अपनों से अपनी बात- तीर्थ सेवन का अक्षय पुण्य फल

July 1981

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धर्म-कृत्यों में सबसे अधिक प्रख्यात एवं प्रचलित प्रक्रिया है- तीर्थयात्रा। श्रवणकुमार के अन्धे माता-पिता तक तीर्थयात्रा के लिए इतने बेचैन थे कि अभाव-जन्य परिस्थितियों में काँवर में कन्धे पर रखकर उनकी इच्छापूर्ति की व्यवस्था बनाई गई। ऐसी आकांक्षाएं प्रायः धर्मप्रेमियों में पाई जाती हैं। ईसाई, मुसलमान, बौद्ध आदि में भी तीर्थयात्रा की तैयारी उत्साहपूर्वक की जाती है। भारतीय धर्म में तो इसकी एक प्रकार से प्रमुखता है। अन्य समस्त धर्म-कृत्यों में जितना श्रम, समय, धन और भाव लगता है, उससे कहीं अधिक तीर्थ प्रयोजनों में संलग्न रहता है।

कहा जाता है कि ईसाई धर्म वाले संसार भर में अपने मजहब का प्रचार करने के लिए विपुल धनराशि खर्च करते हैं। फलतः उन्होंने संसार की एक तिहाई जनता को अपने धर्म में दीक्षित कर लेने की सफलता विगत हजार वर्षों से ही प्राप्त कर ली है। मध्य पूर्व के तेल देश भी इसी स्तर का खर्च ऐसी ही महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए कर रहे हैं। इन दोनों की सम्मिलित राशि और हिन्दू धर्मानुयायियों द्वारा खर्च की जाने वाले धन एवं समय का लेखा-जोखा लिया जाय तो प्रतीत होगा कि अपने देश में तीर्थ यात्रा पर उनकी व्यवस्था, पूजा पर- जो खर्च होता है वह कहीं अधिक है।

देखना यह है कि यह मात्र प्रचलन भर है या इसके पीछे मनीषियों का निर्धारण प्रतिपादन उत्सोहक भी है। इस संदर्भ में ऋषियों ने अपनी प्रतिभा एवं आकांक्षा का पूरा-पूरा उपयोग किया है कि तीर्थों का महत्व जन-जन को समझाया जाय और उस पर पूरा उत्साह रखने के लिए कुछ कमी न रहने दी जाय। अठारह पुराणों और अठारह उप पुराणों में से प्रत्येक में विभिन्न तीर्थों के माहात्म्य महत्व, इतिहास और संदर्भ असाधारण रूप से बताये गये हैं। स्कंद पुराण को तो एक प्रकार से तीर्थ माहात्म्य वर्णन के लिए ही लिखा जैसा समझा जाता है। अन्य धर्म ग्रंथ भी प्रकारांतर से इस बात का प्रयत्न करते हैं कि धर्म श्रद्धा को तीर्थ यात्रा के साथ कहीं न कहीं- किसी प्रकार जोड़े रखा जाय।

आद्य शंकराचार्य ने देश के चार कोनों पर चार धर्मों की स्थापना कराई। मान्धाता ने अपना समस्त वैभव इसके लिए समर्पित कर दिया। अन्यान्य मत-मतांतरों के लोग भी यह प्रयत्न करते रहे हैं कि उनके स्मरणीय स्थानों का विकास विस्तार तीर्थ के रूप में हो और इसके लिए उन्हें आकर्षण केन्द्र बनाने एवं भव्यता उत्पन्न करने में कुछ उठा न रखा जाय। इस तथ्य के प्रमाण देश के हर क्षेत्र में बिखरे हुए देखे जा सकते हैं। इन निर्माणों की इमारतों में लगी राशि का यदि विवरण तैयार किया जाय तो प्रतीत होगा कि शिक्षा और चिकित्सा जैसी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जितनी इमारतें बनी हैं उसकी तुलना में बड़े तीर्थों और छोटे देवालय तीर्थों की लागत पूँजी कहीं अधिक है। उनके रख-रखाव, पूजा-अर्चा एवं उत्सव समारोहों में लगने वाली सामर्थ्य एवं सम्पदा को भी जोड़ा जा सके तो प्रतीत होगा कि वह राशि शिक्षा और चिकित्सा के चालू खर्च की तुलना में कम नहीं अधिक ही होती है।

