अपनों से अपनी बात

December 1981

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अध्यात्म-दर्शन एवं प्रयोग का अभिनव प्रस्तुतीकरण

आहार, वस्त्र, व्यायाम, चिकित्सा, शिक्षा, भाषा आदि उपयोगी साधनों के भी इतने प्रकार और भेद-उपभेद हैं कि उन सभी को कोई एक साथ अपनाने में समर्थ नहीं हो सकता। अपनी मनःस्थिति और परिस्थिति के अनुरूप उनमें से किसी एक का चयन करना पड़ता है। इस चयन में ऐसे ही मन की मौज कारण नहीं होती वरन् कुछ आधार ऐसे होते हैं जिन्हें ध्यान में रखते हुए उपयोगी चुनाव करना पड़ता है। यह चुनाव देश, काल और पात्र की भिन्नता के कारण कई बार ऐसा होता है जिसमें अन्य स्थानों की अपेक्षा सर्वथा भिन्नता देखी जा सकती है। शीत प्रधान देशों- उष्ण कटिबंध के क्षेत्रों में आहार-बिहार की भी विषमता रहती है। ठण्डक के दिनों और गर्मियों में कपड़े, निवास एवं दिनचर्या निर्धारण में स्पष्ट अन्तर रहता है।

बालकों और प्रौढ़ की पसन्दगी और आवश्यकता में समानता कहाँ होती है। अब से एक लाख वर्ष पूर्व जो भाषा, पोशाक, मान्यता, उपकरण, प्रचलन पाये जाते थे, उनकी तुलना में अब की स्थिति में जमीन आसमान जैसा अन्तर आ गया। व्यवहार-शिष्टाचार में जो अन्तर पड़ा है। वह देखते ही बनता है। विज्ञान की अनेकों शाखा-उपशाखाएँ भूतकाल में जिन मान्यताओं को अपनाकर चलती थी, अब उनमें भारी परिवर्तन हो चुका है। कभी मनुष्य का पेट इतना बलिष्ठ था कि कच्चा अन्न ही नहीं, माँस भी हजम कर जाने में कठिनाई नहीं होती थी, पर अब व्यवहार, वातावरण और अभ्यास में, जलवायु में, शरीरों के स्तर में जो अन्तर आया है उसे देखते हुए पिछले अभ्यासों को दुहराना अति कठिन है।

अध्यात्म क्षेत्र के स्नातक तत्व- सिद्धान्त सुनिश्चित होते हुए भी उनके प्रतिपादन और प्रयोग पहले जैसी स्थिति में नहीं हैं। कभी सूर्य चलता था और पृथ्वी स्थिर थी। चन्द्रमा पूर्ण ग्रह था पर अब ज्योतिष के वे पुरातन सिद्धान्त अमान्य ठहरा दिए गए हैं। इसी प्रकार प्रगतिक्रम पर चलते-चलते, परिस्थितियों के बदलते-बदलते हर क्षेत्र में ऐसी उत्क्रांति उभरी है कि पुरातन का समुचित सम्मान करते हुए भी आज की स्थिति के अनुरूप सोचने और कदम बढ़ाने की आवश्यकता अपरिहार्य हो गई है। अब न तो दिग्विजय के लिए अश्वमेध के घोड़े निकलते हैं और न स्वयम्बरों के सरंजाम जुटते हैं। पार्वती की तरह जलवायु पर लम्बे समय तक निर्वाह करते हुए तप साधना कर सकना भी अब सम्भव नहीं रहा। माचिस के प्रचलन ने लौह चुम्बक की रगड़ से आग उत्पन्न करने की प्रथा को अब एक प्रकार से निरस्त ही कर दिया है।

लोक व्यवहार, भौतिक विज्ञान, प्रथा-प्रचलन, आहार-बिहार के स्तर में समयानुसार क्रमिक एवं क्रांतिकारी परिवर्तन होते रहे हैं। शासन पद्धतियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है। अनेकानेक तत्त्वदर्शन कभी अपने-अपने क्षेत्रों पर एकाधिकार जमाए हुए थे, किन्तु अब सोचने की पद्धति में भारी अन्तर हुआ है। धर्मों और दर्शनों को तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाने लगा है। तर्क और तथ्य की कसौटी पर हर बात को जांचा-परखा जा रहा है। यहां तक कि ईश्वर को भी अपना अस्तित्व सिद्ध करने के लिए ललकारा जाने लगा है। प्रत्यक्ष और परीक्षण की परख अब इतनी स्वाभाविक बन गई है, इतनी आवश्यक लगने लगी है कि उसे निषिद्ध ठहराने में किसी का साहस न तो आगे बढ़ता है और न दो कदम चलने के उपरान्त टिक ही पाता है।

