चान्द्रायण काल की पुरश्चरण साधना

December 1981

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चान्द्रायण अवधि में उपवास, भूमि शयन, शरीर सेवा में स्वावलम्बन जैसी कई तप-तितिक्षाएं करनी पड़ती हैं। साथ ही इन्हीं दिनों सवा लक्ष गायत्री पुरश्चरण करना होता है। पुरश्चरण के विधि-विधान गायत्री महाविज्ञान में विस्तारपूर्वक लिखे जा चुके हैं। उनका विस्तार विवरण इन थोड़ी पंक्तियों में सम्भव नहीं। फिर वे कई प्रकार के भी हैं। उनमें से किस प्रक्रिया के साथ उसे सम्पन्न किया जाय यह व्यक्ति विशेष की मनःस्थिति एवं परिस्थिति का विवेचन विश्लेषण करने के उपरान्त ही निर्धारण किया जाता है। अनुष्ठान के सामान्य नियम तो सर्वविदित हैं ही किंतु चान्द्रायण काल का साधना विशेष उद्देश्य से की जाती है और उच्चस्तरीय भी होती है। इसलिए उसका अन्तिम स्वरूप निर्धारित करने के लिए साधक के साथ विचार-विनिमय आवश्यक होता है।

सामान्यतया इतना जान लेने से काम चल सकता है कि चान्द्रायण साधक को हर दिनों 42 माला जप करके एक महीने में सवालक्ष अनुष्ठान पूरा करना होता है। इसमें प्रायः चार घण्टे लगते हैं जो दो या तीन बार में भी पूरे किये जा सकते हैं। प्रयत्न यह होता है कि भोजन से पूर्व अधिकांश संख्या पूरी हो सके।

जप जिह्वा से होता है अस्तु वह शारीरिक श्रम प्रधान है। माला की गणना भी शरीर से ही होती है। साधना में मन को भी काम देना होता है। उसे एकाग्र होने के लिए साधना पड़ता है। यह कार्य ध्यान धारणा को जप के साथ लेकर चलने से ही सम्पन्न होता है। इससे एकाग्रता का सहज अभ्यास होता है और मन भागने की जो आम शिकायत रहती है उसका समाधान होने लगता है। एकाग्रता की शक्ति का अध्यात्म शास्त्र में अत्यधिक महत्व बताया गया है। यह उपलब्धि ध्यान धारणा की है। मात्र जप भर कने में तो जिह्वा का उपयोग होता है और उसे परिष्कृत करने का लाभ मिलता है। सम्बन्धित चक्र उपत्यिकाओं के जागरण में भी सहायता मिलती है, पर एकाग्रता का लाभ नहीं मिल पाता। मन की चंचलता बनी ही रहती है। इसका एक ही उपाय है मंत्राराधन के साथ-साथ ध्यान धारणा जोड़े रहना। मनःमस्तिष्क को काम मिलता रहे तो वह अनावश्यक उछल-कूद में क्यों दौड़े? जप के साथ ध्यान धारणा चलती रहे तो उस अवधि में एकाग्रता का लाभ भी मिलता रहेगा, साथ में मनःसंस्थान को हेय प्रयोजनों में निरत रहने के स्थान पर उच्चस्तरीय तथ्यों के साथ तादात्म्य होने का अभ्यास भी बढ़ता रहेगा।

