आत्म-सत्ता में ईश्वर का अवतरण

December 1981

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तिलस्मों से भरी मानवी काया जिन रहस्यमयी विलक्षणताओं, सहकार व्यवस्थाओं से युक्त है, उसे देखकर सृष्टा की कलाकारिता के प्रति सहज ही नतमस्तक हो जाना पड़ता है। इतना असाधारण शरीर पाकर भी यदि मनुष्य उसे साँसारिक खिलवाड़ में नष्ट कर दे तो उसे चन्दन का वन सूखी लकड़ियों के भाव बचे देने वाले मूर्ख लकड़हारे की तरह की समझा जायेगा। बुद्धिमत्ता इसी में है कि इस महान उपहार के पीछे अभिव्यक्त विधाता की आकाँक्षा को पहचान कर उसको पूरा किया जाय। जिस किसी ने थोड़ा भी उस पर चिन्तन मनन किया है, अपने अन्दर विपुल रत्न राशि का भण्डार पाया है, जिसे प्रयुक्त कर वे स्वयं धन्य बने और सहस्रों को कृतार्थ कर गये।

इसी प्रकार जिज्ञासा के रूप में परमात्मा का एक और दिव्य अनुदान प्रत्येक मनुष्य को मिला हुआ है। यही प्रवृत्ति भावी विकास का आधार बनती है। जिन्होंने भी शाश्वत सत्य की खोज में अंतःजिज्ञासा को- आत्मगरिमा के बोध की ओर मोड़ा, अपने जीवन को सार्थक बना लिया। सृष्टि के रहस्यों की खोज जिस प्रकार मानवी जिज्ञासा की ही परिणति है, सभी आविष्कारों का मूल उद्गम केन्द्र वही है, उसी प्रकार अंतर्जगत के लीला रहस्यों -अपरिमित सामर्थ्यों की कुँजी भी यही है। बुद्ध, ईसा, विवेकानंद, दयानन्द, गाँधी, सुकरात सभी ने शाश्वत सत्य के दर्शन को स्व परायण होकर लक्ष्य बनाया, फलस्वरूप वे लक्ष्य प्राप्ति में सफल भी रहे।

बहिरंग जगत पर जब एक दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि अधिकाँश व्यक्ति ऐसे हैं जो अभावग्रस्त, पिछड़ी स्थिति में जी रहे हैं, कुछ ऐसे हैं जो न दुःखी हैं न सुखी। किसी प्रकार यन्त्रवत् जी रहे हैं। कुछ ऐसे हैं जिनकी प्रतिभा चमकती है। वे ऊँचा सोचते हैं और ऊँचा करते हैं। अपनी साहसिकता के बल पर वे जहाँ भी चलते हैं, सफलताएँ उनके पीछे-पीछे चलती हैं। शरीर की दृष्टि से भिन्नता न होने पर भी देखे जाने वाले इस अन्तर का एक मात्र कारण चेतना की स्थिति में भिन्नता का होना है। यदि पतित व यान्त्रिक स्थिति वाले व्यक्तियों ने भी समुन्नतों की तरह चेतना को सुसंस्कृत बनाने के प्रयास किये होते तो निश्चय ही वहाँ भी प्रगतिशीलता दृष्टिगोचर होती। इस तमिस्रा को निरस्त कर आत्म-जागरण का प्रयास किया गया होता तो स्थिति कुछ और ही होती।

परन्तु यहाँ एक बात और ध्यान देने योग्य है। केवल आत्म-जागृति ही पर्याप्त नहीं है, उसे सही मोड़ दिया जाना भी अत्यावश्यक है। दुस्साहस तो डाकुओं में भी होता है और असम्भव को सम्भव कर दिखाने वाले पुरुषार्थियों में भी। यदि साहस को सही दिशा मिल जाये-आत्म चेतना ऊर्ध्वमुखी हो जाये, यह चेतना सत्साहस में बदल जाये, तो उसकी परिणति विधेयात्मक हो सकती है। इसी कारण मात्र शरीर की बलिष्ठता व पराक्रम का होना ही यथेष्ट नहीं है- लक्ष्य विशेष का उससे जुड़ा होना भी उतना ही जरूरी है। एक लक्ष्य के निर्धारित होने पर तथा चेतना के परिष्कृत होने पर मानव को वह पात्रता मिल जाती है कि वह व्यष्टि चेतना को समष्टि चेतना से जोड़कर अजस्र अनुदान पा सके। भौतिक योग्यता बढ़ने पर पारिश्रमिक और पद की वृद्धि होती है। आत्मिक क्षमता बढ़ने पर ब्रह्माण्डीय चेतना के समुद्र से व्यक्ति चेतना को बहुमूल्य उपहार मिलने का क्रम चल पड़ता है। छोटे बैंक यदि रिजर्व बैंक से जुड़े हैं तो आवश्यकतानुसार अपनी क्षमता- जमा पूँजी के आधार पर भारी आदान-प्रदान का लाभ उठा सकते हैं। इसी प्रकार यदि व्यक्ति की आँतरिक सामर्थ्य जाग सके तो उसे संव्याप्त ब्रह्मतत्त्व से ऐसे अनुदान मिल सकते हैं जो उसके स्तर को असंख्य गुना सुसम्पन्न बना सकें।

