आत्म समर्पण की साधना और उसका प्रतिफल

November 1977

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वासना, तृष्णा और अहंता-सामान्यतः जन आकांक्षाएँ इन तीन आकर्षणों के ही इर्द-गिर्द घूमती रहती है। शास्त्रकार ने इन्हें ही पुत्रेषणा, वित्तेषणा तथा लोकेषणा कहकर इनकी निन्दा की है और इन्हें आत्मोत्कर्ष की प्रधान बाधा बताकर इनकी निन्दा की है। जन-जीवन में व्याप्त रागद्वेष, कलह, कटुता इन्हीं में आसक्ति का परिणाम होते हैं। जब तक इस संकीर्णता से मुक्ति न मिले, मनुष्य जीवन जैसी देव-दुर्लभ सत्ता कौड़ियों के मोल बिकती रहती है। इन्द्रियों को लुभाने वाला यह जीवन “प्रेय” मार्ग कहा गया है। इसमें शाश्वत अपेक्षाओं और गम्भीर आस्थाओं के प्रति अभिरुचि तो दूर इस मनःस्थिति का प्राणी उन्हें अस्वीकार ने भी लगता है, जिससे सामाजिक जीवन में अशान्ति और अव्यवस्था का ही विकास होता है।

इसके विपरीत एक और भी जीवन वह होता है जो उत्कृष्टता, आदर्शवादिता, चरित्रनिष्ठा और समाजनिष्ठा के प्रति समर्पित होता है। इसे श्रेय पथ कहते हैं। इसमें इन्द्रियों को सन्तुष्ट करने की हेय प्रवृत्ति का परित्याग होने से भावनाओं का , अन्तःकरण का विकास होता है। जीवन सत्ता मानवीय तथा देवी विभूतियों और क्षमताओं से विभूषित होती चली जाती है। प्रत्यक्ष में यह सौदा घाटे का हो सकता है। यही श्रेय अर्पित जीवन क्रमशः उत्कृष्टता और आत्मिक आनन्द की श्रेणियों में उठाता हुआ मनुष्य को उसके जीवन लक्ष्य परमात्मा तक पहुँचा देता है। अन्तःकरण की पुकार को अनसुनी न करें तो परमात्मा की यह प्रकाश किरण उसकी प्रेरणा-महापुरुषों के माध्यम से, समाज सेवी संगठनों के माध्यम से, मानवीय पीड़ा और पतन के प्रति, सम्वेदना के रूप में हर किसी के पा आती है। यह समर्पण स्वीकार किया जा के तो निःसन्देह मनुष्य जीवन धन्य हो सकता है।

बीत की सत्ता अत्यन्त लघु और नगण्य समझी जाती है। अपने आप में ही सीमित प्रकृति, का नन्हा प्रतिनिधि किसी कीड़े-मकोड़े को भले ही सन्तुष्टि प्रदान कर दे पर उससे अधिक की क्षमता उसमें है नहीं। आपने आप तक सीमित रहने, अपने ही स्वार्थों तक केन्द्री भूत रहने की संकीर्ण मनोवृत्ति कभी भी किसी व्यक्ति को ऊँचा नहीं उठा सकती।

श्रेय सम्पादन, आत्म-विस्तार बड़ी उपलब्धियों के लिये अपनी अहंता का परित्याग आवश्यक होता है। समर्पण इसी भावना का नाम है। वही बीज जो कल तक अत्यन्त तुच्छ घेरे में घिरा हुआ था जब अपने आपको बिना किसी झिझक और असन्तोष के धरती माता की गोद में समर्पित कर देता है तो उसमें से विकास के नन्हे-नन्हे अंकुर फूट पड़ते हैं। सूर्य किरणें उसे शक्ति देती है, पवन उसे दुलारता है, मेह उसका अभिसिंचन करता है। सम्पूर्ण प्रकृति उसकी सेवा में जुट जाती है, बीज नीचे बढ़ता है और अपनी जड़े, अपनी आधार भूमि सुदृढ़ कर लेता है। ऊपर उठता है तो एक विशाल वृक्ष के रूप में परिणत होता चला जाता है। ऐसा वृक्ष जिसके आश्रय में सैकड़ों प्राणियों को फल-फूल आदि के उपयोगी उपहार मिलते हैं। अपने सम्पूर्ण जीवन में वह एक बीज करोड़ों बीजों का जनक होने का गौरव प्राप्त करता है समर्पण की महत्ता अनन्त है, अणु से विभु , लघु से विराट् बनने की प्रक्रिया आत्म-समर्पण के ही साँचे और ढाँचे में परिपूर्ण होती है। इससे इतर कोई सुगम मार्ग नहीं ।