आद्य शक्ति, ऋतम्भरा, महाप्रज्ञा गायत्री ही है। उसे ब्रह्म विद्या भी कहा गया है। वेदमाता, देवमाता, विश्वमाता के रूप में उसकी शक्ति, सामर्थ्य और प्रेरणाओं से सभी अवगत हैं। गायत्री महाशक्ति की सवालक्ष पुरश्चरण जैसी उच्चस्तरीय साधना को विधिवत् किया जा सके तो उसके प्रतिफल वैसे ही हो सकते हैं जैसे कि सप्त ऋषियों को प्राप्त हुए थे। गायत्री के ऋषि विश्वामित्र ने नई दुनिया बसाने- नया जमाना लाने की हरिश्चन्द्र के सहयोग से एक विश्व योजना बनाई थी। यह बल एवं साधन उन्हें आद्य शक्ति की आराधना से ही प्राप्त हुआ था। विश्वामित्र ने अपनी तप सम्पदा राम लक्ष्मण को बला अतिबला विद्या के नाम से प्रदान की थी। यह गायत्री और सावित्री के ही दो उपनाम हैं। इन्हीं के बल पर वे असुर विनाश और धर्म राज्य संस्थापन के उभय प्रयोजनों में सफल हुए थे। चौबीस अवतार गायत्री के चौबीस अक्षरों के रहस्यों को ही प्रकट करते हैं। दत्तात्रेय के चौबीस गुरुओं के नाम से गायत्री के चौबीस अक्षरों की ही गरिमा का विवेचन किया गया है।

गायत्री को असीम शक्ति की अनुकम्पा प्राचीनकाल के देवमानवों को कृतकृत्य करती रही है। अभी भी ऐसे व्यक्तित्व जीवित हैं जिनकी क्षमता असंख्यों को उठाने, बढ़ाने, उबारने, संभालने में चमत्कार प्रस्तुत करती है।

गायत्री साधना में मन्त्र विद्या के साथ जुड़े हुए अन्यान्य उपक्रमों को जोड़े देने से वह ब्राह्मी शक्ति के रूप में प्रकट होती है। अग्नि की सामर्थ्य तो सर्वविदित है, पर उसे प्रज्वलित देखने में सूखे ईंधन की आवश्यकता तो रहेगी ही। साधक की तत्परता, तन्मयता ईंधन का काम देती है। शरीर से तप करना होता है और मन को इष्ट में समर्पित किये रहना होता है। यही ध्यान धारणा है। इस ध्यान धारणा के बहिर्मुखी एवं अंतर्मुखी दोनों ही पक्षों का संक्षिप्त विवेचन इन पंक्तियों में किया जा रहा है। चान्द्रायण काल की प्रज्ञा योग साधना के क्रमिक विस्तार अगले साधकों में प्रकाशित होते रहेंगे।

ध्यान एक प्रकार का दिव्य दर्शन है। उसके साकार निराकार दोनों पक्ष हैं। गायत्री माता को साकार और सविता देव में अरुणोदय स्वरूप से तादात्म्य को निराकार ध्यान करते हैं। यह दो ध्यान बहिर्मुखी हैं। इनमें बाहर से भीतर के प्रवेश के लिए आकर्षण किया जाता है। गायत्री माता का अमृतोपम पयपान अथवा सविता देव का ऊर्जा अनुदान- यह दोनों ही बाहर से भीतर प्रवेश करने वाले आधार हैं।

माता का दूध पीकर जिस प्रकार बालक प्रसन्न पुष्ट होता है उसी प्रकार साधक को प्रज्ञापुत्र होने और सीता के लव-कुश, शकुन्तला के भरत, गंगा के भीष्म, कुन्ती के अर्जुन, अंजनी के हनुमान बनने की मान्यता परिपुष्ट करनी होती है। यह आस्था जितनी प्रगाढ़ होती है उसी के अनुरूप न केवल भावनात्मक अनुभूति वरन् उपलब्धियों की प्रतीति भी होती है।

