साधना से सिद्धि का कारण और दर्शन

November 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जमीन से निकलते समय लोहा मिट्टी मिला होता है। उसे अग्नि संस्कार करके शुद्ध करना होता है। खदान से निकलते समय की लोह मिश्रित मिट्टी अपने मूल रूप में किसी काम की नहीं होती न वह मिट्टी का प्रयोजन पूरा करती है और न लोहे का-जब उसका परिशोधन होता है, तभी शुद्ध लोहे का स्वरूप सामने आता है। उससे आगे उस लोहे को पिघलाकर औजारों, पुर्जों, हथियारों के रूप में ढाला जाता है। उस लोह खण्ड की उपयोगिता और गरिमा इसी प्रकार बढ़ती है। रसायन शास्त्र वेत्ता सामान्य लोहे को लोहासव-लोह भस्म, माण्डूर भस्म आदि का रूप देते हैं और इन औषधियों के सहारे भयंकर रोगग्रस्तों को जीवन दान दिलाते हैं। सामान्य से - महत्त्व हीन-लोह खण्ड को उतना उपयोगी बना देने का श्रेय अग्नि संस्कारों के साथ जुड़ी हुई ढालने, खरादने आदि की प्रक्रिया को ही दिया जा सकता है।

ऊबड़-खाबड़ को समतल, उर्वर, पार्क, उद्यान के रूप में विकसित करने के लिए कृषक को बहुत कुछ करना पड़ता है। जंगलों में उगे पौधे झाड़-झंखाड़ भर रहते हैं पर कुशल माली उन्हें अपनी कलाकारिता से काटते-छाँटते निराते, गोड़ते, कलम लगाते सुरम्य उद्यान की नयनाभिराम स्थिति में पहुँचा देता है। शरीर की साधना करने वाले व्यायाम प्रेमी उसे सुन्दर बलिष्ठ और आकर्षक बना लेते । ऐसे शरीर पहलवान के नाम से प्रख्यात होते और पुरस्कृत होते हैं। विद्वान बनने के लिए मस्तिष्क की साधना करनी पड़ती है। प्रशिक्षण और वातावरण के दबाव से ही मनुष्य सुसंस्कृत बनता और गौरवास्पद होता है। यह सब संस्कार साधना का ही प्रतिफल है।

अनगढ़ स्वर्ण खण्ड स्वर्णकार के हाथों तले जाकर नयनाभिराम आभूषण बनता है। इस विकास में उसे कई प्रकार तपने, पिटने, छिलने की प्रक्रियाओं में होकर गुजरना पड़ता है। अन्य धातुएँ भी अपने भूल स्वरूप में जिस भाव की होती है उसकी तुलना में उनके किसी उपयोगी वस्तु के रूप में परिणित हो जाने का मूल्य अनेक गुना जो जाता है। पत्थर के टुकड़े का मूल्य नगण्य है, पर मूर्तिकार के छैनी, हथौड़े सहते-रहने पर उसका स्वरूप देव प्रतिमा का बन जाता है। कागज पर साहित्यकार की लेखनी चलती है और वह बहुमूल्य पाण्डुलिपि के रूप में बदल जाता है।

वन्य पशु मनुष्य के लिए अनुपयोगी ही नहीं हानिकारक भी होते हैं। किन्तु जब उन्हें पालतू बना लिया जाता है और सधा लिया जाता है, तो पूरा पूरा लाभ उठाया जाता है। गाय, बैल, घोड़े, हाथी आदि के सहारे मनुष्य ने कितनी प्रकार के - लाभ उठाये हैं। यह किसी से छिपा नहीं है। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। वन्य स्थिति से पालतू और प्रशिक्षित बनाने में मनुष्य को धैर्यपूर्वक चिर-साधना में लगा रहना पड़ा है और पशु-पालन शास्त्र विकसित करना पड़ा है। हिंस्र पशुओं को सरकस में कौतूहलवर्धक काम करते देखते हैं तो आश्चर्य होता है। अपनी मूल-स्थिति में जो सिंह बाघ मनुष्य का प्राण हरण ही कर सकते हैं, प्रशिक्षित होने पर वे ही भारी कमाई करते हैं। इसे साधना का चमत्कार ही कहा जा सकता है।

