विकृत चिन्तन का दुर्भाग्यपूर्ण अभिशाप

November 1977

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कभी रक्त शुद्धि की बात स्वास्थ्य रक्षा का आधार मानी जाती थी, पर अब विज्ञान उस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि शरीर पर जितना आधिपत्य मस्तिष्क का है उतना अन्य किसी पदार्थ या अवयव का नहीं । मस्तिष्क विक्षुब्ध हो तो उसका प्रभाव समूचे नाड़ी संस्थान को अस्त-व्यस्त करने के रूप में पड़ता है। फलतः अवयव अपने अपने निर्धारित क्रिया कलापों को सही रूप में पूरा नहीं करते। ऐसी दशा में उन्हें रुग्णता घेरती चली जाती है।

विक्षुब्ध मस्तिष्क अपनी चिन्तन प्रणाली का सन्तुलन खो बैठता है और दैनिक कार्य पद्धति के निर्धारण संचालन में चूक पर चूक होने लगती है। अपनी स्थिति का सही मूल्यांकन कर सकना भी संभव नहीं रहता। गिरे ढंग से सोचने पर निराशा छा जाती है और भविष्य डरावना तथा अन्धकारमय दीखने लगता है। ऐसे लोग उदासी, अकर्मण्यता एवं अस्त-व्यस्तता के शिकार हो जाते हैं। यदि आवेश-उत्तेजना का अतिवाद छाया तो फिर दुष्टता, दुस्साहस, आक्रोश एवं विग्रह की घटनाएँ घटित होने लगती है। सम्पर्क में आने वालों के साथ व्यवहार अटपटे हो जाते हैं। फलतः वे लोग भी प्रत्युत्तर कटुता पूर्ण देते हैं और असहयोग, मनोमालिन्य, विद्वेष एवं झंझट भरे आदान प्रदान चल पड़ते हैं। खीज बढ़ती है। प्रत्यक्ष आक्रोश न फूटा तो छिपी हुई दुर्भावना छल, निन्दा एवं दुरभिसंधियों के रूप में अगल-बगल से फूटती है। इस जाल जंजाल में उलझे हुए व्यक्ति की मनःस्थिति अधिकाधिक विपन्न होती जाती है और आन्तरिक अशान्ति की प्रतिक्रिया जीवन के हर क्षेत्र को असफल एवं विक्षुब्ध बनाती चलती है।

मानसिक असन्तुलन का प्रतिफल आधि-व्याधि से समूचे जीवन क्षेत्र को ग्रस लेता है। शरीर रोगों का घर बन जाता है और मस्तिष्क को सनकें, घुटने और अवास्तविक मान्यताएँ जर्जरित बना देती है। ऐसे लोगों को विवेक रहित, अवास्तविक और अवाँछनीय कल्पना लोक में विचरण करते और दीवारों से टकरा कर सिर फोड़ते देखा जा सकता है। व्यक्तित्व क्रमशः अधिक डरावना और घिनौना होता जाता है। आश्रितों को विवशता वश सहानुभूति रखनी पड़े-सेवा करनी पड़े तो बात दूसरी है अन्यथा सम्पर्क क्षेत्र के लोग विरोध या घृणा न करें तो कम से कम दूर रहने और उपेक्षा करने की नीति तो अपनाते ही है। ऐसे लोग अपने को एकाकी पन अनुभव करते-नीरस जिन्दगी जीते, असफल रहते, शिकायतें करते किसी तरह जीवित भर रह पाते हैं। मौत के दिन पूरे करना उन्हें कठिन पड़ता है।

मानसिक विक्षुब्धता के लिए जिम्मेदार घटनाओं और कारणों की एक बड़ी लिस्ट आसानी से बन सकती है। जिन्दगी उतनी सरल नहीं है जितनी कि समझी जाती है। इसमें पग-पग पर संघर्ष चुनौती देते हैं। प्रतिकूलताओं, अभावों, असफलताओं, प्रतिपक्षियों और आक्रमणकारियों का घटा टोप हर किसी के सामने छाया रहता है। चैन की जिन्दगी निर्जीव पत्थर तो जीवित रह सकता है पर जीवित प्राणी के लिए तथा कथित सुख-शांति की कल्पना करते रहना भर ही भाग्य में बंदा है। इस अग्नि परीक्षा में होकर हर जीवित प्राणी को अपने अपने ढंग से गुजरना पड़ता है। कीड़े-मकोड़ों से लेकर मनुष्य वर्ग तक के हर जीवधारी को आत्मरक्षा, निर्वाह की प्रगति के लिए पग-पग पर संघर्षों में जूझना पड़ता । इनसे छुटकारा तो मरने से पहले कदाचित ही किसी को मिल पाता हो।