सविता का ध्यान सर्वभौम है। नेत्र बन्द करके प्रभातकालीन स्वर्णिम सूर्य का ध्यान। उसकी सुनहरी किरणों का साधक के कण-कण में प्रवेश। उस प्रवेश से स्थूल शरीर में निष्ठा, सूक्ष्म शरीर में प्रज्ञा और कारण शरीर में श्रद्धा का उद्भव। आलोक से समूची आत्मसत्ता प्रकाशवान। ऊर्जा से काया का कण-कण अनुप्राणित। अपने स्वरूप की प्रकाश-पुँज, अग्नि-पिण्ड जैसी अनुभूति। उस अनुदान से पवित्रता एवं प्रखरता की अभिवृद्धि। इसे निराकार ध्यान भी कहा जाता है। मानवी छवि का समावेश न होने से सूर्य के साकार होते हुए भी उसका ध्यान निराकार गिना जाता है। वह सर्वभौम एवं सार्वजनीन भी है।

भीतर से बाहर उभरने वाले- अंतर्मुखी ध्यानों में आज्ञा चक्र, हृदय चक्र और मूलाधार चक्र के जागरण को प्रमुखता दी जाती है। यों हठयोग के अंतर्गत छः चक्रों का वर्णन है। किन्तु प्रज्ञा योग में त्रिपदा गायत्री के तीन केन्द्रों को ज्योतिर्मय बनाने से काम चल जाता है।

आज्ञा चक्र को तृतीय नेत्र कहते हैं। इसके आलोक में मस्तिष्कीय क्षेत्र में सन्निहित मन, बुद्धि और चित्त को उत्कृष्टता की दिशा में उभारा जाता है। मन के संकल्प, बुद्धि के निर्धारण एवं चित्त के विश्वास सजग होते हैं और अधोगामी प्रवाह को उलटकर ऊर्ध्वगमन के लिए सहमत होते हैं तो तीनों का स्तर कहीं से कहीं पहुँचने लगता है। दूरदर्शी विवेकशीलता उभरती है तो व्यक्तित्व के वर्तमान स्वरूप तथा भावी कार्यक्रम में भारी परिवर्तन की आवश्यकता अनुभव होती है। साथ ही यह भी अन्तःप्रेरणा के आधार पर सूझता है कि उस उत्क्रांति के लिए किस प्रकार क्या किया जाना चाहिए। अतीन्द्रिय क्षमताओं का केन्द्र भी आज्ञाचक्र है। अदृश्य दर्शन, दूर श्रवण, भविष्य कथन, विचार संचालन, प्राण प्रत्यावर्तन, आकर्षण, विकर्षण जैसी सिद्धियों का भण्डार आज्ञाचक्र ही है। इस तीसरे नेत्र में जब ज्योति का अवतरण होता है तो अदृश्य जगत में प्रवेश करके बहुत कुछ जानने, देखने, कुरेदने और उखाड़ने समेटने को मिल जाता है जो साधारणतया अविज्ञात ही बना रहता है। शिवजी का, दुर्गा का तृतीय नेत्र किस प्रकार समय-समय पर आग उबलता रहा है उसे कथा-पुराणों का पठन श्रवण करने वाले ही जानते हैं। किन्तु आज्ञा चक्र के ज्योतिर्मय होते-होते सामान्य साधक भी यह अनुभव करने लगते हैं कि उन्हें कुछ विशेष सूझ-बूझ उपलब्ध हो रही है। ऐसी विशेष, जैसी आमतौर से सर्वसाधारण को उपलब्ध नहीं ही होती।

हृदय चक्र को ब्रह्म चक्र या सूर्य चक्र भी कहते हैं। यह दोनों पसलियों के मध्य है। योगीजन आत्मा-साक्षात्कार यहीं करते हैं। ईश्वर की प्रकाश ज्योति भी यहीं प्रकट होती है। जिस अंगुष्ठ मात्र ब्रह्म ज्योति का स्वरूप एवं महात्म्य उपनिषदों में स्थान-स्थान पर वर्णन किया गया है उसका निवास इसी केन्द्र में है। यह बुझा हुआ दीपक जब जलता है तो तथाकथित ‘अलादीन के चिराग’ जैसा बहुत कुछ अद्भुत दीखने लगता है। अर्जुन को जिस ज्ञान चक्षु के खुलने पर विराट् ब्रह्म क दर्शन हुए थे वह आज्ञा चक्र का नहीं हृदय चक्र का प्रसंग है।

