेजोड़, अविजित है, महान है। प्रेम शून्य जीवन के विषय में हैकिम्बे कहते हैं- ‘‘प्रेम खत्म हो जाता है तो जिन्दगी घिसटती रहती है।” सृष्टि प्रेम की उपज है, प्रेम ही उसका आधार है। प्रीति एक निर्मल भावना है और प्रतीति प्रगाढ़ विश्वास। विश्वास का यह धरातल भावना की उत्कृष्ट स्थिति है।

ईश प्रेम का कोई निर्धारित स्वरूप नहीं। अपने विश्वास के अनुसार कई पंथ विद्यमान हैं। तीन और पाँच मिलकर भी आठ होते हैं और दो ओर छह मिलकर भी आठ। सभी की दिशायें भिन्न हो सकती हैं- लक्ष्य एक ही है। अन्तर केवल साधन में है- साध्य में नहीं। सगुण भक्ति में ईश्वर अर्पण की तत्परता है तो निर्गुण में संयम की। सगुण प्रेममय एवं भावनामय है जबकि निर्गुण ज्ञानमय। किन्तु निर्गुण के अभाव में सगुण भी सदोष हो जाता है।

ईश-भक्ति की, प्रेम की ज्वाला सामान्यजनों में अनायास ही प्रज्ज्वलित नहीं हो पाती, उस स्थिति में कुछ साधन सुझाए गए हैं। यथा-नाम स्मरण, प्रार्थना, पूजा, विनयभाव, सेवा, स्नेह, प्रदर्शन समर्पण। आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि इन सोपानों से सिद्धि प्राप्त होती है परन्तु प्रेम एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें पूर्ण समर्पण द्वारा उपर्युक्त साधनों के माध्यम से गुजरे बिना ही सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।

भक्ति साधन वस्तुतः साध्य के प्रति साधक के अगाध प्रेम का ही एक उदात्त रूप है। देवर्षि नारद का कथन है- “सा त्वस्मिन परम प्रेमरूपा” रामकृष्ण परमहंस से किसी ने पूछा कि हम अपने भीतर भक्ति का कैसे विकास करें? उनका उत्तर था- “बालक के मन में माँ के लिये जितनी अनन्य निर्भरता होती है, वैसी ही निष्ठा हमारे अन्तराल में ईश्वर के लिये होनी चाहिए।” इसी समर्पण योग के सहारे रामकृष्ण एवं उनकी काली एकाकार हो गये थे। वे कहते थे- ‘‘माँ! तू मुझे अपनी भक्ति में सराबोर बना दे। मुझे ज्ञान और बुद्धि की जरूरत नहीं। मुझे तो केवल तेरी भक्ति की पिपासा है।

निष्काम प्रेम की पूर्णता इसी में है कि वह पाखण्ड न बने। पवित्र प्रेम की उपस्थिति में अभिन्नता, जलन, घृणा और अहंकार का लोप हो जाता है। प्रेम से बड़ा धर्म नहीं। प्रेम ही सत्य है। और सत्य ही ईश्वर है। प्रेम की साधना जिसने कर ली, उसने जीवन में सतत् उत्साह, उमंग, उल्लास, सक्रियता, सेवा और आनंद भर लिया है। पवित्र प्रेम में सराबोर अन्तःकरण ही सच्ची आस्तिकता का परिचायक है।


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