आत्म साधना का अर्थ है- व्यक्ति चेतना के स्तर को इतना परिष्कृत करना कि उस पर ब्रह्म चेतना के अनुग्रह का अवतरण सहज सम्भव हो सके। आत्म-सत्ता का चुम्बकत्व इस अनुदान को सहज आकर्षित कर सकता है, पहले इसकी महत्ता को जानें तो सही। सूक्ष्म जगत की विभूतियों को पकड़ने हेतु जिस सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, वह अपने आपको जाने बिना सम्भव नहीं। बिजली घर की बिजली, हमारे घर के बल्बों में उछल कर नहीं चली आती। इसके लिए सम्बन्ध जोड़ने वाले मध्यवर्ती तार बिछाने पड़ते हैं। ब्रह्माण्डीय चेतना से सम्बन्ध जोड़ने के लिये आदान-प्रदान के जो सूत्र जोड़े जाते हैं उसके लिये ‘आत्मा’ रूपी ‘सबस्टेशन’ को बड़े ‘पावर हाउस’ से जुड़ सकने योग्य भी बनाया जाता है। इससे कम में आत्मिक उपलब्धियों की सिद्धि सम्भव नहीं।

इस मार्ग पर बढ़ने के लिये साँसारिक उत्तरदायित्व के निर्वाह की उपेक्षा नहीं करनी पड़ती। उसे करते हुये भी आत्मिक प्रगति की जा सकती है। कठिनाई एक ही है कि अपनी दृष्टि में हम मात्र शरीर हैं। इसी कारण अपनी इच्छा, क्रिया, विचारणा भी उस तक ही सीमित रखते हैं। जबकि सोचा यह जाना चाहिये कि शारी में आत्मा का भी अस्तित्व है। प्रगति का अवसर आत्मा को भी मिलना चाहिये। बाह्य सुविधाओं की तरह यदि आन्तरिक गरिमा का महत्व समझा जा सके तो निश्चित रूप से मनुष्य को आत्मिक प्रगति की उपयोगिता समझ में आयेगी।

आज मानकर यह चला जा रहा है कि शरीर एवं मन तक ही हमारी सत्ता सीमित है। हमें इन्हीं के लिये सुख साधनों को जुटाने में निरत रहना है। इसी उपहासास्पद अज्ञान का नाम ‘माया’ है। वस्तुतः जड़ पंच तत्वों से बने इस कलेवर का मूल्य नगण्य है। बुढ़ापा, बीमारी और मौत उसे पानी के बुलबुले की तरह गला देती है। वस्त्रों की तरह वह जल्दी-जल्दी फटता और जीर्ण होता रहता है। ऐसे कलेवर की सुसज्जा ही लक्ष्य बन जाय एवं आत्मोत्कर्ष के उद्देश्य को विस्मृत कर दिया जाय तो यह बुद्धिमान कहे जाने वाले मनुष्य की सबसे बड़ी अबुद्धिमत्ता ही होगी। लगभग समस्त मानव समाज आज इसी आत्म प्रवंचना में मूर्छित पड़ा है।

‘साधना से सिद्धि’ के सिद्धान्त को हृदयंगम करने के पूर्व यह यह समझना होगा कि आत्म-सत्ता का जीवन का, प्रयोजन क्या है। दूरदर्शिता का तकाजा है कि हम शरीर और मन रूपी उपकरणों का प्रयोग जानें और उन्हीं प्रयोजनों में तत्पर रहें, जिनके लिये प्राणिजगत का यह सर्वश्रेष्ठ शरीर- सुरदुर्लभ मानव जीवन उपलब्ध हुआ है। आत्मा वस्तुतः परमात्मा का पवित्र अंश है। वह श्रेष्ठतम उत्कृष्टताओं से परिपूर्ण है। आत्मा को उसी स्तर का होना चाहिये, जिसका कि परमात्मा है। परमेश्वर ने मनुष्य को अपना युवराज चुना ही इसीलिये है कि वह सृष्टि को और सुन्दर, सुसज्जित बना सकें। उसका चिन्तन और कर्त्तृत्व इसी दिशा में नियोजित रहना चाहिये। यही है आत्मबोध, यही है आत्मिक जीवनक्रम। इसी को अपनाकर- जीवन में उतारकर हम अपने अवतरण की सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं।

वस्तुतः आत्मावलम्बी व्यक्ति विवेकयुक्त दूरदर्शिता को ही अपना सम्बल बनाते हैं। उनका मार्गदर्शक उनका अपना अन्तःकरण होता है। ओछे लोग जिसे लाभ समझते हैं, वह यदि विवेक की कसौटी पर हानि सिद्ध होता है तो भी एकाकी निर्णय ले ‘स्व परायण व्यक्ति’ सत्पथ पर अकेले ही चल पड़ते हैं। भले ही उन्मादियों की भीड़ उनका उपहास, असहयोग या विरोध करती रहे वह अपना भाग्य स्वयं निर्मित कर वहाँ जा पहुँचते हैं जहाँ के लिये उनकी आत्मा का अवतरण इस धरती पर हुआ है।

