हठीले कुसंस्कारों का निराकरण चान्द्रायण से

December 1981

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दूध, शाक, फल आदि बहुत देर तक स्थिर नहीं रखे जा सकते इसलिए अधिक मात्रा में होने पर उन्हें बेचकर रुपया बना लेते हैं। यह रुपया सुरक्षित रहता है। आवश्यकतानुसार उसके बदले दूध, शाक, फल अथवा दूसरी वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। इसी प्रकार दुष्कर्म घटनाक्रम के रूप में विस्तृत एवं सामयिक होने के कारण उन्हें पीछे अपना प्रभाव प्रकट करने के लिए अन्ततः चेतना ‘संस्कारों’ के रूप में सुरक्षित रख लेती हैं। यह संस्कार ही व्यक्तित्व का मूलभूत आधार होते हैं। इन्हीं के आधार पर गुण, कर्म, स्वभाव की विशिष्टताएं पूर्व संचित पूँजी के रूप में साथ रहती हैं। यों सामयिक कमाई भी इसमें जुड़ती-रहती और संचित संस्कार सम्पदा के प्रभाव को न्यूनाधिक करती रहती है।

मनुष्य जीवन की प्रमुख समस्याओं के कारण बाह्य परिस्थितियों में ढूँढ़ने की प्रचलित परम्परा को अपूर्ण ठहराया और अमान्य किया जा रहा है। व्यक्तित्व के अन्तराल में जमी हुई हठीली संस्कार सम्पदा ही कठ-पुतली की तरह मनुष्य को तरह-तरह के नाच-नचाने और क्रीड़ा-कौतुक करने के लिए विवश करती रहती है। इतना ही नहीं वह परिस्थितियाँ भी इतनी जटिल उत्पन्न कर देती है जो टाले नहीं टलती। कारण कि उनकी जड़ अचेतन की गहन परतों में होती है। जड़ न कटे तो टहनी-तोड़ने से भी वृक्ष के अस्तित्व पर क्या असर पड़ने वाला है।

इन दिनों शारीरिक रोगों की अभिवृद्धि दिन दूनी रात चौगुनी होती जा रही है। चिकित्सकों, चिकित्सालयों एवं नित नई औषधियों में आंधी-तूफान की तरह बढ़ोतरी हो रही है। इतने पर भी उसके नियन्त्रण के कोई लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते। इस असमंजस का समाधान एक ही है कि मनःक्षेत्र में घुसती पनपती उन कुत्साओं-कुण्ठाओं का पर्यवेक्षण निराकरण किया जाय जो न केवल शारीरिक रोगों, मानसिक उद्वेगों के लिए जिम्मेदार हैं वरन् व्यावहारिक जीवन में भी बने अनेकानेक विग्रह संकट आयेदिन खड़े करती रहती हैं। मनःस्थिति परिस्थिति के लिए उत्तरदायी है। इस तथ्य को समझ लेने पर इस निष्कर्ष पर पहुँचना सम्भव हो सकेगा कि संकटों का आत्यान्तिक समाधान क्या हो सकता है?

मनोविज्ञान ने यह सिद्ध किया है कि शारीरिक रोगों का प्रमुख कारण मनःक्षेत्र में जमे हुए हठीले सुसंस्कार प्रधान कारण होते हैं। हठीले इस अर्थ में कि उन्हें धारण किये हुए व्यक्ति यह भली-भांति समझता है कि उसने अनुपयुक्तताएं अपना रखी हैं और उन्हें छोड़ ही देना चाहिए। इतने पर भी वे स्वभाव के साथ बुरी तरह गुंथ गई आदतों के रूप में इस प्रकार परिपक्व बन गई होती हैं कि उन्हें हटाने के सामान्य उपायों से कोई ठोस परिणाम निकलता दिखाई नहीं पड़ता। समझदारी का तकाजा एक ओर-आदतों का हठीलापन दूसरी ओर-इन दोनों की तुलना की जाय तो कुसंस्कारों का हठीला पन ही भारी पड़ता है।