आदान-प्रदान के व्यक्त-अव्यक्त दो ही रूप है एक का नाम है सहयोग-सहकारिता अर्थात् किसी व्यक्ति, संस्था, उद्योग, या मिशन के कार्यों में अपनी उपलब्ध क्षमताओं को मिलाना-अपना कर्त्तृत्व जोड़ना। यह साँसारिकता से ओत-प्रोत भावना है। उसके बदले में भौतिक लाभ, चाहे वह पद-प्रतिष्ठा के रूप में हो, अर्थोपार्जन के रूप में हो या यश और कीर्ति के रूप में हो, जुड़ा हुआ हो तो यह सहयोग या सदृकत्त्व कहा जायेगा। कुटुम्ब के सदस्य आपस में मिलकर काम करते हैं। भौतिक प्रगति के रूप में उन्हें उसका लाभ मिलता है, कल-कारखाने में काम करने वाले मजदूरों से मालिक को लाभ होता है। बदले में उन्हें जीवन यापन के साधन मिल जाते हैं। एक मित्र दूसरे को सहयोग करता तो बदले में उसे भी मित्र का सम-सहयोग मिलता है। परस्पर सहयोग समाज की एक सुसंस्कृत परम्परा और सामुदायिक विकास का आधार है किन्तु समर्पण उसमें हजारों गुने उन्नत तर की आध्यात्म साधना है सहयोग से भौतिक प्रगति के लक्ष्य पूरे किये जा सकते हैं, पारमार्थिक प्रयोजनों को भी एक सीमा तक शक्ति सहायता मिल सकती है। किन्तु महान कार्य, बड़ उद्देश्य समर्पित सेवाओं के बिना सम्भव नहीं हो पाते। श्रेष्ठता के प्रति समर्पण आत्मा की क्षमताओं और सम्भावनाओं को उजागर करके व्यक्ति समुदाय और संसार को प्रगति का मार्ग, नई ज्योति और दाशयी लक्ष्यों की सफलता प्रदान कर सकती है। आध्यात्मिक साधनायें या पारमार्थिक सेवायें तो समर्पण के अभाव में पनप ही नहीं सकती।

उत्कृष्टता के प्रति श्रद्धासिक्त समर्पण एक उदात्त आध्यात्मिक संस्कार है जो किसी भी क्षेत्र के लिए अनवरत शक्ति संचार की प्रेरणा और स्रोत बनकर काम करने लगता है। सहयोग में खण्डावस्था है तो समर्पण में नैरर्न्तय प्रभु समर्पित व्यक्ति का प्रत्येक चिन्तन और कर्तृत्व एक ही -दिशा में नियोजित रहने से अत्यधिक प्रखर और गतिशील हो उठता है। यही नहीं उसके साथ पवित्रता की एक ऐसी भावना सन्निहित रहती है, जो ध्येय को भौतिक प्रवंचनाओं से धराशायी होने से बचाती रहती है।

सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम की एक बहुत महत्त्वपूर्ण घटना ताँत्या-टोपे के जीवन के सम्बन्ध रखती है। अजीजन नाम की एक नर्तकी सेनापति ताँतिया टोपे की ओर आसक्त हो गई। उसने ताँत्या टोपे का मन जीतने के लिए आकर्षणों का जाल बिछा दिया। ताँत्या टोपे इस बात को ताड़ गये उन्होंने एक दिन अजीजन ने कहा मेरे जीवन का एक ही ध्येय है- अंग्रेजों को भारत भूमि से मार भगाना। यदि तुम सचमुच मुझे प्यार करती हो तो मेरे इस श्रेष्ठ लक्ष्य में तुम्हें समर्पित भावना से कार्य करना होगा। अजीजन तैयार हो गई किन्तु समर्पण जिसे इतना महत्त्व दिया जाता है इतनी सरल प्रक्रिया नहीं कि उसे यों ही निबाहा जा सके। अजीजन ने अपनी सारी सम्पत्ति स्वाधीनता संग्राम को सौंप दी। स्वयं को गुप्तचर सेवाओं के लिए समर्पित किया। अंग्रेज छावनियों में जाना वहाँ से सुराग लाना सस्ता कार्य नहीं यह कार्य इतने जोखिम का था जिसे अविचल निष्ठा ही पूरा कर सकती थी। अजीजन को भयंकर संकटों और यातनाओं का सामना करना पड़ा किन्तु वे ध्येय के प्रति मृत्यु तक प्रामाणिक बनी रहीं। उनके इस त्याग ने न केवल उन्हें यशस्वी बनाया अपितु राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए पथ भी प्रशस्त किया।

