शब्द ब्रह्म की साधना वाक् शक्ति से

November 1977

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शब्द को ब्रह्म कहा गया है। ‘शब्द ब्रह्म-नाद ब्रह्म’ शब्दों का उपयोग शास्त्र में अनेक स्थानों पर आया है। यह उक्ति अलंकार नहीं-वरन् यथार्थ है। हाँ, यदि ध्वनि मात्र को यह उपमा दी जाएगी तो उसे उपहासास्पद समझा जाएगा । जिह्वा स्वर यन्त्र है। वाद्य यन्त्र पर उलटी सीधी अंगुली से आघात लगाये जाएँ तो आवाज भर होगी। क्रमबद्ध, तालबद्ध, राग-रागिनी निकालनी हो तो उसके लिए सधे हाथ एवं प्रशिक्षित मस्तिष्क का भी योगदान आवश्यक है। जिव्हा से बोले गये मन्त्र वाद्य-यन्त्र पर जैसे जैसे अंगुली चलाने की तरह है, उतने भर से दीपक राग या मेघ मल्हार जैसे प्रभावोत्पादक परिणामों की अपेक्षा नहीं की जा सकती । जिव्हा से उच्चरित शब्द सामान्यतया जानकारियों के आदान प्रदान का उद्देश्य पूरा करते हैं। एक व्यक्ति शब्द माध्यम से अपनी अनुभूति एवं जानकारी दूसरे तक पहुँचा सकता है। इसमें भी आवश्यक नहीं कि जिससे जो कहा गया है वह उसे उसी रूप में स्वीकार कर ले। कारण कि आजकल वचन छल का दौर दौरा है। लोग एक दूसरे को ठगने की दृष्टि से कपट वचन बोलने की कला में प्रवीण हो चले है। अस्तु सुनने वाले को फूँक-फूँक कर कदम रखना होता है और देखना पड़ता है कि कथन में छल, प्रपंच की दुरभिसंधियाँ तो घुसी हुई नहीं है। कितना कथन संदिग्ध हो सकता है, इसकी खोज करने में सुनने वाला लगता है। जितना अंश गले उतरता है, उतने पर ध्यान देकर शेष को उपेक्षा के गर्त में फेंक देता है। जब सामान्य व्यवहार तक में वाणी की यह दुर्गति हो रही हो। उच्चारण को अविश्वस्त और अप्रमाणिक मानने की परम्परा चल रही हो तो उससे व्यावहारिक आदान प्रदान तक की आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती। फिर आध्यात्मिक प्रयोजन तो पूरे हो ही कैसे सकेंगे ।

इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए ही मन्त्राराधन में ‘वाणी’ मात्र से सम्भव हो सकने वाले क्रिया-काण्डों को महत्त्व नहीं दिया गया है। जीभ से तो लोग आये दिन कथा, कीर्तन, भजन, पाठ, जप आदि के माध्यम से तरह तरह के चित्र विचित्र वचन बोलते रहते हैं। यदि उतने भर से धर्मचर्या के उद्देश्य पूरे हो जाया करते तो फिर सरलता की अति ही कही जाती। छोटे छोटे लाभ प्राप्त करने के लिए मनुष्य को कठोर श्रम करने, साधन जुटाने एवं मनोयोग लगाने की आवश्यकता पड़ती है तब कहीं आधी अधूरी सफलता का योग बनता है। अध्यात्म क्षेत्र जितना उच्चस्तरीय है उतनी ही उसकी विभूतियाँ भी बहुमूल्य है। निश्चित रूप से उसके लिए प्रयास भी अपेक्षाकृत अधिक कष्ट साध्य ही होते हैं। यदि उतने बड़े लाभ मात्र जिव्हा से अमुक शब्दावली दुहरा देने भर से प्राप्त हो जाया करते तो उन्हें पाने से कोई भी वंचित न रहता, पर इतना सस्तापन है कहाँ ?

