अदृश्य जगत की संपर्क साधना

December 1981

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जिस प्रकार मनुष्य चेतना और पदार्थ सम्पदा का समन्वित पिण्ड है। ठीक उसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड भी विराट् पुरुष का सुविस्तृत शरीर है। उसमें भी स्तर के अनुरूप असीम पदार्थ और अनन्त चेतन भरा पड़ा है। दोनों की मिली भगत से यह सृष्टि व्यवस्था चल रही है। उत्पादन, परिपोषण और परिवर्तन की त्रिविधि कार्य पद्धति अपनाये हुए सृष्टा का यह स्थूल शरीर पदार्थ समुच्चय अपने हिस्से का काम पूरा करने में निरत है। सृष्टा का सूक्ष्म शरीर वह है जिसमें स्थूल जगत की प्रत्यक्ष घटनाओं के लिए उत्तरदायी अदृश्य क्रिया प्रक्रिया बनती बिगड़ती रहती है। उसे परोक्ष वातावरण भी कह सकते हैं। इसी के अनुरूप संसार की अनेकानेक परिस्थितियाँ बनती और घटनाएँ घटित होती रहती हैं। सूक्ष्म जगत में भूत और भविष्य के सभी प्रवाह विद्यमान हैं जिन्हें समझ सकने पर इस अविज्ञात की जानकारी मिल सकती है कि भूतकाल में क्या घटित हुआ था और भविष्य में क्या होने जा रहा है?

वर्षा, आँधी, तूफान, हिमपात, मौसम आदि की पूर्व जानकारी लक्षणों को देखते हुए अनुमान की पकड़ में आ जाती है। इसी प्रकार अदृश्य जगत में चल रही सचेतन हलचलों को देखते हुए भविष्य की सम्भावनाओं का, भूतकाल की घटनाओं का और वर्तमान की परिस्थितियों का पूर्वाभास प्राप्त किया जा सकता है। सामान्यतः मनुष्य की समझ अपने क्रिया-कलाप का निर्धारण करने में ही काम आती है। उसे परिस्थितियों की पृष्ठभूमि तथा सम्भावना के सम्बन्ध में कोई बात अलग से जानकारी नहीं होती। सूक्ष्म जगत से संपर्क साध सकना यदि सम्भव हो सके तो अन्धेरी गलियों में भटकते रहने की अपेक्षा सुनिश्चित प्रकाश का अवलम्बन मिल सकता है। यह स्थिति जिन्हें भी प्राप्त होगी वे सम्भावनाओं को समझते हुए स्वयं उपयुक्त कदम उठावेंगे और दूसरों को अवसर के अनुरूप सतर्क रहने का मार्ग दर्शन करेंगे।

अदृश्य जगत अपने आपका एक परिपूर्ण संस्कार है। मनुष्यों की अपनी दुनिया, समाज व्यवस्था, रीति-नीति एवं जीवनचर्या है। इसी प्रकार जलचरों की, कृमि कीटकों की, वन्य पशुओं की, पक्षियों की, धूलि में पाये जाने वाले जीवाणुओं की, वायरस बैक्टीरियाओं की अपनी-अपनी दुनिया है। उनकी समस्याएँ, सुविधाएं, आवश्यकताएँ, कठिनाइयाँ, इच्छाएँ, मनुष्यों की दुनिया में सर्वथा भिन्न ही समझी जा सकती है। पड़ौस में रहते हुए भी यह अनोखे संसार एक दूसरे की परिस्थितियों से प्रायः अपरिचित ही रहते हैं। पालतू पशुओं, पक्षियों और मनुष्यों के बीच उदर पोषण जितना ही सम्बन्ध रहता है शेष का तो किसी से किसी प्रकार का आदान-प्रदान भी नहीं चलता और न कोई एक दूसरे के लिए विशेष सहयोगी ही सिद्ध होता है।

