मानवी काया आत्मविज्ञान की बहुमूल्य प्रयोगशाला

December 1981

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संसार में अब तक मनुष्य कृत जितने भी यन्त्र उपकरण बने हैं उन सब की तुलना में सृष्टा की अनुपम संरचना ‘मानवी काया’ हर दृष्टि से अत्यधिक अद्भुत एवं आश्चर्यजनक है। इसका एक-एक कण इतनी विशेषताओं से युक्त है कि उसकी गरिमा बखानने- यश गाथा गाने का कभी अन्त नहीं हो सकता। कर्म कौशल और बुद्धि वैभव में अपनी विशिष्टता सिद्ध करने वाले असंख्यों व्यक्ति समय-समय पर होते रहते हैं, उनकी सूझ-बूझ, साहसिकता एवं तत्परता देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। इसी प्रकार जिस सृजनकर्ता के इस कलेवर के हर घटक को जितनी क्षमताओं से भर दिया है उसे देखकर उसकी कलाकारिता को देखकर दंग रह जाना पड़ता है। विज्ञान के उच्चस्तरीय प्रयोजनों में काम आने वाले कम्प्यूटर- अणु विखण्डक अन्तरिक्षीय संप्रेषण सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं, उप इन सब में प्रयुक्त हुए समन्वित कौशल की तुलना में मानवी काय कलेवर की संरचना हर दृष्टि से अनुपम है। शरीर का प्रत्येक अवयव असाधारण रूप से लचीला-तालमेल बिठाकर चलने वाला सहनशील एवं सक्षम है कि उसे अपने ढंग का अनोखा ही कह सकते हैं। मस्तिष्कीय विशेषताएँ तो और भी अधिक अनिर्वचनीय हैं। लोक व्यवहार में चतुर प्रतिभाशाली लोगों की बुद्धिमत्ता, योग्यता उन्हें कहाँ से कहाँ उठा ले जाती है। असंख्यों को अपने प्रभाव में बहाती और वातावरण को आश्चर्यजनक परिवर्तन प्रस्तुत करती है। इतने पर भी मनःशास्त्रियों के अनुसार तीक्ष्ण से तीक्ष्ण बुद्धि वाले की विशिष्टता समूची मस्तिष्कीय क्षमता का मात्र सात प्रतिशत ही होता है। मस्तिष्कीय संरचना एवं विशेषताओं के बारे में जो खोजा गया है उसे अधिक से अधिक तेरह प्रतिशत कहा जा सकता है। इससे आगे के रहस्य अभी पर्दे के पीछे छिपे पड़े हैं। प्रकृति के भंडार से अभी बहुत कुछ खोजना बाकी है इसी प्रकार मस्तिष्क के रहस्यों, कौशलों एवं शक्ति स्त्रोतों के सम्बन्ध में भी अभी अटकलें ही लगाई जा सकी हैं। समझा यह जाता है कि पदार्थ जगत की मूर्धन्य संरचना मनुष्य की काया है और ब्रह्माण्डीय चेतना के परोक्ष वैभव का प्रत्यक्ष प्रतीक प्रतिनिधि मानवी मस्तिष्क है। इससे श्रेष्ठ और अगणित स्तर की संभावनाओं से भरे-पूरे यन्त्र उपकरण बनाने में मनुष्य कदाचित सदा ही असमर्थ रहेगा। अणु और विभु के मध्यान्तर की कोई सीमा नहीं। इसी प्रकार मनुष्य और परब्रह्म के वर्चस्व और कर्त्तव्य को भी समकक्ष होने का अवसर संभवतः कभी भी नहीं आ सकेगा।

यह चर्चा इसलिए की जा रही है कि भौतिकी की तरह जब आत्मिकी की खोज और प्रक्रिया में बहुमूल्य यन्त्रों वाली प्रयोगशाला की आवश्यकता पड़ेगी तो वह कहाँ से जुटाई जायगी? प्रसन्नता की बात है कि इस प्रयोजन की आवश्यकता उपयोगिता हर व्यक्ति के लिए अनुभव करते हुए एक समूचा संयन्त्र उसके सुपुर्द कर दिया है। समूचा संयन्त्र और उसके विभिन्न अवयवों के माध्यम से वे सभी प्रयोग पराक्रम सम्भव हो सकते हैं जो अध्यात्म ऊर्जा उत्पन्न करने से लेकर उसे अभीष्ट प्रयोजनों में कार्यान्वित किये जाने हैं। इसके लिए कहीं अन्यत्र से कोई स्थापना करने, साधन जुटाने की किसी को भी आवश्यकता नहीं है। इसी यन्त्र में थोड़ी फेर बदल करके- थोड़ा सधा, समझाकर इस योग्य बनाया जा सकता है कि उसमें आत्मिक प्रगति के लिए आवश्यक सभी प्रयत्न उतने दायरे में ही सम्पन्न होते रहें।