यह उत्साह उसी प्रतिपादन एवं प्रोत्साहन का प्रतिफल है जो महा-मनीषियों ने इस संदर्भ में जमाया एवं उभारा है। यह सब किसलिए? यह प्रश्न भले ही उस समय के श्रद्धा प्रबलता ने न पूछा हो या आज का बुद्धिवादी युग तो यह पूछे बिना रह नहीं सकता कि इस खर्चीले निर्धारण के पीछे आखिर क्या उपयोगिता समझी समझाई गई। आज तीर्थों की जो स्थिति है उसे देखते हुए तो यह प्रश्न और भी अधिक प्रचण्ड होकर उभरता है वरन् आकृत आतुरता के साथ अपना समाधान भी माँगता है।

आज की तीर्थयात्रा के पक्ष में औचित्य कम और अनौचित्य अधिक उभर कर आता है। धर्माडम्बर ओढ़े हुए असंख्यों व्यक्ति भिक्षा व्यवसाय वहां इस प्रकार चलाते हैं जिसे नैतिक कहा जा सकता है न सामाजिक न धार्मिक। अपंग भिक्षुओं की संख्या तो वहाँ नगण्य जितनी होती है। दान पुण्य के नाम पर तीर्थ यात्रियों को उतना निचोड़ा जा है जितने में वे ‘चीं’ न बोलने लगें। इसके लिए जो तरीके अपनाये जाते हैं उन्हें देखकर तो उलटी अश्रद्धा उत्पन्न होती है। जिस भावना को लेकर तीर्थयात्री वहाँ पहुँचता है उसे इस पाखण्ड और छीन-झपट के वातावरण में प्रायः गंवा कर ही आता है। प्रत्यक्षतः से भले ही इस बात की चर्चा न करें। जिस धर्म-धारणा की तृप्ति के लिए यात्री पहुंचता है उसका कोई प्रमाण कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता। प्रतिमा दर्शन या नदी सरोवर का स्नान करने से जिनकी तृप्ति हो जाती हो उन परमहंसों की बात दूसरी है। उन्हें शायद उपयोगिता अनुपयोगिता देखने पूछने की आवश्यकता नहीं भी प्रतीत होती हो। किन्तु सर्वसाधारण की मनःस्थिति तो वैसी होती नहीं। विशेषतया इस समय के बढ़ते हुए बुद्धिवाद को तो तर्क न करने, कारण न पूछने के लिए रोका तो नहीं जा सकता।

तीर्थयात्रा के पक्ष में एक समर्थन पर्यटन व्यवसाय को प्रोत्साहित करने की बात को लेकर अर्थ-शास्त्रियों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। वह एक हद तक सही भी है। मनोरंजनों में पर्यटन को सार्थक स्तर का कहा जा सकता है। इससे पैसा एक जेब से दूसरी में पहुँचता है। अनेकों को मजूरी करने तथा लाभ कमाने का अवसर मिलता है। सरकारें किराये भाड़े से लेकर प्रत्यक्ष परोक्ष तरीकों से टैक्स वसूल करती हैं। यह लाभ उनके पक्ष में जाते हैं जो तीर्थ यात्रियों से कमाते हैं। बात उनकी तो शेष ही रह गई जिन्हें पुण्यफल भी हाथ नहीं लगा और पर्यटन के साथ जुड़े हुए मनोरंजन का अवसर भी प्राप्त नहीं हुआ। मात्र धक्का-मुक्की-भगदड़-जेबकटी को ही तो विनोद नहीं कहते। ‘पिकनिक’ इस तरह के नहीं होती, जिस तरह के तीर्थयात्रियों के गले बँधती और पग-पग पर खीज उत्पन्न करती है।

पुण्य और पिकनिक में से एक भी यदि हाथ लग गया होता तो भी सन्तोष होता पर काल्पनिक आत्म-प्रवंचना से भी तो कुछ समाधान नहीं होता। मनुष्य हर छोटे-बड़े काम को करने से पूर्व विचार करता है कि किससे क्या लाभ हानि है? तीर्थयात्रा जैसे श्रमसाध्य कष्टसाध्य और व्यय साध्य कार्य करने वाले को भी कोई न कोई ठोस कारण एवं समाधान ऐसा मिलना चाहिए जिससे प्रयास की सार्थकता पर सन्तोष हो सके।