यहाँ हृदय शब्द का अर्थ रक्त संचार में प्रयुक्त होने वाला पम्प नहीं समझना चाहिए वरन् उस अन्तःकरण का, अन्तरात्मा का केन्द्र समझना चाहिए जिसमें सहृदयता भरी रहती है। सहृदयता का अर्थ है- भाव संवेदना, कोमलता, करुणा, पवित्रता, श्रद्धा, आत्मीयता, उदारता। यह मस्तिष्कीय सामर्थ्य से सर्वथा भिन्न एवं नितान्त उच्चस्तरीय दिव्य क्षमता है। जिसे देवत्व की प्रतीक, प्रतिनिधि, जन्मदात्री, अधिष्ठात्री कहा जा सकता है। मान्यताएँ, आस्थाएँ, आकाँक्षाएँ इसी केन्द्र में निवास करती हैं। आत्मा और परमात्मा के मिलन की सुहाग शय्या इसी अन्तःपुर में बिछी हुई बताई गई है। व्यक्तित्व की जड़ें इसी क्षेत्र में गहराई तक घुसी होती हैं। प्रेरणाओं का उद्गम यही है। इसके जागरण से आध्यात्मिक क्षेत्र की उन विभूतियों को हस्तगत करने का अवसर मिलता है जिन्हें ऋद्धियों के नाम से जाना जाता है।

तीसरा चक्र है मूलाधार। इसे नाभि चक्र, प्राण चक्र, प्रसुप्त सर्प कुण्डलिनी केन्द्र भी कहते हैं। इसके स्थान निर्धारण में मलमूत्र छिद्रों के मध्य केन्द्र की चर्चा होती रहती है। वस्तुतः सुषुम्ना का अन्तिम सिरा उस स्थान से काफी ऊँचा पड़ता है और वह लगभग नाभि की सीध में जा पहुँचता है। मूलाधार का ध्यान करने में जननेन्द्रिय का बार-बार स्मरण आने से कामोत्तेजना उत्पन्न होती है और ऊर्ध्वगमन में अवरोध व्यतिरेक उत्पन्न होता है। इसलिए वहाँ तक पहुँचने के लिए नीचे से ऊपर चलने की अपेक्षा बगल के दरवाजे से प्रवेश करना अधिक उत्तम है। यहाँ मूलाधार और नाभिचक्र की एकता का दिग्दर्शन कराया जा रहा है। प्रज्ञा योग में मूलाधार को नाभिचक्र अथवा प्राणचक्र के नाम से पुकारा जाता है।

कुण्डलिनी, षट्चक्र, मेरुदण्ड, महासर्प, सहस्रार की चर्चा आकर्षक प्रतिपादनों एवं विवरणों के साथ कही सुनी जाती है। उस समूचे प्रसंग को नाभिचक्र से सम्बन्धित समझा जाना चाहिए। इस विज्ञान को प्राण विज्ञान कहना चाहिए। प्राण को जीवन्त ऊर्जा माना गया है। संक्षेप में इसे प्रतिभा कह सकते हैं। साहस, पराक्रम, जीवट, उल्लास, उमंग जैसी सचेतन विद्युत धाराएँ इसी केन्द्र से उभरती उफनती रहती हैं। बलिष्ठता, समर्थता, प्रखरता जैसी विशेषताएँ इसी उद्गम का द्वारा खोल देने पर उमँगने, उछलने लगती हैं। इसी का उथला-सा परिचय कामुकता की सरसता और प्राणवान प्रजनन की क्षमता में देखा जा सकता है। दाम्पत्य जीवन और सुप्रजनन की सफलता से इस केन्द्र का सीधा सम्बन्ध है।