आत्मबल का अर्थ है ईश्वरीय बल। इसका अर्थ हुआ परमेश्वर की परिधि में आने वाली समस्त शक्तियों और वस्तुओं पर आधिपत्य। आत्मबल उपार्जित व्यक्ति ही शक्ति का अवतार कहा जाता है। मनोगत दुर्भावनाएँ और शरीरगत दृष्प्रवृत्तियों का जो जितना परिशोधन करता चला जाता है, उसी अनुपात से उसका आत्म तेज निखरता चला जाता है। इससे उस तेजस्वी आत्मा का ही नहीं- समस्त संसार का भी कल्याण होता है।

आत्मबल अभिवृद्धि का दूसरा चिन्ह वहाँ देखा जाता है जहाँ व्यक्ति मोहान्ध जन समूह के परामर्शों को उपेक्षा के गर्त में पटकता हुआ आदर्शवादी रीति-नीति अपनाने एकाकी चल पड़ता है। उत्कृष्टता का वरण करने के लिये ललचाते भर रहने वालों में सम्मिलित न होकर वह स्वयं को ऊँचा उठाया है। वह कर गुजरता है, जिसे करने के लिये उसका अंतरात्मा उसे सतत कहता-पुकारता रहता है व जिन कृत्यों के कारण उसे इतिहास में सदैव याद रखा जाता है।

मनुष्य राजकुमार है और ईश्वर उसका परम पिता। इन दोनों के बीच जो दूरी बनी है वह अज्ञानान्धकार के कायिक कलेवर के कारण है। इस सम्बन्ध विच्छेद को मिटाकर दोनों का मिलन करा देना ही ‘साधना’ है। साधना का प्रयोजन है मनुष्य को उसकी गरिमा का बोध कराना एवं कुत्साओं और कुण्ठाओं की उन जंजीरों को काट डालना जो जीव और ईश्वर के मिलन में बाधा बनकर खड़ी हैं। तपश्चर्याएँ, तितिक्षाएँ, योग-साधनाएँ, प्रायश्चित्त, उपासना इसी उद्देश्य को पूरा करती हैं, जिसमें जन्म-जन्मान्तरों से संचित कुसंस्कारों का निराकरण किया जाता है एवं देव शक्तियों के अभिवर्धन का पथ-प्रशस्त होता है। इस सब दिव्य सामर्थ्यों से युक्त परमसत्ता बीज रूप में मनुष्य में विद्यमान है। दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति रूपी व्यामोह ही उन्हें मूर्छित बनाये हुये हैं। वे हट जायें तो मनुष्य में अनायास ही ईश्वर की झाँकी हो सकती है। वह अपने आपको लघु से महान, आत्मा से परमात्मा, नर से नारायण के रूप में विकसित हुआ प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है। ऋषि-सिद्धियों की बात तो गौण है। जो उस सत्ता के साथ अपना सम्बन्ध बना सका, उसे न अपने लिये कुछ अभाव असन्तोष रहता है, न वह दूसरों को मुक्त हस्त से लुटाने में असमर्थ ही रहता है।

अन्तरात्मा की विशेषता यही देव तत्व है। यह जिसका जग जाता है- वह दैत्य पक्ष के तर्कों को निरस्त कर देवत्व की ओर बढ़ता चला जाता है। ऐसा व्यक्ति कभी सो नहीं सकता। उसकी माँग, पुकार बढ़ती चली जायेगी। अन्तः में घुसे दानव के साथ उसका मल्लयुद्ध तीव्र ही होता चला जायेगा।

मनुष्य के लिये यही श्रेष्ठ है कि वह अपनी विस्मृत गरिमा को जाने, ईश्वर को अपने अन्तःकरण के आँगन में क्रीड़ा कल्लोल करने का अवसर दे। सूर्य प्रकाश लिये हमारे द्वार पर खड़ा है- हम अपने दरवाजे व खिड़कियाँ भर खोल दें। ईश्वर से जुड़ने की- देवत्व अभिवर्धन की-यही पहली अनिवार्य शर्त है। देवमानव जैसी जीवन-नीति के निर्धारण एवं कार्यान्वयन हेतु सत्साहस एवं उत्साह जब उभरने लगे तो इस उमंग भरे उभार को ही व्यक्तिगत जीवन में ईश्वर का अवतरण कहा जाता है।

इसी तथ्य को गीताकार ने स्पष्ट करते हुए कहा है- ‘‘उद्धरेदात्मनात्मानं” अपना उद्धार आप करो। अपनी प्रगति का पथ स्वयं प्रशस्त करो। जो माँगना है अपने जीवन देवता से माँगो। बाहर दीखने वाली हर वस्तु का उद्गम केन्द्र अपना ही अंतरंग है। आत्मदेव की साधना ही जीवन देवता की उपासना है।


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