तर्क और तथ्य के आधार पर किन्हीं प्रतिपादनों को अंगीकार करने की विज्ञान बुद्धि ने अब अपनी स्थिति सर्वमान्य जैसी बनाली है। अध्यात्म कभी शास्त्र-प्रतिपादन एवं आप्त वचन के सहारे अपनी स्थिति बनाये रहा होगा और श्रद्धा ही उसकी आधारशिला रही होगी, किन्तु अब उसे विज्ञान रूप में अपनी यथार्थता एवं प्रखरता सिद्ध करनी है। इसके बिना न तो उसकी उपयोगिता समझी जा सकती है, न लोग हृदयंगम करेंगे, न व्यवहार में उतारेंगे फलस्वरूप एक असमंजस भरी स्थिति ही बनी रहेगी। आज विज्ञान के प्रति सभी आश्वस्त भी हैं और उसका उपयोग करने में खर्चीली कष्ट साध्य प्रक्रिया भी अपनाते हैं, किन्तु अध्यात्म के निमित्त किसी को थोड़ा भी कष्ट सहना, जोखिम उठाना स्वीकार नहीं। बहाने के रूप में कहा कुछ जाता रहे, पर तथ्य एक ही है- अध्यात्म की क्षमता एवं उपयोगिता के सम्बन्ध में अविश्वास। कारण कि न तो वे प्रतिपादन, तर्क, तथ्य, प्रमाण की कसौटी पर खरे सिद्ध होते हैं और न उनकी उपयोगिता सिद्ध करने वाले कोई उदाहरण सामने आते हैं। ऐसी दशा में इन दिनों का प्रत्यक्षवादी लोकमानस क्यों इन्हें स्वीकार शिरोधार्य करे? यदि वैसा न बन पड़े तो उस अतः प्रभावी विज्ञान से लाभान्वित न हो पाने का दुर्भाग्य मनुष्य के सिर से कैसे टले?

इन विसंगतियों की संगति बिठाने, गुत्थियों को सुलझाने का एक ही उपाय है कि अध्यात्म तत्वज्ञान को तर्क और तथ्य की कसौटी पर खरा सिद्ध करके हृदयंगम हो सकने योग्य बनाया जाय। इसी प्रकार उनके प्रयोग-प्रतिपादनों को इस स्थिति में लाया जाय कि उन्हें अपना सकना विशिष्ट व्यक्तियों का कष्ट साध्य-दुस्साहस मात्र न बना रहे वरन् उस तक सर्वसाधारण की पहुंच हो सके। यह अध्यात्म की गरिमा को अक्षुण्ण रखने का प्रतिष्ठा-प्रश्न नहीं वरन् मनुष्य-समुदाय की प्रगति- शान्ति का आधारभूत कारण है। जिस प्रकार पदार्थ-सत्ता और उसके स्वरूप-प्रयोग की विधि व्यवस्था से अवगत अभ्यस्त होने के कारण ही सुविधा-साधनों का संवर्धन हो सका है। ठीक उसी प्रकार अध्यात्म विज्ञान के आधार पर चेतना शक्ति को प्रखर-परिष्कृत बनाकर व्यक्तित्व सम्पन्न बनने का लाभ उठाया जा सकता है। कहना न होगा कि पदार्थ की सामर्थ्य एवं उपयोगिता जितनी है उसकी तुलना में आत्मिक क्षमता का प्रभाव परिणाम कम नहीं, वरन् अधिक ही है।