नृतत्व विज्ञान के अनुसार मनुष्य भी एक वन्य पशु है। उसे बानर वर्ग के वंश से विकसित होते-होते वर्तमान स्थिति तक पहुँचा हुआ माना जाता है। इस विकास क्रम में उसने अपनी बौद्धिक क्षमता एवं क्रिया कुशलता विकसित की है। बोलना, लिखना और सोचना सीखा है। शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, कला, कृषि, परिवहन, आदि की कितने ही प्रकार की उपलब्धियाँ अर्जित की है। यह सब अनायास ही नहीं हो गया। यह लाखों वर्षों की विकास साधना का प्रतिफल है। समाज का गठन, शासन तन्त्र, तत्त्व-दर्शन धर्म, सभ्यता, संस्कृति आदि का प्रस्तुत ढाँचा यदि खड़ा न किया जा सका होता तो मनुष्य अपने मूल स्वरूप में वनमानुषों से अधिक कुछ हो नहीं सकता था। अब भी जहाँ सभ्यता का प्रकाश स्वल्प मात्रा में पहुँचा है, वहाँ के मनुष्यों का पिछड़ापन कितना दयनीय प्रतीत होता है।

हाड़ माँस की दृष्टि से-प्रायः सभी मनुष्यों के शरीर लगभग समान स्तर के है। यों तो पत्ते-पत्ते की बनावट में अन्तर होता है। पर मोटी दृष्टि से उन्हें समान ही कहा जा सकता है। यही बात मनुष्य मनुष्य के बीच में है। उनके बीच पाये जाने वाले अन्तर को नगण्य ही कह सकते हैं। समानता की मात्रा इतनी है कि अन्तर को स्वल्प ही माना जाएगा । इतने पर भी देखा जाता है कि एक जैसी परिस्थितियों में जन्मे और पले होने पर भी मनुष्य मनुष्य के बीच भारी अन्तर रहता है। एक उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचता है, दूसरा जहाँ का तहाँ पड़ा रहता है, तीसरा दिन-दिन दीन दयनीय बनता जाता है। इसे प्रायः भाग्य आदि का नाम दिया जाता है, पर वस्तुतः यह मनुष्यों की आन्तरिक स्थिति के विकास क्रम की ही प्रतिक्रिया है। आकांक्षा से जीवन विकास क्रम की ही प्रतिक्रिया है। आकांक्षा से जीवन की दिशा धारा बनती है। मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थिति ढलती है। प्रयत्नों के परिणाम उपलब्धियाँ बनकर सामने आते हैं। प्रवाह स्वयं निर्धारित करना पड़ता है। सहयोग उसी प्रकार का मिलता जाता है और साधन वैसे ही जुटते जाते हैं। आरम्भ और अन्त में जमीन आसमान का जो अन्तर दिखाई पड़ता है। उसे मध्यावधि में अपनाये गये चिन्तन एवं कर्म का ही सत्परिणाम कह सकते हैं। साधना से सिद्धि की उक्ति अक्षरशः सत्य है। इस संसार में ने तो कुछ अनायास होता है और न अप्रत्याशित। प्रकृति की विलक्षण घटनाओं से लेकर मानवी उत्थान-पतन तक की समस्त हलचलें किसी क्रमबद्ध प्रतिक्रिया के सुनिश्चित परिणाम है। भले ही हम उस प्रक्रिया से परिचित न होने के कारण भाग्य, दैव आदि का कुछ भी नाम देते रहें। तथ्य ‘साधना से सिद्धि’ के सिद्धान्त की ही पग पग पर पुष्टि करते हैं। विज्ञान की साधना करते करते मनुष्य ने प्रकृति के चमत्कारी वरदान प्राप्त किये है। जब तक वे प्रयास बन नहीं पड़े थे, तब तक प्रस्तुत वैज्ञानिक उपलब्धियों में से एक भी हस्तगत नहीं हुई थी।