सभी जानते हैं कि मनुष्य ही है जो मानसिक असन्तुलन उत्पन्न करता और उनके विक्षोभों के फल स्वरूप शरीर के विभिन्न अवयवों की सामान्य कार्य पद्धति में अवरोध उत्पन्न करता है। फलतः बीमारियाँ उसे आ घेरती हैं।

रोगों की जड़ शरीर में हो तो कायचिकित्सा में सहज सुधार होना चाहिए। पोषण की पूर्ति आहार से होनी चाहिए और विषाणुओं को औषधि के आधार पर हटाने में सफलता मिलनी चाहिए। किन्तु देखा जाता है जीर्ण रोगियों की काया में रोग इस बुरी तरह रम जाते हैं कि उपचारों की पूरी-पूरी व्यवस्था करने पर भी हटने का नाम नहीं लेते। एक के बाद दूसरे चिकित्सक और नुस्खे बदलते रहने पर भी रुग्णता से पीछा नहीं छूटता। इलाज के दबाव में बीमारियाँ रंग-रूप बदलती रहती हैं पर जड़ें न कटने से टूटे हुए फिर से नई कोपलों की तरह उगते रहते हैं। जड़ों को खुराक मिलती रहे तो टहनियाँ तोड़ने से भी पेड़ सूखता नहीं है।

रोगों के दो वर्ग हैं एक आधि, दूसरा व्याधि। ‘व्याधि’ शारीरिक रोगों को और ‘आधि’ मानसिक रोगों को कहते हैं। ज्वर, खाँसी, दमा, दर्द, अपच, मधुमेह, रक्तचाप आदि को शारीरिक रोगों में गिना जाता है और उन्माद, सनक, मूर्खता, विस्मृति, विसंगतियाँ, उलझनों आदि की मानसिक रोगों में गणना होती है। मस्तिष्कीय रोगों की चिकित्सा पागलखाने के डॉक्टर करते हैं और मनःचिकित्सक पूछताछ करके अन्तरंग में सभी कुंठाओं को उगलवाने और सत्परामर्श देने के उपायों का सहारा लेते हैं। शरीर विज्ञानी औषधि उपचार, शल्य उपचार आदि के द्वारा करते हैं। इनमें आँशिक सफलता भी मिलती है, पर प्रयत्न फिर भी अधूरा ही रह जाता है और वैसा लाभ नहीं मिलता जैसा अभीष्ट है। इस अधूरेपन को दूर करने के लिए मन की उस गहराई तक जाना होगा जहाँ से कि शरीर और मन को प्रभावित करने वाले प्रवाहों को उभारने और काम करने की प्रेरणा मिलती है। कुएं में जो पानी भरा दिखता है वह उसकी तली में जल फेंकने वाले स्त्रोतों से आता है। इसी प्रकार मस्तिष्कीय अस्त-व्यस्तताएं चेतना की मूल प्रवृत्ति के मर्मस्थल में से उभरती हैं। इस परत को आस्था केन्द्र कहते हैं। मनुष्य के गहन अन्तराल में कुछ आस्थाएं जनी होती हैं। व्यक्तित्व का मूल स्त्रोत उन्हीं में सन्निहित रहता है।

अन्तःकरण की आस्थाएं ही हैं जो मनुष्य को ऊपर उठने एवं नीचा गिरने की प्रेरणा देती हैं। उसी की प्रतिक्रिया व्यक्तित्व को समुन्नत एवं पतित बनाकर रख देती हैं। इसी आन्तरिक उत्थान-पतन के आधार पर मनुष्य स्वर्गीय एवं नारकीय दृष्टिकोण विनिर्मित करता है और तदनुसार अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक कष्टों को सहन करना पड़ता है। इतना ही नहीं जीवन के अन्य क्षेत्र भी ऐसी विषम परिस्थितियों से मर जाते हैं जिनमें रहने वाला अपने को पग-पग पर असफल, उपेक्षित, तिरस्कृत, दरिद्र एवं दुर्भाग्यग्रस्त अनुभव करता है।