महत्त्व की दृष्टि से हर वस्तु का मूल्य निर्धारित है। अध्यात्म उपलब्धियों में शब्द शक्ति की महत्ता बताई और महिमा गाई गई है। मन्त्राराधन के फलस्वरूप मिलने वाले लाभों का वर्णन विस्तारपूर्वक शास्त्रों में भरा पड़ा है, पर उसे शब्द चमत्कार भर नहीं मान लिया जाना चाहिए। यदि उच्चारण ही सब कुछ रहा होता तो साधन ग्रन्थ पढ़ने वाली से प्रेस कर्मचारी और, पुस्तक विक्रेता पहले ही लाभान्वित हो लेते। पाठक को उनका बचा-खुचा ही शायद कुछ हाथ लगता। शब्दोच्चारण में जप के अति सरल कर्मकाण्ड के लिए थोड़ा-सा संयम लगा देने में किसी को क्या कुछ असुविधा होगी ? उतना तो कोई बालक नासमझ या वृद्ध अशक्त भी कर सकता है, फिर समर्थ व्यक्ति तो उसे उत्साहपूर्वक करते और भरपूर लाभ उठाते। ऐसा कहाँ होता है ? लाभों का महात्म्य विस्तार पढ़ते हुए भी कुछ करने के लिए कहाँ किसी का उत्साह होता है। ?

शब्द ब्रह्म-शब्दों में जो गहन रहस्य छिपा है वह यह है कि अध्यात्म प्रयोजनों में प्रयुक्त होने वाली शब्दावली को उच्चस्तरीय होना चाहिए। वह इतनी परिष्कृत हो कि उसकी पवित्रता, प्रामाणिकता एवं क्षमता को ईश्वर के समतुल्य ठहराया जा सके। इसके लिए कई लोग स्वर विन्यास की बात सोचते हैं और अनुमान लगाते हैं कि मन्त्रों में उच्चारण का जो स्वर क्रम बताया गया है, उसे जान लेने से काम बन जाएगा । यह मान्यता भी तथ्य की दिशा में एक छोटा कदम भर ही है। इस चिन्तन में इतनी सी जानकारी है कि हमारे क्रिया कृत्यों को अनगढ़ नहीं-सुव्यवस्थित होना चाहिए। भले ही वह उच्चारण ही क्यों न हो? वाणी को शिष्टाचार-सन्तुलन सभ्यता का अंग माना जाता है। जो ऐसे ही अण्ड-बण्ड बोलते रहते हैं वे असभ्य कहलाते और तिरस्कार के पात्र बनते हैं। ऐसी दशा में मन्त्र प्रयोजनों में यदि उसके साथ जुड़े हुए व्यवस्था नियमों का पालन किये जाने का निर्देश है तो उसका पालन होना ही चाहिए। इसमें सतर्कता एवं जागरूकता अपनाये जाने की बात दृष्टिगोचर होती है। यह दिशा उत्साहवर्धक है। इससे प्रमाद पर अंकुश लगने और व्यवस्था अपनाने में उत्साह उत्पन्न होने का बोध होता है, यह उचित भी है और आशाजनक भी। मन्त्रों का उच्चारण शुद्ध हो। सही हो। गति का ध्यान रहे। स्वर, लय, क्रम, विराम आदि को जाना माना जाय। यह अनगढ़पन से मन्त्र चार की सभ्यता में प्रवेश करने का कदम है। पूजा, उपचार के अन्य कर्मकाण्डों में भी यह सतर्कता बरती जानी चाहिए। आलसी प्रमादियों की तरह आधी-अधूरी चिह्न पूजा करने की बेगार भुगत लेने से तो अश्रद्धा ही टपकती है। अन्य मनस्कता एवं उपेक्षापूर्वक किये गये नित्य कर्म तक बेतुके बेढंगे होते हैं, इस स्वभाव से तो आजीविका उपार्जन जैसे काम तक असफल जैसे बने रहते हैं, फिर अध्यात्म मार्ग की उपलब्धियों में तो उसका परिणाम अवरोध उत्पन्न करने के अतिरिक्त और कुछ हो ही क्या सकता है ?