देवता बड़े दयालु है और अनुग्रह कर्ता भी। पर पात्रता को परखे बिना अनुग्रह को बरसा देने के दुष्परिणाम भली भाँति समझते हैं इसलिए उनकी कृपा का लाभ भी केवल उन्हीं को मिलता है जो उपयुक्त पुरुषार्थ करके अपनी पात्रता सिद्ध करते हैं। याचना से, चापलूसी से छल छद्म से भी कभी कभी कुछ मिल जाता है, पर उसे अन्यत्र ही स्वल्प एवं अपवाद तुल्य ही कहा जा सकता है। उसमें स्थिरता भी नहीं रहती। पात्रता के अभाव में उत्तराधिकार आदि में मिली प्रचुर सम्पदा भी दुर्व्यसनों में नष्ट होती और दुष्परिणाम उत्पन्न करती देखी गई है। पुरुषार्थ साधना से अभीष्ट साधनों का, सफलताओं का मिलना तो एक गौण लाभ है। असली लाभ है साधक के व्यक्तित्व का-गुण कर्म, स्वभाव का सुविकसित होना। इस उपार्जन के सहारे प्रतिभा निखरती है और उस सामर्थ्य के सहारे किसी भी दिशा में प्रगति की जा सकती है।

‘साधना’ शब्द का प्रयोग योगाभ्यास, तप-साधना पूजा-पाठ के अर्थों में होता है। इसे आत्म साधना कहना चाहिए। प्रसुप्त अन्तः शक्तियों को जगाने, उच्चस्तरीय दृष्टिकोण विकसित करने एवं क्षमताओं को सुनियोजित करने के लिए ही तत्त्वदर्शी महामनीषियों ने अपने दीर्घ कालीन अनुभवों के सहारे आत्म-विज्ञान का आविर्भाव किया है। इस विद्या को संसार की सर्वोपरि विद्या कहा गया है। यह सर्वथा सत्य है। जड़ की तुलना में चेतन की क्षमता असंख्य गुनी बढ़ी-चढ़ी है। शरीर की तुलना में प्राण अधिक महत्त्वपूर्ण है। भौतिक विज्ञान के सहारे पदार्थों को उपयोगी बनाया जाता है। आत्म विज्ञान के सहारे अन्तः चेतना की प्रखरता उभरती है। इस उभार से भौतिक सफलताओं का पथ-द्वार खुलता है। सबसे बड़ी बात यह है कि परिष्कृत आत्मचेतना-इस विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त सृष्टि की सूत्र संचालक ब्रह्म सत्ता के साथ सम्पर्क को अधिकाधिक सघन बनाते चलने का अवसर मिलता है। यह सघनता मनुष्य को सामान्य से असामान्य बनाती है। उसके पशु संस्कार घटते और दैवी तत्त्व बढ़ते चले जाते हैं। इस प्रगति की प्रतिक्रिया अनेकों ऐसे सुखद परिणामों के रूप में सामने आती है जिन्हें ईश्वरीय अनुग्रह एवं दैवी वरदान का नाम देने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

भौतिक प्रगति के उदाहरण आये दिन सामने आते रहते हैं। इसलिए उन्हें सामान्य एवं लौकिक माना जाता है और सफलताएँ कहा जाता है। आत्मिक प्रगति की दिशा में लोगों का ध्यान कम है। उस दिशा में प्रयत्न या तो होते ही नहीं, होते हैं तो अवैज्ञानिक स्तर के, फलतः आकस्मिक विभूतियाँ कभी कभी ही कदाचित किसी के पास दीख पड़ती है। जो असाधारण तथ्य यदा कदा ही दृष्टिगोचर होते हैं वे कौतूहल की तरह देखे और चमत्कार कहे जाते हैं। आत्मिक साधनाओं का फल चमत्कार समझा जाता है और उसे सिद्धि नाम दिया जाता है। वस्तुतः आत्म साधना के आधार पर आत्म चेतना की गहरी परतों को उभारने की प्रसुप्त शक्तियों के जागरण की प्रक्रिया सम्पन्न होती है और उसके सहारे जो असाधारण स्तर के सत्परिणाम उत्पन्न होते हैं उन्हें सिद्धि कहा जाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118