ठीक इसी प्रकार अदृश्य लोक में सूक्ष्म जीवधारियों की एक अनोखी दुनिया है। शरीर छोड़ने के उपरान्त नया जन्म मिलने की स्थिति आने तक मनुष्यों को इसी क्षेत्र में रहना पड़ता है। भूत प्रेतों की, देवी देवताओं की-लोक-लोकांतरों की-स्वर्ग नरक की चर्चा प्रायः होती ही रहती है। ऐसे प्रमाण उदाहरण आये दिन मिलते रहते हैं जिनसे दिवंगत आत्माओं से सूक्ष्म शरीर धारण किये हुए दिन गुजारने और यदा-कदा मनुष्यों के साथ सहयोग या विग्रह करने की जानकारियां मिलती हैं। मनुष्यों की तरह ही उनकी भी एक दुनिया है। चूँकि वे सभी मनुष्य शरीर को छोड़कर ही उस क्षेत्र में पहुँचे हैं इसलिए स्वभावतः इस संसार के साथ संपर्क साधने की इच्छा होती होगी। कठिनाई एक ही है कि जीवित या दिवंगत आत्माओं में से किसी को भी यह अनुभव नहीं है कि पारस्परिक संपर्क साधना और आदान-प्रदान का सिलसिला चलाना किस प्रकार सम्भव हो सकता है। प्रयत्न में सफलता न मिलने पर कई प्रेतात्माएँ अनगढ़ उपाय करती हैं मूलतः मनुष्य इस अनुभूति से भयभीत एवं आतंकित होते हैं। जब कि उनमें से कितने ही प्रियजनों के साथ स्नेह, सौजन्य एवं सहयोग का सिलसिला चल सकता है। एक देश दूसरे देश की- एक समाज दूसरे समाज की- एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के स्नेह सहयोग में बँध जाने पर उपयोगी परिणाम उपलब्ध करते हैं फिर कोई कारण नहीं कि कुछ समय पूर्व के अपने ही जैसे मनुष्यों की इसलिए उपेक्षा करे कि शरीर खो बैठे और सूक्ष्म शरीर में- अन्तरिक्ष में निवास कर रहे हैं। आत्मिकी में वह सामर्थ्य है कि वह इन दोनों लोगों के बीच भावनात्मक एवं क्रियात्मक सहयोग का द्वार खोल सके।

क्रुद्ध, विक्षुब्ध, रुग्ण, व्यथित पीड़ितों को सहकार देने वाली उदार मानवी करुणा विपन्न स्थिति में पड़े हुए प्रेतात्माओं की- विशेषतया सहायता की आशा अपेक्षा करने वाले दिवंगत सम्बन्धियों की सहायता करना तो सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है। दूसरों को हानि पहुँचाने में निरत क्रुद्ध आत्माओं को सांत्वना देकर उनके आक्रोश प्रतिरोध से कष्ट उठाने वालों को राहत दिलाई जा सकती है। प्रेत क्रुद्ध असंतुष्ट दुर्गतिग्रस्त आत्माओं को कहते हैं और पितर वे हैं जो श्रेष्ठ समुन्नत जीवन जीते रहे हैं। वे जीवन काल की तरह मरणोत्तर स्थिति में पहुंचने की तरह किसी के आने- किसी को सहायता पहुँचाने और परिस्थितियाँ अच्छी बनाने में योगदान करना चाहते हैं। ऐसी आत्माओं की सहायता से कितनों ने ही कितने ही प्रकार के महत्वपूर्ण अनुदान प्राप्त किये हैं। यह प्रकरण ऐसा है जिसे आत्मिकी के आधार पर अधिक अच्छी तरह- अधिक व्यापक एवं योजनाबद्ध प्रयोजनों के लिए खोला जा सकता है। निश्चय ही इस प्रक्रिया में दोनों ही पक्षों को लाभ मिलेगा और सन्तोष होगा।