डा. ब्राउन, डा. पीले, मैगडूगल, हेडफील्ड और डॉ. चार्ल्स जुंग आदि अनेक प्रसिद्ध मनोविज्ञान शास्त्रियों ने यह माना है कि फोड़े-फुन्सी से लेकर टी.बी. और कैन्सर तक की बीमारियों के पीछे कोई न कोई दूषित संस्कार ही कारण होते हैं। मनुष्य बाहर से ईश्वर परायण, सत्यभाषी, मधुर व्यवहार करने वाला दिखाई देता है, पर सच बात यह होती है कि उसके अंतर्मन में नैतिकता को जब दबाकर दिखाने के लिए कुछ किया जाता है तो उसका मन भीतर ही भीतर अंतर्द्वंद्व करता है, जिस अंतर्द्वंद्व के फलस्वरूप ही उसमें रोग पैदा होते हैं। कई बार यह संस्कार बहुत पुराने हो जाते हैं, तब बीमारी फूटती है, पर यह निश्चित है कि बीमारियाँ का पदार्पण बाहर से नहीं, व्यक्ति के मन से होता है।

इस कथन की पुष्टि में मैकडोनल्ड अमेरिका का उदाहरण देते हुए कहते हैं- अमेरिका के बीमारों में आधे ऐसे होते हैं जिनमें ईर्ष्या, द्वेष, स्पर्धा, क्रोध, धोखेबाजी आदि भाव प्रभुत्व जमाये होते हैं। जो इस प्रकार मानसिक रोगी होते हैं वे अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण नहीं कर सकते, उनका व्यक्तित्व अस्त-व्यस्त हो जाता है, उसी से वे उल्टे काम करते और बीमारियों को बढ़ाते हैं। आगे दुश्चिन्ता की व्याख्या करते हुए मैकडोनल्ड लिखते हैं- “मानसिक चिन्ताओं द्वारा रक्त के अन्दर ‘एड्रेनलीना’ नामक हार्मोन की अधिकता हो जाती है, उसी से श्वास फूलना, कंपन, चक्कर, आना बेचैनी, दिल धड़कना, पसीना आना और दुःस्वप्न बनते हैं। दौरे और बड़ी बीमारियाँ भी किसी न किसी मानसिक ग्रन्थि के ही परिणाम होते हैं, जिसे डॉक्टर नहीं जानता पर आधि-व्याधियाँ होती मन का ही कुचक्र हैं।

इस सम्बन्ध में भारतीय मत बहुत स्पष्ट है। यहाँ जीवन को इतनी गहराई से देखा गया है कि आधि-व्याधियों के मानसिक कारण पाप-ताप के संस्कार रूप में स्पष्ट झलकने लगते हैं। योग वशिष्ठ में कहा गया है-

चित्ते विधुरते देहः संक्षोभमनयात्यलम्॥ -6।1।81।30

चित्त में गड़बड़ होने से शरीर में गड़बड़ होती है।

इदं प्राप्तमिद नेति जाड्याद्वा घनमोहदाः। आधयः सम्प्रवर्तन्त वर्षांसु मिहिका इवं॥ -6।1।81।16

अंतर्द्वंद्व और अज्ञान से खोह में डालने वाले मानसिक रोग पैदा होते हैं, उनसे फिर शारीरिक रोग इस तरह पैदा हो जाते हैं जैसे बरसात के दिनों में मेंढक अनायास दिखाई देने लगते हैं।

दुष्काल व्यवहारेण दुष्क्रिया स्फुरणन च। दुर्जना संगदोषेण दुर्भावोद्भावनेन च॥ क्षीणत्वाद्वा प्रपूर्णत्वान्नडोनां रन्ध्रसन्ततो। प्राणे विधुरतां याते काये तु विकलोकृत॥ -6।1।81।18,19

दौस्थित्यकारणं दोषाद् व्याधिद हे प्रवर्तते।

अनुचित समय पर अनुचित काम करने से, बुरे लोगों के पास बैठने से, मनुष्य मन में पाप और बुरी भावनाओं को स्थान देने लगता है। ऐसा होने पर नाड़ियां अपनी सामान्य कार्य प्रणाली बन्द कर देती हैं। कुछ नाड़ियों की शक्ति नष्ट हो जाती है, कुछ अधिक शक्तिशाली हो जाती हैं, जिससे प्राण का प्रवाह उलटा-पुलटा हो जाता है। प्राण संचार में गतिरोध उत्पन्न होने पर ही शरीर की( स्थिति बिगड़ती और उसमें तरह-तरह के रोग पैदा हो जाते हैं।

