साधना के लिए उपयुक्त साधनों की आवश्यकता

December 1981

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साधना के लिए जिस प्रकार आहार-विहार में अधिकाधिक सात्विकता का समावेश रखने की आवश्यकता है उसी प्रकार उसके लिए अनुकूल वातावरण भी उपलब्ध किया जाना चाहिए। वातावरण से तात्पर्य है उद्देश्य के अनुरूप स्थान एवं संपर्क सान्निध्य। इन दोनों का सुयोग न बन पड़ने पर विक्षेपों के घटाटोप जमते रहते हैं और प्रयत्न को अग्रगामी न होने देने वाले अवरोध पग-पग पर आ खड़े होते हैं। इसलिए शान्तिदायक स्थान और उसी तरह के लोगों का सामीप्य भी आवश्यक हो जाता है।

घर में पूर्वाभ्यास के संचित संस्कार मन पर जमे रहते हैं और वे अपने अभ्यस्त स्वरूप का परिचय निरन्तर देते रहते हैं। इसी प्रकार जिन लोगों के साथ उथले स्तर पर मेलजोल रहा है और उचित अनुचित व्यवहार चलते रहे हैं। वहीं रहते हुए पूर्वाभ्यासों की प्रभाव प्रक्रिया से बच निकलना कठिन होता है। इसलिए यदि वस्तुतः किसी ठोस परिणाम वाली साधना अभीष्ट हो तो उसके लिए अनुकूल वातावरण की तलाश भी करनी चाहिए। घर रहकर पुराने ढर्रे के- सामान्य घटिया मनोभूमि वाले लोगों के बीच निर्वाह करते हुए यह कठिन है कि दूरगामी परिणाम उत्पन्न करने वाली महत्वपूर्ण साधना बन पड़े। यों नित्य कर्म की तरह ही भगवान का नाम कहीं भी, किसी भी स्थिति में लिख जा सकता है। पर ध्यान में तो यह बात रहनी ही चाहिए कि मनोभूमि में सन्तुलन रखने एवं विक्षोभ उत्पन्न करने के वातावरण का असाधारण योगदान रहता है। उसकी अनुकूलता प्रतिकूलता अपना भला-बूरा प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती।

सम्भव हो तो इसके लिए वैसे स्थान में रहने की बात सोचनी चाहिए जैसे कि प्राचीन काल में तीर्थ नाम से प्रख्यात थे। वहाँ प्राकृतिक शोभा शान्ति भी थी। सान्निध्य रहन-सहन, प्रचलन, प्रशिक्षण की दृष्टि से भी अनुकूलता रहती थी। साथ ही परामर्श मार्गदर्शन का उपयुक्त सत्संग भी मिलता रहता था। सभी जानते हैं कि कठिन रोगों के इलाज के लिए अस्पताल में इसलिए भर्ती होना पड़ता है कि वहाँ कुशल चिकित्सक एवं उपचार साधन हर घड़ी उपलब्ध रहते हैं। स्वास्थ्य लाभ के लिए उपयुक्त जलवायु वाले सेनेटोरियमों उपचार ग्रहों में स्थान पाने की चेष्टा की जाती है क्योंकि चिकित्सा सामान्य होते हुए भी वातावरण की विशिष्टता रोग निवारण एवं स्वास्थ्य सम्पादन में विशेष सहायता करती है। साधना की यदि आत्मिकी क्षेत्र को कायाकल्प चिकित्सा माना जाय तो उसके लिए अस्पताल में-सेनेटोरियमों में भर्ती होने जैसा सुयोग्य वहाँ मिल सकता है जहाँ के वातावरण में आध्यात्मिकता का सहज समावेश विद्यमान है। जिनके पास समय या सुविधा नहीं है वे घर में थोड़ा हटकर उपयुक्त वातावरण ढूंढ़े कम से कम इतना तो करें ही एकान्त कक्ष न होने की दशा में खुली छत पर जा बैठने या पास-पड़ोस में ही कोई पार्क, उद्यान, मन्दिर, जलाशय तट जैसा स्थान खोजने का प्रयत्न करें। न मिल सके तो ‘न कुछ से कुछ अच्छा’ की नीति अपनाकर घर में भी यथा सम्भव अधिक स्वच्छता एवं निस्तब्धता बनाये रखने की चेष्टा करें। यह बात भुलाये जाने योग्य नहीं है कि साधना के लिए उपयुक्त वातावरण का सुनिश्चित महत्व रहता है।