आज की स्थिति यह है कि यदि किसी को पिकनिक पर्यटन पर निकलना हो तो उसके लिए ऐसे स्थान चुनने चाहिए जहाँ उस स्तर का वातावरण हो। यदि पुण्य संचय की बात मन में हो तो भी ऐसे वातावरण की तलाश करनी चाहिए जहाँ अन्तःकरण में पुण्य प्रेरणाएं उमंगें और सुख-शान्ति भरे भविष्य का निर्माण करने वाला कार्य मिले। दोनों ही दृष्टियों से तीर्थों की वर्तमान स्थिति संतोषजनक नहीं है।इतने पर भी लोक-मान्यता परम्परा एवं उमड़ता प्रचलन ऐसा है। जिसे देखते हुए हर किसी की यह हिम्मत भी नहीं होती कि अन्य साथियों को घर से बाहर निकलने का आनंद लेने के लिए जाते देखकर अपना मन भर सके। घर की घुटन सदा कहीं बाहर जाने- चैन या आनन्द ढूंढ़ने के लिए अवसर तलाशती रहती है। यह सुयोग यदि तीर्थयात्रा के साथ जुड़ जाय तो क्या बुरा है। इसमें तीन सुविधाएं भी हैं। लोगों पर पुण्यात्मा होने की छाप छोड़ना- परिवार वालों का उस खर्च का विरोध करने का साहस न होना- मन को भी कुछ अच्छा करने जैसे ओछा उथला संतोष होना। इन दिनों की तीर्थयात्रा इसी ढर्रे पर लुढ़कती है। घर की घुटन और पैसे की सुविधा के कारण तीर्थ पर्यटन का प्रचलन दिन-दिन बढ़ता ही जा रहा है।

यह वर्तमान स्थिति का विडम्बना भरा एवं निराशाजनक पर्यवेक्षण भर हुआ। इससे उस मूल समस्या पर प्रकाश नहीं पड़ता, जिसके आधार पर महा-मनीषियों के मनों में तीर्थ स्थापना की सूझ उपजी और उसे उपयोगिता की हर कसौटी पर कसने के उपरान्त यह पाया कि इस निर्धारण की मान्यता भर न रहने देकर उसे क्रियान्वित करने के लिए अपनी प्रतिभा को दाँव पर लगा दिया जाय।

भारतीय संस्कृति के धर्म एवं आध्यात्म पक्षों का तात्विक पर्यवेक्षण करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि इन क्षेत्रों के दार्शनिक निर्धारण एवं कृत्य प्रचलन अत्यन्त दूरदर्शी चिन्तन एवं गुणावगुण परक मंथन से निकले हुए नवनीत हैं। उन्हें समुद्र तल में गहरी डुबकी लगाकर न ढूंढ़े गये मणि मुक्तकों के समतुल्य माना जा सकता है। इस स्तर के अनेकानेक निर्धारणों में तीर्थ सेवन की एक ऐसी प्रक्रिया का आविर्भाव किया गया जिसे समस्याओं के समाधान एवं समग्र अभ्युत्थान की दृष्टि से अतीव उपयोगी कहा जा सके।

निर्धारण का मूल स्वरूप है- तीर्थ सेवन। सेवन अर्थात् वहाँ रहकर नये वातावरण में साँस लेना और उपयोगी चेतना में अनुप्राणित होना। चूंकि तीर्थ स्नान घर से दूर ही होते थे और उस दूरी को पार करने के लिए ‘यात्रा’ किये बिना काम नहीं चल सका था। इसलिए उस प्रसंग को तीर्थ सेवन के स्थान पर ‘तीर्थ यात्रा’ अनायास ही कहा जाने लगा। तैयारी की दृष्टि से यात्रा का सरंजाम जुटाना ही प्रधान कार्यक्रम है। इस दृष्टि से यात्रा जन्म परिस्थितियों का सामना करने तथा आवश्यक साधन जुटाने के लिए जो दौड़-धूप करनी पड़ती थी उससे मस्तिष्क पर ‘यात्रा’ प्रकरण ही छाया रहता था, ऐसी दशा में तीर्थसेवन को तीर्थ यात्रा नाम मिल गया तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