अदृश्य जगत के सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं के साथ सम्बन्ध साधने- आदान-प्रदान का द्वार खोलने से मनुष्य का अपना दायरा और कार्यक्षेत्र बढ़ेगा। आधार रहित संपर्क ही डरावने परिणाम प्रस्तुत करते हैं- अन्यथा साँप, शेर, रीछ, बन्दर तक पालतू बनने पर दोनों पक्षों के लिए ही उसका सत्परिणाम मिलता है। अदृश्य आत्माएँ किसी आचार संहिता के आधार पर मनुष्य जगत के साथ संपर्क सधे तो दो लोकों के बीच महत्वपूर्ण प्रत्यावर्तन चल पड़ेगा और मृतकों एवं जागृतों के बीच नाम मात्र का अन्तर रह जायेगा। विगत के अनुभवों का लाभ उठाने से मनुष्य और पुराने स्नेह संपर्क के जीवित रहने पर दिवंगत आत्माएँ अपने-अपने लिए एक उत्साहवर्धक आधार बनने की प्रसन्नता अनुभव करेंगे। प्राचीन काल में मृतकों और जीवितों के बीच ऐसा ही उपयोगी प्रत्यावर्तन चलता था। श्राद्ध परम्परा में इस प्रक्रिया के बीजांकुर मौजूद हैं।

ब्रह्माण्डीय चेतना- समष्टि प्राण-परब्रह्म का विशाल भण्डार इस निखिल विस्तार के कण-कण में संव्याप्त है। उसमें से हर मनुष्य इतना ही अंश प्राप्त कर सकता है जितनी कि उसकी अवधारण क्षमता है। समझा जा सकता है कि हर मनुष्य में पन्द्रह वाट का बल्ब लगा है यदि उसे हटाकर सौ वाट का लगा दिया जाय तो उसी अनुपात में उसे करेंट मिलने लगेगा। प्लग के माध्यम से जिस भी यन्त्र को भेजा जाता है वह चल पड़ता है। करेंट बनाने वाले तार और उपकरण का सिलसिला टूट जाने पर गतिशीलता एवं उपयोगिता समाप्त हो जाती है। ठीक इसी प्रकार विश्व चेतना- विराट् ब्रह्म के साथ संपर्क जुड़ने पर सामान्य स्तर के मनुष्य भी असामान्य बनते देखे गये हैं। महापुरुष तो व्यवहार जीवन में परब्रह्म की पवित्रता, प्रखरता, उदारता, के माध्यम से अपने जीन क्रम में प्रतिष्ठित करते और अपनी क्षमता असाधारण रूप से बढ़ा लेते हैं। यह चेतन अचेतन का पक्ष हुआ। इसमें ऊँची भूमिका ऋषि कल्प योगी तपस्वियों के हैं। वे अपना उच्च चेतन अन्तःकरण परिष्कृत करते-करते इस स्तर तक पहुँचा देते हैं जिसमें परब्रह्म का तेजस् अधिक मात्रा में अवतरित हो सके। इस मार्ग पर चलते हुए मनुष्य में देवत्व का उदय सम्भव हो जाता है। तपस्वी ऋषि और मनस्वी मुनि मनुष्य शरीर में रहते हुए भी अपनी विशिष्टता इतनी बढ़ा लेते हैं कि उन्हें धरती के देवता-भूसुर-कहने में कोई अत्युक्ति न रहे।

वर्षा सर्वत्र एक जैसी होने पर भी छोटे गड्ढे में थोड़ा और बड़े तालाब सरोवर में उनकी गहराई चौड़ाई के अनुरूप अधिक पानी जमा होता है। इसमें वर्षा का अनुग्रह नहीं गड्ढे की पात्रता का चमत्कार है। परब्रह्म का अनुग्रह हर किसी को समान रूप से उपलब्ध है। न उसका किसी से राग है न द्वेष। न उस पर प्रशंसा का प्रभाव पड़ता है न निंदा का। निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह उसकी व्यवस्था चलती है। अनुशासन का पालन करने ओर उच्छृंखलता बरतने वाले उसी तरह दण्ड पुरस्कार पाते रहते हैं जिस प्रकार आग या बिजली का सदुपयोग, दुरुपयोग करने वालों के समाने आता रहता है। अन्तःकरण को परिष्कृत करके परब्रह्म का अधिक अनुपात अपने में धारण करना और उसके बल पर अपनी विशिष्टता विकसित कर सकना किस प्रकार शक्य हो सकता है, यह आत्मिकी का विषय है। जो उसे जानते अपनाते हैं वे उसका सत्परिणाम भी हाथों हाथ उपलब्ध करते हैं।