प्राचीनकाल में अध्यात्म को विभिन्न क्षेत्रों में जिस प्रकार कहा अपनाया जाता रहा है अब उन सभी का यथावत् हृदयंगम कर सकना सम्भव नहीं रहा। तुलनात्मक अध्ययन, तर्क तथ्य, प्रत्यक्ष एवं वैज्ञानिक प्रयोग प्रतिपादन की शैली अपनाकर ही मानवी गरिमा को उभारने वाले अध्यात्म को सर्वमान्य एवं सर्वोपयोगी बनाया जा सकता है। भौतिक उपलब्धियाँ आवश्यक तो हैं, पर पर्याप्त नहीं। आत्मिक विभूतियों के बिना मनुष्य उत्कृष्टता सम्पन्न न हो सकेगा। अंतःकरण में निकृष्टता भरी रहे तो साधनों का बाहुल्य आत्मघात एवं व्यापक विनाश का आधार ही बन सकता है। उपलब्धियों का अर्जन-उपार्जन श्रेयस्कर सिद्ध हो सके इसके लिए सदुपयोग सिखाने वाली सद्बुद्धि ऋतम्भरा की आवश्यकता है। यह अध्यात्म की ही उपलब्धि है। इसके बिना वैभव, चातुर्य, पराक्रम, चकाचौंध भर उत्पन्न कर सकेगा, उससे कोई महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध न होगा। आत्मबल सर्वोपरि है। उसके बिना व्यक्ति और समाज की विशिष्टता उभरती ही नहीं।

प्रकृति के गर्भ में रहस्यमयी शक्तियों और सम्पदाओं के भण्डार भरे-पड़े हैं। उनमें से बहुत कुछ मनुष्य ने ढूंढ़-कुरेद लिया है और बहुत कुछ अगले दिनों पाना शेष है। इससे भी बढ़ी-चढ़ी ब्रह्म तत्व की विशिष्टता है। चेतना का अजस्र भण्डार इस ब्रह्मांड में संव्याप्त है। उसकी बीज सत्ता हर चेतन घटक में- जीवात्मा में विद्यमान है। इस प्रसुप्ति को जगाया जा सके और अविज्ञात को खोजा जा सके तो आत्मा का स्तर परमात्मा जैसा बन सकता है। जीव को ब्रह्म और नर को नारायण बनने का सुयोग-सौभाग्य मिल सकता है।

इतना महत्वपूर्ण प्रसंग- विश्व का सर्वोत्तम विज्ञान आज जैसी हेय, उपेक्षित, तिरष्कृत एवं दुर्गतिग्रस्त स्थिति में बना रहे, इसे अपने समय और संसार का भारी दुर्भाग्य कहना चाहिए। इस क्षेत्र में अनेकों प्रतिभाओं के होते हुए भी असमंजस इस बात का है कि अध्यात्म बल दर्शन को अन्य विज्ञानों की तरह तर्क संगत, तथ्य सम्मत न बनाया जा सका और उसे अन्य विज्ञानों की तरह लोकमान्यता प्राप्त कर सकने का अवसर न मिला। हर विज्ञान का स्वरूप स्पष्ट और प्रयोग सुनिश्चित है, फिर अध्यात्म को विज्ञान जैसी मान्यता क्यों न मिले? उसके प्रयोग सर्वसाधारण के गले क्यों न उतरे? जब व्यायामशाला में कष्टसाध्य अभ्यास करके लोग पहलवान बनने का साहस कर सकते हैं, चौदह वर्ष खर्चीली पढ़ाई पढ़कर स्नातकोत्तर पदवी पा सकते हैं तो अध्यात्म प्रयोगों की उपेक्षा क्यों होती है? जबकि उसके लाभ अन्य सभी व्यवसायों की तुलना में कही अधिक ऊंचे स्तर के हैं।

इन सभी विसंगतियों का समाधान एक ही उपाय अपनाने से हो सकता है कि अध्यात्म के प्रयोग-प्रतिपादनों को तर्क, तथ्य, प्रमाण की प्रत्यक्षवादी पद्धति के अनुसार जन-साधारण को समझने-समझाने का अवसर मिले तो कोई कारण नहीं कि इतनी उपयोगी, इतनी श्रेयस्कर एवं इतनी उच्चस्तरीय विधि का लाभ लोग न उठायें। यदि सुविधा और सुनिश्चित प्रयोग सामने रखे जा सकें तो कोई कारण नहीं कि आये दिन परीक्षण का खतरा उठाने वाली मानवी साहसिकता अध्यात्म की विभूतियों को करतलगत करने, उनसे लाभान्वित होने का प्रयत्न न करे। संव्याप्त उपेक्षा, आशंका एवं अश्रद्धा के वातावरण ने जहां इस महान विज्ञान को अन्यान्य निर्धारणों की तुलना में तिरस्कृत रखा है वहां उस लाभ से वंचित रहकर समूची मानव जाति को दुरूह-दुर्भाग्य भी सहन करना पड़ रहा है। मानवी भविष्य को अंधकारमय बनाने वाली विपत्तियों का घटाटोप उड़ेलने वाले जहां अनेक अन्य कारण भी हैं वहां सबसे वजनदार और भयानक कारण है अध्यात्म तत्व-दर्शन के संबंध में छाया हुआ सघन अंधकार अज्ञान- उसके स्थानापन्न भ्रम-जंजाल का वर्चस्व। यदि इस एक व्यवधान को मानवी चिंतन से हटाया जा सके तो सौभाग्य का वह सूर्योदय फिर प्रकट हो सकता है, जो चिरकाल तक अपने आकाश में आलोकवान रहा और समस्त संसार को सौभाग्यशाली वरदान देता रहा। आज तो अध्यात्म के प्रतिपादन और प्रयोग दोनों ही भ्रम-जंजाल की कीचड़ में बेतरह फंसे हुए हैं और अभिनंदनीय रहने के स्थान पर अवमानना सहन कर रहे हैं।