समर्पण वस्तुतः व्यक्ति की निष्ठा की परख है उस पर खरा उतरने पर ही उसका समर्पण सार्थक होता है। इससे कम में नहीं । अपनी “आत्म दानियों से ..........।” पुस्तक में लोक नायक जयप्रकाश की समर्पण की यह व्याख्या युक्ति युक्त ही है कि-समर्पण का अर्थ है-मन अपना विचार इष्ट के (उसके जिसे आत्मसमर्पण किया गया) हृदय अपना, भावनायें इष्ट की। आपा अपना, किन्तु कर्तृत्व समग्र रूप से इष्ट का।” इस परिभाषा का अर्थ अपनी अहंता से पूरी तरह अवकाश पा लेना है। योग साधनाओं में सिद्धि के गुणों में यह स्थिति अनिवार्य मानी गई है। अतएव समर्पण को आत्म कल्याण की सर्वोपरि साधना के रूप में लिया जाना चाहिये।

समर्थ गुरु रामदास को समर्पित होने के बाद शिवाजी शिवा जी हो गये, शंकराचार्य की आत्म-समर्पण कर मान्धाता जातीय जीवन के गौरव बने। विवेकानन्द ने अपने आपको महर्षि रामकृष्ण परमहंस के चरणों में समर्पित न किया होता और उस समर्पण के प्रति वफादार न रहे होते तो रामकृष्ण परमहंस के दूसरे शिष्यों की तरह वे भी कोई उल्लेखनीय कार्य नहीं कर सके होते। आर्यसमाज संगठन महर्षि दयानन्द के आत्म-समर्पण का पर्याय कहा जा सकता है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम बिना किसी युद्ध के जीता गया, उसमें जन नेताओं की समर्पित साधना को ही श्रेय जाता है। तब उसमें से किसी में भी न तो कोई महत्त्वाकाँक्षा थी न पूर्वाग्रह सेवा के फल की कामना थी न यश की। सरफरोशी की तमन्ना अर्थात् सच्चे समर्पण की भावना का जहाँ भी उदय होगा वहाँ उद्देश्य सार्थक होते चले जायेंगे।

समर्पण में आशाओं-आकांक्षाओं के लिये कोई भी स्थान नहीं। पारमार्थिक साधनाओं में या आत्मोपलब्धि, परमात्मा के दर्शन परमगति या मोक्ष की कामना उनमें से किसी भी ध्येय के लिये समर्पित हों, कामनायें सर्वप्रथम नष्ट करनी पड़ती है। मार्गदर्शक या ध्येय की प्रामाणिकता प्रारम्भ में सिद्ध हो जाये तो फिर कर्तृत्व में अवाँछनीयता की गुँजाइश प्रायः रहती ही नहीं।

अन्तःकरण में न कोई छल न छद्म । अपनी बौद्धिक क्षमताएँ यश, सक्रियता, प्रगति सब ध्येय के प्रति अर्पित हो यही समर्पण की सच्ची साधना है। यह सौभाग्य जिन प्रयोजनों को मिल जाते हैं। चाहे वह साँसारिक हों या आध्यात्मिक उनको सफलता की आधी मंजिल तत्काल पूर्ण हो जाती है। साथ उस समर्पित आत्मा को ईश्वरीय सान्निध्य का एक ऐसा दिव्य लाभ इसी साधना से मिल जाता है जिसके लिये योगाभ्यास और जन्म-जन्मान्तरों के दोष परिमार्जन की एक कठिन और लम्बी साधना पूरी करनी पड़ती, सत्प्रवृत्तियों को, उच्चादर्शों को समर्पित जीवन का अर्थ परमात्मा को समर्पित जीवन। ऐसे साधक के लिये ही भगवान् श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-

मध्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धि निवेशय। निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्व न संशयः॥

हे अर्जुन ! तू अपना मन मेरे में (ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में) लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा इसके उपरान्त तू मेरे में निवास करेगा, मेरे को ही प्राप्त करेगा इसमें कुछ संशय नहीं।


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