उदाहरण के लिए प्रेत विद्या में काम आ सकने योग्य यदि कायिक प्रयोगशाला में ढालना हो तो उसके लिए अपने आहार-बिहार, रहन-सहन, चिन्तन, कृत्य, व्यवहार रुझान इस प्रकार का बनाना पड़ेगा, जिससे वह उपयुक्त प्रयोजन में ठीक तरह काम दे सकने योग्य बन सके। प्रेत आह्वान उतना कठिन नहीं है जितना कि उसके लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण। यदि शरीर और मन का स्तर तद्नुकूल बना लिया गया तो समझना चाहिए कि तीन चौथाई मंजिल पार हो गई। अघोरी या पालिक प्रेत-सिद्ध अपने प्रयोग का आरम्भ यहीं से करते हैं। कि उनकी काय सत्ता प्रेतों के लिए आकर्षक अनुकूल एवं अनुरूप बन सके। साधना अपने आपे की करनी पड़ती है। जिस स्तर की सफलता पानी है उसी प्रकार का सरंजाम जुटाना पड़ता है। वातावरण ढूंढ़ना पड़ता है और मन का रुझान तथा दिनचर्या का निर्धारण तद्नुरूप करना पड़ता है। पहलवान, कलाकार, वैज्ञानिक, फौजी स्तर से विशिष्ट उद्देश्य वाले व्यक्ति अपने ही गोरख धन्धे में उलझे रहते हैं। मन और शरीर को उन्हीं कार्यों में जोते रहते हैं। महत्वपूर्ण सफलताओं का मार्ग भी यही है।

‘साधना से सिद्धि’ के सिद्धान्त का रहस्य उतना ही है कि साधक अपनी शारीरिक और मानसिक गतिविधियों को इस प्रकार की बनाता है जिससे उसका व्यक्तित्व शक्तिशाली चुम्बक की तरह अभीष्ट सफलता को अपनी ओर खींच घसीट लाने में समर्थ हो सके। इस संसार में हर पदार्थ या हर जीव अपने लिए जहाँ भी अनुकूलता, सुविधा देखता है उसी ओर खिंचता दौड़ता चला जाता है। फूलों के उद्यान में ये तितलियाँ, भौंरे, मधुमक्खियाँ न जाने कहाँ से पता लगाते, रास्ता नापते, बिना बुलाये दौड़ते चले आते हैं। मरी लाश को पड़ी देखकर आसमान से चील, कौए उतरते ओर जमघट लगाते देखे गये हैं। कुत्ते और सियार भी न जाने कहाँ से आकर उसी लाश पर चढ़ दौड़ते हैं। नाले नदी में, नदी समुद्र में पहुँचने के लिए स्वयं दौड़ लगाते हैं क्योंकि उन्हें वहाँ अपने लिए अनुकूल आश्रय दिखता है। शराब की दुकानों पर नशेबाज जमे रहते हैं और जुआ घरों में जुआरी, साधू संतों की भी जमातें जुड़तीं और सत्संग चलते हैं। कुचक्री तक अपने गिरोह बनाते ओर षड़यंत्र रचते रहते हैं। पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण आकाश से न जाने क्या-क्या पकड़ता घसीटता रहता है। बादलों को बरसने के लिए विवश करने से लेकर उसकी परत पर जमते रहने वाले पदार्थ यह बताते हैं कि वे स्वेच्छापूर्वक यहाँ नहीं आये वरन् उन्हें किसी ने खींचा घसीटा है।

साधना के पीछे यही सिद्धान्त काम करता है। उच्चस्तरीय दैवी शक्तियों का किसी व्यक्ति विशेष की ओर अकर्षित करना- अनुग्रह बरसाना, सहयोग देना, अनुकूल होना केवल एक बात पर निर्भर है कि उनके स्तर की अनुकूलता उत्पन्न हुई या नहीं।

मनुष्य की संरचना एवं समर्थता महान है। तो भी वह पूर्ण नहीं है। जीवनचर्या में पग-पग पर उसे दूसरों की सहायता लेकर काम चलाना पड़ता है। अन्न, वस्त्र, पुस्तक, कलम, माचिस, लैम्प जैसी छोटी-छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति में वह स्वावलम्बी नहीं है। आत्मिक प्रगति के लिए तो उच्चस्तरीय सहयोग की यह अपेक्षा और भी अधिक रहती है। स्वाध्याय, सत्संग में गुरुजनों का अनुग्रह चाहिए अदृश्य लोक की देव शक्तियाँ भी उस उत्थान में अपना भावभरा सहयोग प्रस्तुत करती हैं। ब्रह्म चेतना की अनुकूलता एवं अनुकम्पा आवश्यक होती है। वह ऊपर से बरसती है या भीतर से उछलती है यह प्रश्न उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि यह निर्धारण कि ऊँचा उठने के लिए कोई न कोई सहारा चाहिए भले ही वह नीचे से उचक्का कर दिया गया हो या ऊपर से खींचकर। साधना से सिद्धि प्राप्त करने में जो जिन विभूतियों का सहयोग मिलता है वे निश्चय ही सामान्य स्तर की होती हैं।

