साधना में सफलता के लिए दो अनिवार्य अवलम्बन

December 1981

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साधना से सिद्धि का सिद्धान्त अध्यात्म क्षेत्र में सर्वमान्य है। शास्त्रकारों, आप्त पुरुषों, महा-मनीषियों, तपस्वी, साधकों ने एक स्वर से इस तथ्य को मान्यता दी है कि मानवी सत्ता में दैवी विभूतियों का अजस्र भाण्डागार भरा पड़ा है। उसे जगाने के लिए साधना परक पुरुषार्थ किया जा सके तो अविज्ञात, प्रसुप्त को प्रत्यक्ष होने का अवसर मिल सकता है।

अप्रत्यक्ष के प्रकटीकरण को लक्ष्य रखकर किये गये प्रयासों को साधना कहते हैं। उसके दो प्रयोजन हैं एक अन्तराल की प्रसुप्त विभूतियों का जागरण दूसरी अनन्त ब्रह्माण्ड में संव्याप्त ब्राह्मी चेतना का अनुग्रह-अवतरण। यह दोनों प्रयोजन देखने में भिन्न प्रतीत होते हैं किन्तु वस्तुतः हैं अविच्छिन्न एक दूसरे के पूरक।

बीज में वृक्ष बनने की समर्थता सन्निहित है, पर वह अनायास ही प्रकट नहीं होती उसके लिए उपर्युक्त भूमि में बोने खाद पानी का प्रबन्ध करना पड़ता है। इतना बन पड़ने पर अंकुर उत्पन्न होता है। यह आत्म-जागरण का प्रयास हुआ। बीज जमीन से खुराक खींचने लगता है, यह उसका अपना पुरुषार्थ है। आत्म साधना इसी को कहते हैं कि बीज अंकुरित हो, जड़ पकड़े जमीन से खुराक खाने और पत्तों के द्वारा हवा में साँस खींचने लगे।

ब्राह्मी चेतना का अनुग्रह है बाहरी सहायता उपलब्ध करना। पौधा हवा से साँस खींचता है। यह हवा उसकी अपनी कमाई नहीं है। वह तो पहले से ही मौजूद है। पत्तों के साँस लेने में सक्षम होते ही वह अभिष्ट मात्रा में मिलने लगती है। सभी जानते हैं कि पेड़ों की चुम्बकीय शक्ति बादलों को बरसने के लिए बाध्य करती है। सभी जानते हैं कि हरे-भरे फूले-फले वृक्ष को देखकर उसे जी भरकर निहारने, छाया, सुगन्ध, शोभा का- फल-फूलों का लाभ लेने के लिए कीट-पतंग, पशु-पक्षी, मनुष्य सभी उनके समीप दौड़ते हैं। वह बाहरी अनुग्रह हुआ। पौधे की तरह जब आत्म-सत्ता अन्तःसाधना से अपनी प्रसुप्त गरिमा को प्रकट करते हैं तो लोक-लोकान्तरों से दिव्य वरदान भी बादलों की तरह बरसने लगते हैं। सत्प्रवृत्तियों से प्रसन्न होकर देवता आकाश से फूल बरसाते हैं। इस मान्यता में इसी रहस्य का उद्घाटन है कि साधना के फलस्वरूप भीतर के उभार और ऊपर के अनुग्रह का दुहरा लाभ मिलता है।

देवता पूजा से प्रसन्न होकर मनोकामनाएं पूर्व करने और वैभव बरसाने लगते हैं इस भ्रम जंजाल से प्रत्येक यथार्थ प्रेमी को अपना पीछा छुड़ा लेना चाहिए। दैवी शक्तियाँ इतनी ओछी नहीं हैं कि मनुष्य उन्हें बाग् जाल में फंसा सके और छुटपुट पूजा उपचारों से अपने भक्त होने का विश्वास दिला सके। जादू की छड़ी घुमाने से उत्पन्न होने वाले चमत्कारों की तरह जो तरह-तरह के जाल बुनते रहते हैं उन्हें निराश ही रहना पड़ता है। कोई देवता कबूतर की तरह जाल में नहीं फंसता। कोई देवी मछली की तरह आटे की गोली नहीं निगलती। कोई मंत्र अलाद्दीन का जादुई चिराग नहीं है। अध्यात्म विज्ञान का एक ही मान्यता प्राप्त सिद्धान्त है- साधना से सिद्धि। जिनने कुछ महत्वपूर्ण पाया है उनने इसी तथ्य को हृदयंगम किया है और पात्रता विकसित करने वाले साधनात्मक पुरुषार्थ के सहारे अपनी यथार्थता को बढ़ाया है।