औषधि विज्ञान की तरह साधना विज्ञान का भी एक स्वतन्त्र शास्त्र है। चिकित्सा उपचार में रोगियों की स्थिति का विशेष रूप से ध्यान रखना होता है, उसी प्रकार श्रेयार्थियों के लिये भी अनुभवी मार्गदर्शन अमुक साधना अथवा कई योग प्रयोजनों का सम्मिश्रण करके ऐसा निर्धारण करते हैं जो अभावों की पूर्ति एवं उलझनों से निवृत्ति करा सकने में समर्थ हो सके। मेरुदण्ड में प्रवाहित त्रिविध शक्ति धाराओं- इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना में से किसे किस शरीर को प्रधानता देनी है, किसे किस क्षेत्र में प्रवेश करना है, वे इन्हीं तीनों के साथ अपना तादात्म्य बिठाते हैं। इन्हीं तीनों को तीन लोकों में प्रवेश पाने के तन राजमार्ग कहते हैं। भूलोक इड़ा से, भुवः लोक पिंगला से और स्व लोक सुषुम्ना से सम्बन्धित माना गया है। इन तीनों का समग्र स्वरूप त्रिपदा गायत्री के रूप में बनता है।

गायत्री मन्त्र प्रधान है ‘उसमें शब्द शक्ति का अवलम्बन लेकर तीन शरीरों में सन्निहित तीन शक्ति स्त्रोतों के साथ सम्बन्ध बनाया जाता है। मन्त्र योग के समस्त उपचार शब्द शक्ति पर आधारित हैं जिसमें निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त तीनों लोकों व पिण्ड के सूक्ष्म शक्ति केन्द्रों के मध्य गठबन्धन की प्रक्रिया सम्पादित होती है। विज्ञान के छात्र जानते हैं कि ऊर्जा के अनेक विभाजनों में ताप, ध्वनि और प्रकाश की तरंगों को प्रमुखता दी गयी है। इन तीनों का रूपांतरण विभिन्न स्तर के परमाणुओं और जीवकोषों में होता रहता है। पदार्थ जगत में पाँच तत्वों को और चेतन जगत में पाँच प्राणों का अधिपत्य है। इन दोनों ही क्षेत्रों में गतिविधियाँ जिस ऊर्जा के बलबूते चलती रहती हैं- उनमें से एक अति महत्वपूर्ण है- ‘ध्वनि’। इसी को अध्यात्म तत्वज्ञानी ॐकार के रूप में अधिग्रहण करते हैं। ॐकार से भूः, भुवः, स्वः तीन व्याहृतियाँ और इनमें से प्रत्येक से तीन-तीन शब्द निस्सृत होने पर नौ शब्द वाली- चौबीस अक्षरों वाली गायत्री का महामन्त्र बन जाता है। सामान्यतया इसे हंसवाहिनी, आदिशक्ति के रूप में- सविता के भर्ग ‘ब्रह्मवर्चस्’ में तथा महाप्रज्ञा की ध्यान धारणा में अपनाया और हृदयंगम किया जाता है। इतने पर भी यह मानकर चलना चाहिए कि गायत्री का तत्वज्ञान और प्रयोग विधान जिस धारा से प्रभावित होता है वह ब्रह्म विद्या ‘शब्द’ परक है। मन्त्रयोग का रहस्य यही है। उसकी समस्त विधि व्यवस्था ‘शब्द शास्त्र’ के अंतर्गत समझी समझाई जा सकती है।