उच्चस्तरीय साधना की दृष्टि से हिमालय की छाया और गंगा की गोद का असाधारण महत्व माना गया है। सप्त ऋषियों से लेकर मध्यवर्ती योगी तपस्वियों की सफल साधनाएँ प्रायः इसी क्षेत्र में सम्पन्न होती रही हैं। भगवान राम और उनके तीनों भाई, पारिवारिक उत्तरदायित्वों से निवृत्त होते ही आत्म-साधना के लिए अयोध्या छोड़कर हिमालय पहुंचे थे। वशिष्ठ गुफा के थोड़े-थोड़े फासले पर चारों ने अपनी-अपनी एकान्त कुटियाएँ बनाई थीं। राम देव प्रयाग में, लक्ष्मण लक्ष्मण झूला में, भरत ऋषिकेश में और शत्रुघ्न मुनि की रेती में जा बसे थे। अयोध्या में उन्हें स्थान की कमी नहीं थी, पर स्थान एवं व्यक्ति परिवार के साथ जो सूक्ष्म सम्बन्ध जुड़े होते हैं वे चित्त शोधन की प्रक्रिया में अन्त तक बाधक ही बने रहते हैं। इसलिए स्थान परिवर्तन की उपयोगिता ऐसे दिव्य प्रयोजन की कितनी अधिक होती है उसे सहज ही समझा जा सकता है।

भगवान कृष्ण ने युवावस्था में तप साधना बद्रीनाथ में की थी और वृद्धावस्था में वे समुद्र तट पर द्वारिका चले गये थे। जन्म स्थान एवं क्रीड़ा क्षेत्र मथुरा वृन्दावन इसके लिए उन्हें रुचा नहीं था। पढ़ने के लिए भी वे उज्जैन संदीपन ऋषि के आश्रम में ही रहे थे। घर में ट्यूशन लगाने या पड़ोस के स्कूल में पढ़ने से उन्हें यह बात बनती दिखाई नहीं पड़ी जो उच्चस्तरीय संस्कार सम्पादन के लिए गुरुकुलों का आश्रम लेने से ही सम्भव होती है। राम और लक्ष्मण की शिक्षा भी माता-पिता के लाड़-प्यार और सुविधा भरे राजमहल में रहकर सम्पन्न नहीं हुई थी उन्हें विश्वामित्र के आश्रम में आवश्यक शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रवेश पाना और निवास करना पड़ा था। इसी कारण कृष्ण मथुरा या गोकुल में नहीं उज्जैन संदीपन ऋषि के आश्रम में पूरी किशोरावस्था तक पड़े थे।

हिमालय के हृदय क्षेत्र का इतिहास पढ़ने से प्रतीत होता है कि भारत के अधिकांश अध्यात्मिक विज्ञानी इसी क्षेत्र में लम्बे समय तक रहकर अपनी-अपनी साधनाएँ करते रहे हैं। समस्त ऋषियों की गुफा, कन्दराएँ इसी क्षेत्र में पाई गई हैं। पाण्डवों की तरह अन्यान्य महत्वपूर्ण व्यक्ति अपनी साधना एवं प्रायश्चित्त प्रक्रिया के लिए इसी क्षेत्र में डेरा डालते हैं। गंगाजल, गंगा तट साधना की अवधि में असाधारण रूप से सहायक सिद्ध होता है। प्रसिद्ध है कि जब गंगा लेकर भागीरथ आगे-आगे चल रहे थे तो मांग में हरिद्वार के निकट सप्त ऋषि अपनी सात कुँजों में तप करते पाये गये। गंगा ने उन्हें हटाया नहीं वरन् स्वयं ही सात भागों में विभक्त होकर उनके साधना स्थलों को यथावत् रहने दिया। यह स्थान अभी सप्ती सरोवर के नाम से प्रख्यात है। शान्तिकुँज, ब्रह्मवर्चस् और गायत्री तीर्थ उसी दृष्टि से इस क्षेत्र में बनाये गये हैं कि पूर्ण संचित संस्कारों को इस भूमि से विशेष प्रभाव जुड़ा रहने के कारण साधकों की सफलता सरल होती रहे।