शास्त्रों में इस प्रक्रिया का एकमात्र नाम है- तीर्थ सेवन। प्रकारान्तर से इसे ‘निकास’ कहा जा सकता है। इन दिनों जो भी इन प्रयोजन के लिए निकलते थे वे पर्याप्त समय तक अभीष्ट तीर्थ में निवास करते थे और उन लाभों को प्राप्त करते थे जो इस पुण्य प्रक्रिया के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। आज की तरह एक ही सांस में समूची धरती नाप डालने के लिए घुड़दौड़ पर निकल पड़ना सर्वथा उपहासास्पद माना जाता होगा और कदाचित ही कोई ऐसी मूर्खता करता होगा जैसी कि इन दिनों अपनाई जाती है। स्पेशल रेलें, बसें चारों धाम का और बीच-बीच में अन्य छोटे-बड़े सैकड़ों तीर्थों की यात्रा दो ढाई महीने में करा देती हैं। किराया भी एक दो हजार के लगभग ही बैठता है। इतनी जल्दी समस्त तीर्थों के पुण्य की लूट-खसोट करके यात्री इस प्रकार गर्व करते हुए वापिस लौटते हैं मानो देश-देशान्तरों में अश्व-मेध का घोड़ा घुमाकर चक्रवर्ती या दिग्विजयी बनकर वापिस लौटे हों।

देखा यह जाना चाहिए कि इन पुण्य लुटेरों ने किया क्या? जिससे आधार पर उन्हें यह सोचते बन पड़ा कि वे सीधे स्वर्गलोक तक पहुँचने की योजना में कहीं बीच में रुकने वाले नहीं हैं। क्या किया? इसमें तीन प्रसंग सामने आते हैं। एक देवालयों की प्रतिमाओं का दर्शन दूसरा नदी सरोवरों में स्नान जिस-तिस को दान दक्षिणा का उपक्रम। इन तीनों कृत्यों को यात्री पर क्या उच्च स्तरीय प्रतिक्रिया हुई? समाज का क्या हित साधन हुआ? धर्मधारणा के अभ्युत्थान का क्या फल मिला? यह तीन आधार भी ऐसे हैं जिनको देखते हुए स्वर्ग या अन्य प्रकार के सुखद परिणामों की आशा की जा सकती है। बहुत खोजने पर भी ऐसी कड़ी नहीं जुड़ती जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि इस तथाकथित पुण्य प्रयोजन की वैसी परिणति होगी जैसी कि माहात्म्य बताने वालों को समझाई है।

जिनका प्रतिमा दर्शन, स्नान तथा जिस-तिस को बिना उपयोगिता का तारतम्य बिठाने, दान-दक्षिणा देने पर ये लौकिक मनोकामनाओं की पूति और अत्यन्त सस्ती स्वर्ग मुक्ति होने की बाल कल्पना सुखद प्रतीत होते ही, उन मनमोदक खाते रहने वालों से तो कुछ कहना नहीं है। पर जो कार्य कारण की संगति मिलाते हैं और तर्क तथ्यों को मान्यता देते हैं उन्हें तो यह सोचना ही पड़ेगा कि इतने सस्ते मोल इतनी बड़ी वस्तुएं किस प्रकार मिल सकनी सम्भव हैं।

यहाँ यह सब इसलिए कहा जा रहा है कि ऋषियों के तीर्थ निर्धारण का इन दिनों जो उथला अर्थ लगाया एवं मखोटा जैसा स्वरूप बनाया जा रहा है। उसमें ऊपर उठाकर वास्तविकता को समझने- तथ्यों को जानने अपनाने का अवसर मिल सके। वास्तविकता यह है कि तीर्थ सेवन एक मनोवैज्ञानिक भावनात्मक आत्म-परिष्कार एवं उज्ज्वल भविष्य निर्धारण की सुनिश्चित प्रक्रिया है। उसके साथ भूत के अनुभवों के लाभ उठाते हुए- सुखद संभावनाओं से भरा-पूरा लक्ष्य प्राप्त करने के लिए वर्तमान का परिष्कृतीकरण की एक सांगोपांग योजना जुड़ी हुई है। अनुपयुक्तता अपनाने के कारण उत्पन्न हुई विपत्तियों का- निर्वाह क्रम में प्रस्तुत अवरोधों का तथा भविष्य निर्धारण की दूरगामी योजनाओं का समन्वय इस प्रक्रिया में पूरी तरह समाविष्ट है। वर्तमान और भविष्य के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन मनन- उच्चस्तरीय व्यक्तित्वों का परामर्श एवं सहयोग यह सभी पक्ष तीर्थ सेवन से साथ जुड़े रहने के कारण उसे उतनी महता एवं गरिमा प्रदान की गई।

