मनुष्य बुद्धि के, परिस्थितियों के, प्रलोभन के, माया जाल में फंसे भले ही आत्म चेतना को उस रोक को न माने, लाख पशुता करे, वह चेतना अपना काम करती रहती है। तभी तो बुरे होकर भी प्रशंसा हम भलाई की ही करते हैं, दुष्ट होकर भी विजय हम सज्जनता की ही चाहते हैं। इस प्रकार हमारे ऊपर पशुता का लाख अंधेरा छा जाये, हमारे अन्तर में देवत्व का प्रकाश ही रहता है। यही संस्कृति का दीपक है। इसी दीपक के प्रकाश की वाणी है। ‘नहि मानषात श्रेष्ठतरं हि किंचित’ मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। सभा में चार आदमियों में बैठकर जो आदमी भला लगे, जिसका व्यवहार अच्छा हो। वही सभ्य कहलाता है।
-भारतीय संस्कृति