प्राचीन काल के ऐतिहासिक घटनाक्रमों में- उच्चस्तरीय व्यक्तियों में अपने ढंग की विशेष ऊर्जा होती है। जो उन व्यक्तियों के या घटनाओं के न रहने पर भी चिरकाल तक अपनी विशिष्टता से उस स्थान एवं क्षेत्र को प्रभावित किये रहती है। उन स्थानों के संपर्क में आने वाले भी उससे प्रभावित होते हैं। कसाईखाने, शराब गृह, चकले, जुआरियों अड्डे, श्मशान आदि जहाँ रहे होते हैं वे स्थान उन दुष्ट कर्मियों के न होने पर भी उन स्थानों पर अपनी काली छाया डाले रहते हैं और वहाँ रहने या अपने जाने वालों को उन दुष्प्रवृत्तियों को अपनाने के लिए उत्तेजित करते रहते हैं। यह बात श्रेष्ठ कृत्यों या व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी है। गुरुकुल, आरण्यक, तपोवन, ऋषि आश्रम, जहाँ किसी समय रहे थे उन स्थानों में वह पुरातन वातावरण अभी भी अपने प्रभाव का परिचय देता हुआ मिल सकता है। तीर्थ स्थान ऐसे ही ऐतिहासिक स्थानों को कहते हैं जहाँ प्राकृतिक वातावरण, पवित्र जलाशय जैसी शान्तिदायक स्थिति रहने के कारण भूतकाल के अध्यात्मवादी प्रयत्नों की श्रृंखला जुड़ी रही है। ऐसे स्थानों में सम्पन्न हुए सत्प्रयत्न चिरकाल तक अपना प्रभाव बनाये रहते हैं और उसके संपर्क में आने पर सामान्यजन अधिक लाभ उठाते हैं। इन तीर्थों का वातावरण धूर्त अनाचारियों ने भावुक धर्म प्रेमियों का शोषण करते रहने के कारण बुरी तरह बिगाड़ दिया है। जनसंख्या बढ़ने, व्यवसायिक क्षेत्र एवं पर्यटन केन्द्र बनने से वह पुरातन उत्कृष्टता नहीं रही तो भी पुरातन ऊर्जा इतनी प्रचण्ड है कि अवाँछनीयता बढ़ जाने पर भी विशेषताएँ अभी भी अन्यत्र की तुलना में कहीं अधिक पाई जा सकती हैं। साधना के लिए ऐसे ही स्थान चुने जा सके तो सामान्य स्थानों की तुलना में अधिक सफलता मिलने की सम्भावना रहती है।

साधक का आहार अपने आप में एक साधना है। आरोग्य क्षीण होने पर आयुर्विज्ञान के निष्णात उन्हें दूध-कल्प, छाछ-कल्प, आम्र-कल्प आदि आहार विशेष पर रखकर शरीर शोधन कृत्य करते हैं। इसी प्रकार खाद्य पदार्थों के अन्तराल में रहने वाली चेतना शक्ति को ध्यान में रखते हुए साधकों को आहार में कुछ विशिष्ट वस्तुओं का समावेश करके उन्हें पकाने का विशेष उपक्रम बनाकर ऐसी स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसमें वह आहार ही एक प्रकार के आध्यात्मिक काय-कल्प का आधार बन सके। यज्ञीय धान्यों में तिल, जौ, चावल की प्रमुखता है। इन्हें हविष्यान्न भी कहते हैं। इन पर अवलम्बित रहकर भी एक प्रकार के साधना का लाभ उठाया जा सकता है। अस्वाद व्रत, शाकाहार, फलाहार, एक समय का भोजन, दो वस्तुओं पर निर्भर रहना जैसे कितने ही उपवास तप के छोटे-बड़े प्रयोजन हैं, उनमें से साधक की स्थिति के अनुरूप निर्धारण किये जाते हैं। किस ईंधन से पकाया जाय, पकाने और परोसने वाले के संस्कार कैसे होंगे यह सब बातें भी साधक की आत्म-सत्ता को प्रभावित करती हैं।