आगे चलकर योग वशिष्ठ में इस प्रसंग को और भी अच्छी तरह खुलासा किया गया है।

संक्षोभात्साम्युत्सर्ज्य वहन्ति प्राणवायवः॥ असमं वहति प्राणे नाड्योयांति विसंस्थितिम्॥ कुजोर्णत्वमजीर्णत्वमतिमति जीर्णत्वमेव वा। दोषा येव प्रपात्यन्नं प्राणसंचारदुष्क्रमात्॥ कश्चिन्नाड्यः प्रपूर्णत्वं यांतिकाश्चिच्चरिक्तताम् तथान्नानि नयत्यन्तः प्राणवातः स्वमाश्रयम्। यान्मन्ननि निरोधेन तिष्ठन्त्यन्तः शरीरके॥ तान्येव व्याधितां यान्ति परिणामस्वभावतः। एवमाघेर्भवेद् व्याधिस्तस्याभावाच्च नश्यति॥ -6।1।81।32 से 38 तक

अर्थात्- चित्त में उत्पन्न हुए विकास से ही शरीर में दोष पैदा होते हैं। शरीर में क्षोभ या दोष उत्पन्न होने से प्राणों के प्रसार में विषमता आती है और प्राणों की गति में विकार होने से नाड़ियों के परस्पर सम्बन्ध में खराबी आ जाती है। कुछ नाड़ियों की शक्ति का तो स्राव हो जाता है और कुछ में जमाव हो जाता है।

प्राणों की गति में खराबी से अन्न अच्छी तरह नहीं पचता है। प्राणों के सूक्ष्म यन्त्रों में अन्न के स्थूल कण पहुँच जाते हैं और जमा होकर सड़ने लगते हैं। उसी से रोग उत्पन्न होते हैं, इस प्रकार आधि (मानसिक रोग) से ही व्याधि (शारीरिक रोग) उत्पन्न होते हैं। उन्हें ठीक करने के लिए मनुष्य को औषधि की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी यह कि मनुष्य अपने बुरे स्वभाव और मनोविकारों को ठीक कर ले।

साधारणतया समझाने-बुझाने की पद्धति ही सुधार-परिवर्तन के लिए काम में लाई जाती है, पर देखा यह गया है कि भीतरी परतों पर जमे हुए कुसंस्कार इतने गहरे होते हैं उन पर समझाने-बुझाने का प्रभाव बहुत ही थोड़ा पड़ता है। देखा जाता है कि नशेबाजी जैसी आदतों से ग्रसित व्यक्ति दूसरे अन्य समझदारों की तरह ही उस बुरी आदत की हानि स्वीकार करते हैं। दुखी भी रहते हैं और छोड़ना भी चाहते हैं, पर उस आन्तरिक साहस का अभाव ही रहता है जिसकी चोट से उस अभ्यस्त कुसंस्कारिता को निरस्त किया जा सके। इस विवशता से कैसे छूटा जाय? इसका उपयुक्त उपाय सूझ ही नहीं पड़ता। लगता रहता है कि कोई दैवी दुर्भाग्य ऐसा पीछे पड़ा है जो विपत्ति से उबरने का कोई आधार ही खड़ा नहीं होने देता। पग-पग पर अवरोध ही खड़े करता और संकट पटकता भी वही दिखता है। यह दुर्भाग्य और कोई नहीं, अपने अन्तरंग पर छाये हुए कषाय-कल्मष कुसंस्कार ही हैं, जो अभ्यास और स्वभाव का अंग बन जाने के कारण छुड़ाये नहीं छूटते और पटक-पटक कर मारते हैं। नरक के यमदूतों जैसा त्रास देते हैं। इस विपन्नता को उलटने का समर्थ उपचार आन्तरिक परिशोध ही है। इस अन्तस् के कायाकल्प के लिए जितने भी उपाय खोजे गए हैं उनमें तत्वदर्शियों ने अपने अनुभवों के आधार पर चान्द्रायण तपश्चर्या को सर्वसुलभ अत्यन्त प्रभावशाली पाया है।