साधनात्मक प्रयोग, उपचार, क्रिया-कृत्य आरम्भ करने के साथ-साथ सर्वप्रथम एक समस्या का समाधान करना होता है कि प्रगति पथ के अवरोधों को कैसे हटाया जाय? अवरुद्ध द्वार कैसे खोला जाय? आत्मिक प्रगति में- सिद्धियों की उपलब्धि से सबमें प्रमुख बाधक अपने कुसंस्कार ही होते हैं। दृश्यमान दुष्कर्म अपना विस्तार समेट कर अदृश्य संस्कारों का रूप बनकर अचेतन की गहरी परतों में जा घूमते हैं और वहीं से अनेक प्रकार के संकटों का सृजन करते रहते हैं। आग जहाँ रखी जाती है, वहीं जलाना आरम्भ कर देती है। तेजाब का स्वभाव ही गलाना है वह जहाँ भी रखा जायेगा सामर्थ्यानुसार अपने प्रभाव का परिचय देता रहेगा। अन्तःक्षेत्र में प्रतिष्ठित दुर्बुद्धि और दुष्प्रवृत्ति का समन्वय कुसंस्कार है। यही है जो न साधना को सिद्ध होने देता है और न उस निमित्त श्रद्धा जमने, मन लगने तथा गम्भीर प्रयत्न करने देता है। उथले प्रयत्नों का गहरा प्रतिफल कैसे मिले? कुसंस्कार ही हैं जो यमदूतों की तरह पग-पग पर त्रास देते हैं। व्यक्तित्व को हेय बनाते हैं। रुग्णता एवं उद्विग्नता के अभिशाप थोपते हैं। संपर्क क्षेत्र से असहयोग, विग्रह, विद्वेष का वातावरण बनाते हैं। सर्वविदित है कि दुर्गुणी भीतर से जलता और बाहर से मिटता है।

नरक लोक में यमदूतों द्वारा दिये जाने वाले त्रासों का वर्णन कथा पुराणों में सुनने को मिलता रहता है। कषाय-कल्मषों से आच्छादित अन्तःकरण ही नरक है। अपने ही दुर्गुण दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं। अपनी ही दुर्बुद्धि अचिन्त्य चिन्तन में निरत रहकर कुमार्ग पर धकेलती है। दुष्प्रवृत्तियां ही उलटकर विपत्तियों की तरह बरसती हैं। यमदूत और कुछ नहीं अपने ही कुसंस्कारों द्वारा उत्पन्न किये गये भूत-प्रेत हैं। जो क्रिया की प्रतिक्रिया का परिचय देते हैं और अनाचारों को तोड़ मरोड़ कर रख देते हैं। नरक और यम-त्रास मनुष्य की आत्म-सत्ता में ही सृष्टा ने सुनियोजित रीति से गुँथ दिये हैं।

साधना की प्रगति में सर्वप्रथम इसी मोर्चे पर जूझना पड़ता है। साधना को संग्राम कहा गया है। यही अर्जुन का महाभारत है। उसे लड़े बिना कोई चारा नहीं। कृष्ण का आग्रह इसी निमित्त था। जब तैयार हो गया तो वह उसका रथ चलाने, घोड़े हाँकने, रास्ता बताने और विजय दिलाने के लिए वचनबद्ध हो गये। साधना यहीं से आरंभ होती है। साधक को अन्तराल के धर्म क्षेत्र में और व्यवहार के कर्म क्षेत्र में उच्च उद्देश्यों के लिए अग्रगामी होना पड़ता है। गाण्डीव उठाने और “करिष्ये वचनं तव” का संकल्प करने के उपरान्त ही सामान्य-सा पाण्डु पुत्र भगवान का अनन्य सहचर महान अर्जुन बनता है। यही है साधना से सिद्धि की पृष्ठभूमि।