उच्चारण से लेकर विधि-विधान तक में सुव्यवस्था एवं सतर्कता बरती जानी चाहिए किन्तु इतने भर से ही यह नहीं मान लेना चाहिए कि हमारे उच्चारण ‘मन्त्र’ बन गये और उन्हें शब्द ब्रह्म की संज्ञा मिल गई। इसके लिए वाणी को ‘वाक्’ के रूप में परिष्कृत करना होगा। यह स्वर साधना नहीं वरन् जीवन साधना के क्षेत्र में होने वाला प्रयोग है। इसके लिए समूचे व्यक्तित्व को मन, वचन, कर्म को, गुण कर्म स्वभाव को, चिन्तन एवं चरित्र को, उच्चस्तरीय बनाने के भागीरथ प्रयत्न में जुटना होता है। मन्त्रोच्चारण की विधि-व्यवस्था कुछ घण्टों में सीखी जा सकती है। उसका परिपूर्ण अभ्यास कुछ दिनों में हो सकता है। किन्तु व्यक्तित्व की मूल सत्ता का स्तर ऊँचा उठाना काफी कठिन है। उसके लिए प्रबल पुरुषार्थ की आवश्यकता पड़ती है। दूसरों को सुधारने में जितनी कठिनाई पड़ती है, अपने को सुधारना उससे भी अधिक कष्ट साध्य और श्रम साध्य है।

जिव्हा उच्चारण तन्त्र है। अन्य वाद्य यन्त्रों की तरह उसका सही होना तो प्राथमिक आवश्यकता है। मन्त्र की शब्दावली शुद्ध हो। भाषा की अशुद्धियाँ न हों। प्रवाह एवं स्वर ठीक हो। इसके अतिरिक्त जिव्हा साधना की दृष्टि से सामान्य व्यवहार में उसके रसना प्रयोजन एवं वार्ताक्रम में साधकों जैसी रीति नीति का समावेश किया जाय। अति की, हराम की कमाई न खाई जाय। परिश्रम और न्याय के सहारे जितना कुछ कमाया जा सके उतने में ही मितव्ययितापूर्वक गुजारा किया जाय। चटोरेपन की बुरी आदत से लड़ा जाय और सात्विक सुपाच्य पदार्थों को औषधि भाव से उतनी ही मात्रा में लिया जाय जितनी कि पेट की आवश्यकता एवं क्षमता है। इस दृष्टिकोण को अपनाने वाले के लिए मद्य, माँस जैसे अभक्ष्य को ग्रहण करने की तो बात ही क्या-उत्तेजक मसाले और नशीले पदार्थों-मिष्ठान्न पकवानों तक से परहेज करने की जरूरत स्पष्ट है। सात्विक आहार से मनः क्षेत्र में सात्विकता बढ़ती है और उससे अनेकों दोष−दुर्गुण जो अभक्ष्य खाते रहने पर छुट नहीं सकते थे, अनायास ही घटते-मिटते चले जाते हैं। अस्वाद व्रत पालन करने वाले के लिए अन्य इन्द्रियों पर काबू रख सकना सरल हो जाता है।

आहार की सात्विकता का वाणी की पवित्रता पर गहरा असर पड़ता है। अभक्ष्य आहार से जिव्हा की सूक्ष्म शक्ति नष्ट होती है और उसके द्वारा उच्चरित शब्द आध्यात्मिक प्रयोजन पूरे कर सकने की क्षमता से रहित ही बने रहते हैं। वाणी का दूसरा कार्य है वार्त्तालाप।

हमारे दैनिक जीवन में वार्तालाप का स्तर उच्चस्तरीय एवं आदर्श परम्पराओं से युक्त होना चाहिए। कटुता घृणा, तिरस्कार, छल, असत्य का पुट उसमें न रहे। दूसरों को भ्रम में डालने, कुमार्ग पर चलने की प्रेरणा देने वाले, हिम्मत तोड़ने वाले शब्द न बोले। यह नियंत्रण मात्र सतर्कता बरतने से नहीं हो सकता है। उपचार में भी बार-बार भूल होती रहती है। वस्तुतः हमारे भीतर सद्भावों का इतना गहरा पुट हो कि वाणी पर नियन्त्रण करने की आवश्यकता ही न पड़े। जो भीतर होता है वही बाहर निकलता है। यदि हमारे अन्तःकरण में सद्भावनाएँ भरी होंगी दृष्टिकोण आदर्शवादी होगा तो स्वभावतः वार्तालाप में उच्चस्तरीय श्रेष्ठता भरी होगी। सद्भाव सम्पन्न मनुष्यों का सामान्य वार्तालाप भी शास्त्र वचन के स्तर का होता है उनके मुख से निकलने वाले वाक्य ‘आप्त वाक्य’ कहलाने योग्य होते हैं। इस प्रकार का वार्ता-अभ्यास जिव्हा को दैवी प्रयोजनों के उपयुक्त बनाता चला जाता है। उसके द्वारा जिन मन्त्रों की आराधना की जाती है वे सफल ही होते चले जाते हैं।