जहाँ जैसे लोगों का बाहुल्य होता है वहाँ का प्रत्यक्ष और परोक्ष माहौल भी वैसा ही बन जाता है। व्यक्ति विशेष की विद्युत शक्ति दूसरों को प्रभावित करती है। समर्थ व्यक्ति अपने से कमजोरों पर छाप छोड़ते हैं। यह मानवी विद्युत के चमत्कार संगति के प्रभाव बनकर सर्वत्र अपनी क्षमता का परिचय देते पाये जाते हैं। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए प्रचण्ड प्राण ऊर्जा सम्पन्न व्यक्तियों के निकट रहकर उच्चस्तरीय प्रेरणाएँ तथा सामर्थ्यें अनायास ही पाते रहने का सुयोग प्राप्त किया जा सकता है। तीर्थों की एक बड़ी विशेषता यह थी कि वहाँ निवास करने वाली प्रतिभाएँ परामर्श शिक्षण से ही नहीं अपनी प्रचण्ड ऊर्जा से भी संपर्क में आने वालों को महत्वपूर्ण अनुदान अनायास ही हस्तान्तरित करती रहती थीं। इन दिनों भी उन उपलब्धियों का सर्वथा अभाव नहीं हुआ है। तलाश करने पर ऐसे उत्कृष्टता भरे स्थान एवं वातावरण अभी भी उपलब्ध हो सकते हैं जिनके सहारे साधना को अपेक्षाकृत अधिक सरलता से सफल बनाया जा सके।

इस प्रकरण में साधनों, व्यक्तियों, स्थानों, उपकरणों का उल्लेख किया गया है जो साधना को समर्थ बनाने में काम आ सकते हैं। आवश्यक नहीं कि वे वैसे ही हों जैसा कि उन्हें होना चाहिए। इस अभाव की पूर्ति अपनी सघन श्रद्धा को आरोपित करके भी की जा सकती है। एकलव्य ने मिट्टी के द्रोणाचार्य और मीरा ने पत्थर के कृष्ण बनाये और सर्व समर्थ बने थे। स्वतः समर्थ सहायक मिल कसे तो प्राथमिकता उन्हें ही देनी चाहिए यदि न मिलें तो अपनी श्रद्धा का आरोपण करके भी उन्हें प्रभावोत्पादक बनाया जा सकता है, विश्वास के आधार पर झाड़ी से भूत बन सकता है तो कोई कारण नहीं कि सामान्य साधन उपकरणों एवं व्यक्तियों को भी इस योग्य बनाया जा सकता है कि वे अपने वास्तविक मूल्य की तुलना में विशिष्ट साधक के लिए विशिष्ट चमत्कार प्रस्तुत कर सके।

इस प्रकार स्वाध्याय, सत्संग, मनन-चिन्तन के माध्यम से चिन्तन प्रक्रिया एवं भाव संवेदना के क्षेत्र में निकृष्टता के निराकरण एवं उत्कृष्टता के संस्थापन, अभिवर्धन की प्रक्रिया सहज गति से चलती रहती है। इस आधार पर बनायी गयी स्वनिर्मित चेतना को प्रभावित करने वाला विचार वातावरण उत्कृष्टता संवर्धन में ऐसा चमत्कार दिखता है मानो वह किसी अन्य लोक से, समर्थ देवता या सिद्ध पुरुष द्वारा वरदान की तरह दिया गया है।


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