पेड़ों की आकर्षण शक्ति बादलों को बरसने के लिए विवश करती है। आँख की पुतली सही होने पर प्रकाश का और कान की झिल्ली ठीक रहने पर ध्वनि का लाभ मिलता है। सदाशयता को उलटकर सद्भावना, सहायता और प्रशंसा मिलती है। ठीक इसी प्रकार व्यक्ति द्वारा अन्तःक्षेत्र की पवित्रता प्रखरता बढ़ाने के प्रयत्न उसे एक ऐसा चुम्बकीय पिण्ड बना देते हैं जिससे वह दृश्य जगत में सद्भावना तथा अदृश्य जगत में दिव्य अनुकम्पा अभीष्ट परिणाम में उपलब्ध करता रहे। आत्मोत्कर्ष ही साधना का एकमात्र प्रयोजन है।

प्रकृति को खोजने के लिए जिस स्तर के पुरुषार्थ हुए हैं उसी निष्ठा और तत्परता के साथ अब मानवी सत्ता के अन्तराल में सन्निहित विशिष्टताओं को खोजने, उगाने और कुशलतापूर्वक प्रयत्न करने का मार्ग प्राप्त किया जाना चाहिए। ब्रह्माण्डव्यापी पदार्थ सत्ता का वैभव आश्चर्यजनक है। उसी में से पृथ्वी अपने काम का मसाला उत्तरी ध्रुव के मुख माध्यम से खींचती और चूसने के बाद जो ठूँठ बचती है उस कूड़े-करकट को दक्षिणी ध्रुव के छिद्र से अन्तरिक्ष में धकेलती रहती है। इसी रीति नीति के सहारे पृथ्वी अपनी दरिद्रता को घटाती और सम्पन्नता को बढ़ाती रहती है। अब इसी स्तर के एक चिर पुरातन चिर नवीन क्षेत्र में प्रवेश करने की आवश्यकता है। समष्टि मानव का चेतनात्मक समुच्चय अपने ढंग का एक भूलोक है। उसकी दरिद्रता मिटाने के लिए विराट् ब्रह्म का द्वार खटखटाया जा सकता है और समष्टिगत उच्च चेतन को विकसित कर उसे उतना ही क्षमता सम्पन्न बनाया जा सकता है जितना कि धरती का उत्तरी ध्रुव। पृथ्वी अंतर्ग्रही क्षमताओं को खींचने और सोखने के कारण ही इतनी समृद्ध बनी है। यही विशेषता समष्टि मन को अध्यात्म परायण बनाकर चेतना जगत के लिए भी उपलब्ध हो सकती है। अभावों की पूर्ति मानवी प्रयत्नों से न हो सके, उतना उच्चस्तरीय उपार्जन बन पड़े तो विराट् चेतन से वैसा सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है।

दृश्य लोक कितना ही महत्वपूर्ण क्यों न हो- अदृश्य लोक की विशिष्टता के साथ उसकी तुलना नहीं हो सकती। सम्पदा की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता किन्तु उत्कृष्टता का भी तो कोई मूल्य है। दृश्य जगत का पुरुषार्थ आवश्यक होते हुए भी पर्याप्त नहीं है। एकाकी पूर्णता तभी पूरी हो सकेगी जब चेतनात्मक विभूतियों का उपार्जन, संचय एव अभिवर्धन बन पड़े।

यह समूचा क्षेत्र आत्मिकी का है। उसे उपेक्षित नहीं किया जाना चाहिए और न ऐसी अस्त-व्यस्त स्थिति में रहते दिया जाना चाहिए जिसमें कि वह इन दिनों पड़ी हुई है।


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