मन्त्र को धीमे जपा जाता है। शब्दावली अस्पष्ट एवं धीमी रहती है। बहुत बार तो वाचिक से भी अधिक महत्त्व मानसिक और उपाँशु का होता है। उनमें तो वाणी नाम मात्र को ही होती है। किन्तु इन मौन जपों में भी मध्यमा, परा, पश्यन्ती, वाणियाँ काम करती रहती है। यह तीनों वाणियाँ मनुष्य के दृष्टिकोण, चरित्र एवं आकांक्षा से सम्बन्धित रहती है। यदि व्यक्ति ओछा, घटिया और दुष्ट है। उसकी आकांक्षाएँ निकृष्ट, दृष्टिकोण विकृत एवं चरित्र भ्रष्ट है तो तीनों सूक्ष्म वाणियाँ निम्नस्तरीय ही बनी रहेंगी और उनका समन्वय रहने में बैखरी वाणी तक प्रभावहीन संदिग्ध एवं अप्रामाणिक बनी रहेगी उसका साँसारिक उपयोग कोई महत्त्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न न कर सकेगा फिर उसके द्वारा की गई मन्त्र साधना तो सफल हो ही कैसे सकती है ?

मन्त्र जप की सरल विधि के साथ कठिन साधना यह है कि उसके लिए जिव्हा समेत समस्त उपकरणों का परिशोधन करना पड़ता है। जो तथ्य को समझते हैं वे साधनाओं के विधि-विधान तक सीमित न रह कर जीवन-प्रक्रिया को उच्चस्तरीय बनाने की सुविस्तृत रूपरेखा तैयार करते हैं। उस प्रयास में जिसे जितनी सफलता मिलेगी उसके जप तप उसी अनुपात में सफल होते देखे जा सकेंगे । शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार इसी मार्ग पर चलने से सम्भव होता है। समूची आत्मसत्ता को परिष्कृत बनाने से वाणी की परिणित ‘वाक्’ शक्ति में होती है। वाक् शक्ति का प्रभाव असीम है। उसकी सहायता से असम्भव को भी सम्भव किया जा सकता है।

शतपथ ब्राह्मण में शब्द ब्रह्म का विवेचन करते हुए कहा गया है। परा वाक् उसका मर्मस्थल है। परा वाक् का रहस्योद्घाटन करते हुए बताया है-वह हृदयस्पर्शी है प्रसुप्त को जगाती है। स्वर्ग, मुक्ति और सिद्धि का आधार वही है। देवताओं के अनुग्रह वरदान का केन्द्र उसी में है। इस विश्व में जो कुछ श्रेष्ठता है वह वाक् की प्रतिध्वनि एवं प्रतिक्रिया ही समझी जानी चाहिए।

वैखरी वाणी जब साधना सम्पन्न होकर ‘वाक्’ बनती है तो उसका विस्तार श्रवण क्षेत्र तक सीमित न रह कर तीनों लोकों की परिधि तक व्यापक होता है। वाणी में ध्वनि है ध्वनि में अर्थ। किन्तु वाक् शक्ति रूपा है। उसकी क्षमता का उपयोग करने पर वह सब जीता जा सकता है। जो जीतने योग्य है। कौत्स मुनि ने मन्त्र अक्षरों के अर्थ की उपेक्षा होती है और कहा है कि उनकी क्षमता शब्द गुँथन के आधार पर समझी जानी चाहिए। उसमें ‘वाक्’ तत्त्व ही प्रधान रूप से काम करता है। इस ‘परावाक्’ का स्तवन करते हुए श्रुति कहती है।

देवी वाचमजनयन्त देवास्ताँ, विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। सा नो मंद्रेष्षमूर्ग दुहाना, धेनुर्वागस्मानुपसुष्टुवैतु॥

प्रा वाक् देवी है। विश्व रूपिणी है। देवताओं की जननी है। देवता मन्त्रात्मक ही है। यही विज्ञान है। इसे कामधेनु हम बोलते और जानते हैं।


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