प्राचीन काल में व्यावहारिक जीवन की भौतिक जानकारियों के लिए तो आजकल जैसे अर्थकारी शिक्षा देने वाले स्कूल भी अवश्य रहे होंगे। पर उन दिनों अधिक ध्यान व्यक्तित्वों को महान बनाने- नर में नारायण की कलम लगाने का उत्साह आवेश स्तर का छाया रहता था। उसी की पूर्ति के लिए अध्यात्म एवं धर्म को एक सुनियोजित दर्शन, विधान एवं प्रयोग की तरह प्रयुक्त किया जाता था। अतएव उस प्रशिक्षण एवं अभ्यास के लिए तदनुरूप उत्कृष्टता एवं व्यवस्था से भरे पूरे विद्यालय भी चलते थे। इनकी तीन श्रेणियाँ थीं (1) अविकसित किशोरों के लिए ‘गुरुकुल’ (2) गृहस्थों के लिए स्वल्पकालीन ‘तीर्थ सेवन’ (3) प्रौढ़ों एवं निवृत्तों के लिए ‘आरण्यक’। यह तीनों ही स्तर के विद्यालय मात्र मौखिक या बौद्धिक शिक्षण तक ही सीमित न थे वरन् व्यक्तित्वों को ढालने वाली उन साधनाओं से भी समन्वित रहते थे जो जीवन की दिशाधारा में- अन्तः करण की आस्था, अभिरुचि एवं आदतों में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर सके।

तीर्थों का यही वास्तविक स्वरूप था। इन पुण्य प्रयोजनों की पूर्ति के लिए स्थान ऐसे चुने जाते थे जिनसे प्राकृतिक एवं निर्वाह साधनों की अनुकूलता के साथ-साथ कुछ ऐसा इतिहास भी जुड़ा हो जिसे प्रेरणाप्रद एवं भावनात्मक उत्कृष्टता उभारने वाला कहा जा सके। तीर्थों के स्थान निर्धारण में इन तथ्यों का पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है।

अब बात आती है प्रशिक्षण, परिवर्तन एवं तप साधन की। इसके लिए उपरोक्त तीनों स्तर के आश्रम बने हुए थे। उनमें निवास, भोजन का प्रबन्ध तो रहता ही था। साथ-साथ ऐसा प्रशिक्षण की परिपूर्ण व्यवस्था थी जिसमें आत्म-चिन्तन, स्वाध्याय सत्संग एवं उच्चस्तरीय परामर्श के सहारे वर्तमान को समुन्नत बनाना संभव हो सके।

इन तीर्थों के संचालक ऋषि कल्प महा-मनीषी होते थे। इन महाप्राज्ञों में यह क्षमता होती थी कि विभिन्न स्तर के व्यक्तियों को उनके गले उतारने वाले- एक-एक कदम आगे बढ़ाने वाले परामर्श दे सके। तोता रटंत वाले प्रवचनकर्ता तो सभी भेड़ों को एक लाठी से हांकते हैं। रिकार्ड बजाने जैसे प्रवचन एक प्रकार का कला-कौशल है। मुनि मनीषी व्यक्ति का स्तर परखते एवं तदनुरूप परामर्श एवं आशीर्वाद परक अनुदान सहयोग प्रदान करते हैं। तीर्थों में यह सारी व्यवस्था थी। वहाँ ऋषि मुनि रहते थे। आश्रम अर्थात् प्रशिक्षण एवं साधना के समन्वित केन्द्र चलाते थे। किशोर, गृहस्थ एवं अधेड़ व्यक्ति अपने-अपने परिस्थितियों का नये सिरे से पर्यवेक्षण करने तथा प्रगति के लिए सार्थक समाधान ढूंढ़ने के लिए पहुँचते थे। इन पहुँचने वालों को तीर्थयात्री कहा तो जाता था पर वस्तुतः वे पहुँचते तीर्थ सेवन के लिए थे। यह ‘सेवन’ -कायाकल्प जैसी रसायन का सेवन करने से भी अधिक फलप्रद सिद्ध होता था। यही है वह प्रक्रिया जिससे जन-जन को लाभ पहुँचाने के लिए महा मनीषियों ने ‘तीर्थ’ निर्धारण में अपनी तत्वदर्शिता का प्रयोग किया था।


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