आत्मा और परमात्मा के बीच सम्बन्ध बनाने के लिए साधनात्मक प्रयोजनों में शब्द शक्ति का ही प्रयोग करना पड़ता है। जप, स्तवन कथा, मन्त्रोपचार, पाठ-कीर्तन, प्रवचन, आशीर्वाद, अभिचार आदि में शब्द का ही किसी न किसी रूप में प्रयोग होता है। नादयोग के माध्यम से ईश्वरीय सन्देश सुनने एवं अदृश्य जगत में चल रही हलचलों की जानकारी प्राप्त करने की बात बनती है। विज्ञान ने प्रकृति के अन्तराल से ऐसी ध्वनि तरंगें ढूंढ़ निकाली हैं जो अब तक के समस्त आविष्कारों की तुलना में अधिक सामर्थ्यवान शक्ति स्त्रोत उपलब्ध हुआ है। चेतना जगत तथा पदार्थ जगत के दोनों ही क्षेत्रों में उच्चस्तरीय अनुकूलताएं उत्पन्न करने तथा अभीष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए शब्द शक्ति का जो विशेष विनियोग उपचार किया जाता है, उसी को मन कहते हैं। आज यन्त्रों की धूम है। उनकी उपयोगिता तथा समर्थता का परिचय सभी को है। भूतकाल में ठीक इसी तरह मन्त्र शक्ति का प्रयोग होता रहा है और उसकी प्रभाव शक्ति आज के अति महत्वपूर्ण यन्त्रों की तुलना में किसी भी प्रकार कम नहीं थी।

मन्त्र विद्या को- उच्चस्तरीय शब्द-विज्ञान कह सकते हैं। मन्त्रों के अक्षरों का गठन-गुँथन आत्म-विज्ञान के पारंगतों ने इस प्रकार किया है कि उनसे साधक की काया में सन्निहित अनेक रहस्य भरे शक्ति संस्थानों का उभार-अभिवर्धन होता चला जाता है। गायत्री महाविद्या में उस उच्चस्तरीय रहस्यमय शक्ति का ऐसा समावेश है जिसका सिद्धान्त एवं प्रयोग करने वाला सिद्ध पुरुष स्तर की चमत्कारी सिद्धियों का परिचय दे सकता है।

मन्त्र विद्या द्वारा शब्द के माध्यम से उत्पन्न की गई ऊर्जा इतनी प्रचण्ड होती है कि उसके चमत्कार असामान्य स्तर के होते हैं। इस संदर्भ में शाप, वरदानों का लम्बा इतिहास पढ़कर तथ्यों को जाना जा सकता है। मन्त्र साधना द्वारा निजी जीवन के भौतिक एवं आत्मिक पक्षों में असाधारण प्रगति सम्भव हो सकती है। इतना ही नहीं, दूसरों का भी उस माध्यम से हित साधन हो सकता है। नियति के रहस्यों को भी उस आधार पर जाना जा सकता है और आवश्यकतानुसार विश्व-प्रवाह का अदृश्य वातावरण में हेर-फेर कर सकना भी सम्भव हो सकता है।

गायत्री मन्त्र एक शब्द गुच्छक है। उसका प्रयोग जप, उच्चारण के माध्यम से विशिष्ट प्रयोजनों के लिए होता है। इसी कारण जप के साथ-साथ ध्यान आवश्यक माना गया है ताकि शरीर की तत्परता और मन की तन्मयता का दुहरा अभ्यास होता रहे। एकाग्रता सम्पादन का उपाय भी यही है। मन भागता हो तो उसे बार-बार पकड़कर निर्धारित धारणा में नियोजित करते रहना चाहिए। वन्य पशु की तरह मन को साधना भी कष्टसाध्य, श्रम साध्य एवं समय साध्य है। उसमें विलम्ब लगता हो, सफलताक्रम धीमा हो तो भी हताश होने की आवश्यकता नहीं। धैर्य पूर्वक प्रयास जारी रखने से आज नहीं तो कल सफलता मिलकर ही रहती है। उपरोक्त तीनों अंतर्मुखी ध्यानों में से कोई किया जाय या दो बहिर्मुखी ध्यानों में से अपनाया जाय। इसका निर्धारण मनोभूमि की गम्भीर पर्यवेक्षण से ही निश्चित किया जा सकता है। उपरोक्त पाँचों ध्यानों में से चान्द्रायण पुरश्चरण में चुनना एक ही पड़ता है।


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