भीतरी प्रगति और बाहरी उपलब्धि के लिए साधना मार्ग पर अग्रसर होना होता है। यह मंजिल अपने ही पैरों चलकर पूरी करनी पड़ती है। मार्ग में सहायक सहयोगी भी मिलते हैं और लक्ष्य तक पहुँचने पर अभीष्ट उपहार उपलब्ध होते हैं किन्तु ऐसा नहीं होता कि अपने पैरों को कष्ट देने से बचा लिया जाय और किसी दूसरे के कन्धे पर बैठकर यह यात्रा पूरी करली जाय। दैवी शक्तियों के वरदान अनुदान प्राप्त होने की परम्परा तो है, पर वह लाभ विजेताओं को मिलता है। छात्रवृत्ति या उपाधि उत्तीर्ण छात्रों को मिलती है। शिक्षा आरम्भ करने से पूर्व ही यह दोनों अनुदान हस्तगत हो सकें ऐसा देखा सुना नहीं गया। साधना का साहस करने से पूर्व सिद्ध पुरुषों के अनुदान, आशीर्वाद अथवा देव सत्ताओं को सिद्धि वरदान मिलने लगें, ऐसी अपेक्षा करना व्यर्थ है।

आत्मिक प्रगति के मार्ग पर चलने के लिए भी इसी प्रकार दो कदम उठाते हुए बढ़ना होता है जैसा कि आये दिन सभी चला करते हैं। पैर दो हैं। चलने वाले इन्हीं को लेफ्ट राइट करते हुए आगे बढ़ते हैं। अध्यात्म क्षेत्र में लक्ष्य तक पहुँचने के लिए जो कदम बढ़ाने पड़ते हैं उनमें से एक का नाम है- परिशोधन। दूसरे का नाम- परिष्कार। परिशोधन अर्थात् संचित कषाय-कल्मषों का कुसंस्कारों का- दुष्कर्मों के प्रारब्ध संचय का निराकरण। परिष्कार अर्थात् श्रेष्ठता का जागरण अभिवर्धन। सुसंस्कारिता का जीवन क्रम में अधिकाधिक समावेश। यह दो उपक्रम ही वे दो कदम हैं जिन्हें बढ़ाते हुए आत्मिक क्षेत्र की सफलता सम्भव होती है।

यही राजमार्ग सब के लिए है। इसमें पगडण्डी वाला शॉटकट ढूँढ़ना व्यर्थ है। चुटकी बजाते जो ऋद्धि-सिद्धियों की बात सोचते हैं, कुछ ओछे-तिरछे उपचारों के सहारे भौतिक सफलताओं की तुलना में असंख्य गुनी अधिक महत्वपूर्ण आत्मिक सफलता का सपना देखते हैं- वे यथार्थ से कोसों दूर हैं। मनमोहक खाने वाले- स्वप्नदर्शी व्यर्थ ही मृग तृष्णाओं में भटकते रहते हैं। बड़ी उपलब्धियों का बड़ा मूल्य चुकाना पड़ता है। हर साधक को सिद्धावस्था तक पहुँचने के लिए आत्म-शोधन और आत्म-परिष्कार के अवलम्बन अनिवार्य रूप से अपनाने होते हैं।

परिशोधन को तपश्चर्या कहते हैं और परिष्कार को योग साधना। तप की गर्मी से कुसंस्कार जलते हैं और प्रसुप्त जगते उभरते हैं। योग से परब्रह्म के साथ एकात्म स्थापित करने का अवसर मिलता है। बल्ब तब प्रकाशवान होता है जब तारों के माध्यम से वह बिजली के उत्पादन केन्द्र के साथ सम्बन्ध जोड़ता है। परमात्मा बिजली घर है और आत्मा बल्ब। दो तार मिलने पर ही करेंट चालू होता है। आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़ने से ही साधक में दिव्य चेतना की विभूतियाँ बढ़ने का प्रमाण परिचय मिलने लगता है। योग अर्थात् आत्मा को परमात्मा से जोड़ने वाली भावनात्मक प्रक्रिया। तप, अर्थात् कुसंस्कारों दुष्कर्मों का दहन- प्रायश्चित। तप अर्थात् उस आन्तरिक ऊर्जा का उद्भव जिसके सहारे सत्प्रयोजन का पराक्रम जगे और उत्कृष्टता के अवधारण का साहस उभरे।