कुकृत्यों की रोकथाम, शासकीय एवं सामाजिक नियन्त्रण के आधार पर बहुत कुछ काबू में रखी जा सकती है। मानसिक दुश्चिन्तन को दूरदर्शी विवेकशीलता के सहारे घटाया या हटाया जा सकता है। पर इतने से भी कुछ काम चलने वाला नहीं है क्योंकि प्रेरणाओं का उद्गम स्त्रोत तो अन्तःकरण में उठने वाली दुर्भावना, आदर्शों के प्रति अनास्थाएँ ही होती हैं। प्रत्यक्ष और परोक्ष में उसी की चित्र-विचित्र भूमिकाएँ अनेकानेक कुकर्मों एवं दुर्घटनाओं के रूप में सामने आती रहती हैं। वास्तविक उपचार इसी क्षेत्र का होना चाहिए।

शरीर की रुग्णता, मन की उद्विग्नता, आर्थिक दरिद्रता, व्यक्तित्व का पिछड़ापन, पारिवारिक मनोमालिन्य सम्पर्क क्षेत्र का विग्रह, साथियों की अवमानना जैसे संकटों के कारण तो सामयिक भी होते हैं और उनके लिए दोषी कइयों को ठहराया जा सकता है किन्तु वास्तविकता तलाश करने पर प्रतीत होता है कि यह समस्त संकट एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। वे एक ही भानमती के पिटारे से निकले हैं। विषवृक्ष की जड़ कटनी चाहिए। पत्ते तोड़ने, टहनी मरोड़ने से कुछ काम चलने वाला नहीं है। न चिकित्सक के काबू में रोग आने वाले हैं और न उपदेश, मनोवैज्ञानिक मानसिक विक्षोभों का समाधान कर सकते हैं। क्योंकि जिस उद्गम स्त्रोत से निकलते हैं वहाँ उभार उफनता ही रहा तो बाहरी रोकथाम से क्या बनेगा। वह छेद रोकते-रोकते दूसरा फूट पड़ेगा। मेंड़ बंधने और टूटने रहने का सिलसिला तब तक चलता ही रहेगा जब तक कि उफान उत्पन्न करने वाला स्त्रोत बन्द नहीं हो जाता है।

शरीर और मन के रोगों की रोकथाम के लिए कई प्रकार के उपचार उपकरण एवं विशेषज्ञ उपलब्ध हो सकते हैं। किन्तु अन्तःकरण की गहराई में पहुँचकर वहाँ कुछ उलट-पुलट करनी हो तो फिर अध्यात्म चिन्तन एवं साधनात्मक उपचार ही एकमात्र अवलंबन बनकर रह जाते हैं। योग भावना को उत्कृष्टता के साथ जोड़ता है और तप कुसंस्कारिता को गलाकर सुसंस्कारिता में ढालने वाली भट्टी का प्रयोजन पूर्ण करता है।

इन दोनों आवश्यकताओं की पूर्ति जिन साधना उपचारों से सकती है उनमें चान्द्रायण सर्वोपरि है। उसकी निर्धारित कार्य पद्धति का प्रभाव आरोग्य रक्षा, मनोरोग चिकित्सा के रूप में ही नहीं एक कदम आगे बढ़कर अन्तराल की गहरी परतों में जमी हुई कुसंस्कारिता को उखाड़ फेंकने की दृष्टि से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध होती है। एकांगी साधनाएँ तो कितनी ही प्रचलित हैं पर जिनमें परिशोधन ओर प्रगति परिष्कार के दोनों प्रयोजन सिद्ध होते हैं, जो एक होते हुए भी अनेक प्रयोजन सिद्ध कर सके, ऐसी अध्यात्म चिकित्सा चान्द्रायण साधना के अतिरिक्त दूसरी परिलक्षित नहीं होती।


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