अखण्ड-ज्योति के परिजनों का सौभाग्य है कि वे अध्यात्म तत्वज्ञान और प्रयोग-उपचार का न केवल दर्शन वरन् अभ्यास भी इस रूप में जान सकेंगे जिसे तथ्यों की हर कसौटी पर कसा और खरा पाया जा सके। यह प्रतिपादन दिसंबर 81 से प्रारंभ होकर दिसंबर 82 तक तेरह अंकों में प्रकाशित होते रहेंगे। यह कतरनों का संकलन-संपादन नहीं है वरन् 72 वर्ष की आयुष्य तक निरंतर चलते रहे अध्ययन, अध्यवसाय, चिंतन, मनन और समुद्र मंथन जैसे प्रयास का प्रतिफल है। स्वेच्छाचारी कल्पनाओं और मनगढ़ंत मान्यताओं के आधार पर इन्हें गढ़ा नहीं गया है और न किसी अंध श्रद्धा से सम्मोहित होकर उन्हें सच्चाई मान बैठने जैसे भ्रम-जंजाल की इन पर छाया है। जो कहा जा रहा है जिस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के लिए अनास्थावानों को भी विवश होना पड़े। विज्ञान के अनुसंधानों को प्रयोगशाला में परीक्षित-प्रमाणित किया जाता है। इसके उपरांत ही उपलब्धियों की घोषणा की जाती है। इस घोषणा को कसौटियों पर कसे जाने से आविष्कर्ताओं को प्रसन्नता ही होती है, नाराजी नहीं। अगले दिनों अखण्ड-ज्योति के पृष्ठों पर जो छपने वाला है उसे इसी स्तर का समझा जाय। इस गंभीर प्रसंग को इस रूप में इससे पूर्व कहीं प्रतिपादित किया गया हो- ऐसा स्मरण नहीं आता। अस्तु इसे अभूतपूर्व कहने में भी कोई अत्युक्ति नहीं है।

पत्राचार विद्यालय के रूप में सीमित श्रद्धावानों के सम्मुख ही इस प्रकटीकरण का विचार था। पर अब अधिक उपयुक्त यही समझा गया कि जो कहना है उसे चौराहे पर खड़े होकर कहा जाय और इस प्रतिपादन से सर्वसाधारण को अवगत होने दिया जाय, भले ही उसे अपनाने वाले थोड़े ही क्यों न निकलें।

‘परिजनों से दो अनुरोध हैं कि वे दिसंबर 81 से दिसंबर 82 तक’ के अंकों को सुरक्षित रखें। इन्हें अन्यों को पढ़ने तो दें, पर अस्त-व्यस्त न होने दें। यह अपने ढंग की अलभ्य सामग्री होगी। ऐसी, जिसे अपने प्रियजनों को एक महान प्रसंग से परिचित होने के लिए सुरक्षित रखा जाना चाहिए।

इस संदर्भ में एक और भी अनुरोध है कि यदि समय मिले और उत्साह उभरे तो अपने प्रभाव क्षेत्र में विज्ञजनों को अगले वर्ष के लिए अखण्ड-ज्योति के सदस्य बनाने के लिए भी कुछ दिन दौड़धूप कर ली जाय। आरंभ में यह कहते हुए अनख या संकोच लग सकता है, पर जिन्हें सदस्य बनाया गया है उनकी प्रतिक्रिया कुछ समय उपरांत जानी जायेगी तो वे यही कहते पाये जायेंगे कि चंदा वसूल कर हानि नहीं पहुंचायी गई वरन् उन्हें अप्रत्याशित लाभ से लाभान्वित किया गया है।


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