कपड़ा रंगने से पहले उसे भली प्रकार धोना पड़ता है। बीज बोने से पूर्व भूमि तैयार करनी होती है। कारतूस चलाने का समय तब आता है जब अच्छी बन्दूक हाथ लग जाती है। पूजा से पूर्व स्नान करने, धुले वस्त्र पहनने, बुहारी लगाने की आवश्यकता होती है। भोजन करने से पूर्व हाथ धोते हैं। इन्जेक्शन लगाने से पूर्व सुई को गरम पानी में उबालते हैं। इन उदाहरणों में परिशोधन की प्राथमिकता है। यही बात आत्मिक प्रगति के सम्बन्ध में भी है। ईश्वरीय अनुग्रह प्राप्त करने से पूर्व उस दिव्य अवतरण के लिए अन्तःकरण को बुहारने, धोने लीपने, पोतने की आवश्यकता पड़ती है। अवतरण बाद में होता है। दिवाली आने से पूर्व ही लक्ष्मी पूजन के लिए घरों की रंगाई पुताई होती है। दूल्हा बरात लेकर आये उससे पूर्व भी ऐसी ही सफाई सजावट होती है। दैवी अनुकम्पा जीवन में उतरे इससे पूर्व उसे भी कुसंस्कारों से युक्त करना पड़ता है। तपश्चर्या की प्राथमिकता है। योग साधना का कदम इससे आगे का है। राजयोग में यम, नियम पालने की मनोभूमि बनने पर ध्यान धारणा के अगले कदम उठते हैं।

उपासना का समुचित प्रतिफल प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि आत्म-शोधन की प्रक्रिया पूर्ण की जाय। यह प्रक्रिया प्रायश्चित्त विधान से ही पूर्ण होती है। हठयोग में शरीर शोधन के लिए नेति-धोति, वस्ति, न्यौली, वज्रोली, कपाल भाँति की क्रियाएं करने का विधान है। राजयोग में यह शोधन कार्य यम, नियमों के रूप में करना पड़ता है। भोजन बनाने से पूर्व चौका, चूल्हा, बर्तन आदि की सफाई कर ली जाती है। आत्मिक प्रगति के लिए भी आवश्यक है कि अपनी गतिविधियों का परिमार्जन किया जाय। गुण, कर्म, स्वभाव को सुधारा जाय और पिछले जमा हुए कूड़े-करकट का ढेर उठाकर साफ किया जाय। आयुर्वेद के काया-कल्प विधान में वमन, विरेचन, स्वेदन, स्नेहन आदि कृत्यों द्वारा पहले मल शोधन किया जाता है तब उपचार आरम्भ होता है। आत्म-साधना के सम्बन्ध में भी आत्म-शोधन की प्रक्रिया काम में लाई जाती है।

परिशोधन प्रयोजन के लिए तपश्चर्याओं के अनेकानेक विधि-विधान हैं। उन सबसे सर्व सुलभ एवं अनेक दृष्टियों से सत्परिणाम उत्पन्न करने वाली साधना चान्द्रायण व्रत की है। उसे आध्यात्मिक कायाकल्प कहा जाता है। कायाकल्प चिकित्सा से शरीर में भरे हुए मल विकारों की पूरी तरह सफाई की जाती है। तथा ऐसे उपचार अपनाये जाते हैं जिससे नये रक्त का नाडियों में संचार होने लगे। पाचन तंत्र नई स्फूर्ति के साथ काम करने लगे। माँस-पेशियाँ फिर से कड़ी हो जांय और नाड़ियों में प्राण प्रवाह नयी चेतना के साथ बह निकले। चान्द्रायण तपश्चर्या को भी इसी स्तर की माना है। उसका मुख्य प्रयोजन परिशोधन होते हुए ही लगे हाथों परिष्कार का दुहरा सिलसिला भी चल पड़ता है।


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