साधना अर्थात् जीवन साधना। जीवन साधना अर्थात् आदतों, मान्यताओं एवं आकाँक्षाओं को साध लेना। वैसा जैसा कि घोड़े बैल आदि को सधाकर अनगढ़ आदतों से विरत किया और उपयोगी कार्यों में लगने के लिए अभ्यस्त किया जाता है। शेर, हाथी, रीछ, बन्दर, साँप भी प्रकृतितः मनुष्य के सहयोगी कहाँ होते हैं। उन्हें नरम-नरम करके सरकस तमाशों में ऐसे कौतूहल दिखाने में प्रवीण कर लिया जाता है जो आश्चर्यचकित करते और उनकी मूल प्रकृति के सर्वथा विपरीत होते हैं। पेड़-पौधों में कलम लगना, उन्हें काट छाँटकर नयनाभिराम बनाना एक प्रकार से माली की साधना ही कही जायगी। आदिकाल की ऊबड़-खाबड़ धरती और आज की समतल उपजाऊ स्थिति के बीच आश्चर्यजनक अन्तर देखकर यही कहा जायेगा कि धरती को मनुष्य के लिए अधिक उपयोगी बनने के लिए प्रयत्न पूर्वक सधाया गया है। अन्न, फल, शाक, जूट, कपास आदि खाद्य स्वभावतः इस प्रकार नहीं उगते थे और वैसे नहीं होते थे जैसे कि आज हैं। वनस्पतियों को सुव्यवस्थित बनाने में मनुष्य को लम्बी अवधि से साधना करनी और करानी पड़ रही है। वही सब कुछ मनुष्य को अपने आपे की साधना में भी करना पड़ता है। चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते हुए- विकास क्रम को एक के बाद दूसरी सीढ़ी पार करते हुए- मनुष्य आगे उठता ऊँचा चढ़ता तो आया है किन्तु अभी उस स्तर तक नहीं पहुँचा है कि सभ्य संसार का सुसंस्कृत नागरिक कहला सके। ऐसी दशा में उसे बौना, कुबड़ा, पिछड़ा, उथला बनकर रहना पड़ रहा है। मानवी गरिमा के उपयुक्त उसका व्यक्तित्व ढले इसके लिए वैसा ही प्रयत्न करने की आवश्यकता पड़ेगी जैसी कि कुशल माली, मदारी अपने-अपने यजमानों से निपटते हैं और उन्हें बलपूर्वक इच्छित स्थिति में बदलने के लिए साधते हैं।

जन्म-जन्मान्तरों की संग्रहित पशु प्रवृत्तियाँ बड़ी हठीली होती हैं। समझाने बुझाने पर भी किसी न किसी बहाने अपना ढर्रा अपनाये रहने के लिए रास्ता बना लेती हैं। इनसे निपटना-अनगढ़ को सुगढ़ बनाना इतना महत्वपूर्ण कार्य है कि उसके कष्टसाध्य होते हुए भी करने के लिए दूरदर्शिता को भरसक प्रयत्न करना पड़ता है। वह कदम ऐसा है जो हर प्रगतिशील के अनिवार्यतः उठाना ही चाहिए।

लौकिक जीवन में सफल सम्मानित रहने के लिए ही नहीं व्यक्तित्व को वजनदार-बहुमूल्य बनाने के लिए जीवन साधना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। यों अनगढ़ लोग भी अपनी कुसंस्कारिता बनाये रहकर, अनैतिक तारकों से कुछ न कुछ कमा ही लेते हैं किन्तु स्मरणीय यह है कि वे बड़े आदमी कहलाने पर भी आत्म-संतोष, लोक-सम्मान एवं दैवी अनुग्रह की तीनों ही विभूतियों से वंचित रहते हैं। अनीति उपार्जन एवं उद्धत उपभोग उनके लिए आत्म-प्रताड़ना से लेकर आधि-व्याधि लेकर भर्त्सना और ईश्वरीय दण्डों से आयेदिन पीड़ित ही होते रहते हैं। इस प्रकार दूसरों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करने वाला होते हुए भी वह वैभव अन्ततः बहुत महंगा पड़ता है और सिकन्दर, रावण, हिरण्यकश्यप आदि की तरह उस पर पश्चाताप ही करना पड़ता है।

जीवन देवता की-गौरवशाली व्यक्तित्व की-साधना करने से-मनुष्य को इसी हाड़-माँस की काया में रहते हुए देव स्तर का बन सकने का सुयोग मिलता है। परीक्षा अच्छे नम्बर लाने के अतिरिक्त प्रामाणिकता सिद्ध करना और तद्नुरूप पद पाना कठिन है। महामानवों, सिद्ध पुरुषों, ऋषियों, देवदूतों की बिरादरी का हर सदस्य उसी परीक्षा में उत्तीर्ण होने के उपरान्त गौरव भरी विशिष्टता उपलब्ध करता रहा है।


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