वस्तुस्थिति यदि समझी जा सके तो प्रतिकूलताओं की सम्भावना और संघर्ष करने की आवश्यकता को जीवन के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ तथ्य मानकर चलना पड़ेगा और उनसे निपटने के लिए आगे बढ़ने, पीछे हटने एवं समझौता करने की युद्ध नीति का आश्रय ले सकने योग्य स्वभाव बनाना पड़ेगा। हर परिस्थिति में हँसते रह सकने में ही जीवन का कलात्मक सौंदर्य है। जो उपलब्ध है उसे असंख्यों से उत्तम समझ कर सन्तोष करना चाहिए और ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए कि अपनी वर्तमान स्थिति जहाँ लाखों से पीछे है वहाँ करोड़ों से आगे भी है। लाखों से पीछे होने की बात सोचते रहा जाय तो दुर्भाग्य पर सिर धुनते रहने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं। किन्तु यदि करोड़ों से आगे होने की बात पर ध्यान केन्द्रित रखा जा सके तो सुसम्पन्नों को मिल सकने वाली प्रसन्नता से अधिक गहरी मस्ती अपने ऊपर छाई रहेगी। आगे बढ़ने का प्रयत्न किया जाय- सफलताओं के लिए साहस जुटाया जाय, पर वह सब होना चाहिए, खिलाड़ी की भावना से ही। जीत हार होती तो है, पर खिलाड़ी उसे बहुत महत्त्व नहीं देते। क्रीड़ा-विनोद के आनन्द को ही पर्याप्त मान लेते हैं और हार जीत पर अधिक ध्यान नहीं देते। ताश, चौपड़, शतरंज, कैरम, हाकी, फुटबाल आदि खेलों में रस लेने वाले लोग क्षण क्षण में मात खाने और विजयी होने का खट्टा-मीठा आनन्द लेते रहते हैं। ऐसी ही मनोभूमि रखकर जिन्दगी जीने का आनन्द लिया जा सकता है। तनिक तनिक सी बातों को पहाड़ मान बैठने और प्रतिकूलताओं की कल्पना भर से थरथराने लगने से तो सर्वत्र भयंकरता और निराशा ही छाई दिखाई पड़ेगी। ऐसी बोझिल जीवन अवधि पूरी करने में किसी को भी भारी कठिनाई अनुभव हो सकती है।

प्रतिकूलताओं की छोटी तस्वीरों को फिल्म प्रोजेक्टर पर चढ़ाने से एक ऐसी डरावनी कहानी को आँखों के सामने घुमाना आरम्भ किया जा सकता है, जिसे देखते देखते दम घुटने लगे और पसीना छूटने लगे। सोचा यह जाता है कि हम सुख चैन से जियें। मनोवाँछित परिस्थितियाँ उपलब्ध होती रहें। साधनों की कमी न रहे और जिन व्यक्तियों से सम्पर्क रहे वे सब आज्ञानुवर्ती अनुकूल आचरण किया करें। सपना अच्छा है पर कठिनाई एक ही है कि इस दुनिया का गठन ऐसा करने में विधाता ने भारी चूक कर दी है। उसे चाहिए था कि हर मनुष्य की मर्जी के मुताबिक़ उनकी एक-एक दुनिया ऐसी बनाता जिसमें किसी बात की कमी न रहती। पर कठिनाई यह हो गई कि विधाता की सृष्टि संरचना बहुद्देशीय प्रयोजनों के लिए हुई है। इसमें एक की अनुकूलता दूसरे की प्रतिकूलता बन जाती है। एक को हानि होती है ठीक उसी हेर फेर से दूसरे को लाभ मिलता है। एक जुआरी का हारना ही दूसरे का जीतना है। एक घर में मरण का रुदन दूसरे घर में जन्म का जश्न मनाये जाने का कारण बनता है। एक हारता है तो दूसरा जीतता है। प्रतियोगिता में कुछ को पुरस्कार मिलता है तो शेष को सिटपिटातें, बगलें झाँकते, खेद व्यक्त करते देखा जाता है। वर्षा से एक व्यवसायी को हानि होती है तो दूसरे को लाभ। सब को समान रूप से सुविधा रहती तो कितना अच्छा होता, पर किया क्या जाय। चूक विधाता की-दण्ड अपने मत्थे मढ़ गया। अब इतना ही संभव है कि हम प्रतिकूलताओं को स्वाभाविक मान लें और उनसे आजीवन जूझते रहने के लिए खिलाड़ी जैसी उतार चढ़ावों में समान रूप से क्रीड़ा-विनोद जैसी मनोभूमि ढालने का पूरा पूरा प्रयत्न करें। इस प्रयास में जितनी सफलता मिलेगी उतना ही सन्तुलित एवं सन्तुष्ट, सुखी एवं हँसता-हँसाता जीवन जिया जा सकेगा।

मनःस्थिति और परिस्थिति का तालमेल बिठाते हुए जीवन यात्रा के राजमार्ग पर चलने का दूरगामी कार्यक्रम बनाना चाहिए। प्रयत्न यह किया जा सकता है कि मनःस्थिति के अनुरूप परिस्थितियाँ बन जाएँ। इसके लिए साहस पुरुषार्थ, श्रम, प्रयास, प्रतिभा, साधन आदि का भरपूर प्रयोग किया जाए, किन्तु साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाय कि जो चाहा गया है उसका शत प्रतिशत पूरा हो सकना अति कठिन है। सफलता जितनी मिल जाय उतने की प्रसन्नता अनुभव की जाय। या तो सब कुछ या कुछ नहीं, की नीति गलत है। आँशिक सफलता पर सन्तोष पर सन्तोष करना बुद्धिमत्ता का परिचायक है। कितना नहीं मिला इसका लेखा जोखा रखने की अपेक्षा या सोचना अधिक अच्छा है कि कितना प्राप्त कर लिया गया। मंजिल कितनी दूर है यह सोचते रहकर खिन्न रहने की अपेक्षा सोचने का यह तरीका उत्तम है कि कितनी दूर चल लिये कितनी मंजिल कट गई। अभावों और कठिनाइयों का चिन्तन करते रहने से दिल टूटेगा और जो प्राप्त कर लिया गया उस पर दृष्टि डालने से प्रसन्नता की लहर दौड़ जाएगी । चिन्तन की दिशाधारा बदल कर खिन्नता को प्रसन्नता में बदला जा सकता है तो, यह हर दृष्टि से सस्ता सौदा है। इसमें बेखटके हाथ डाला जा सकता है और स्वल्प प्रयास में बड़ी उपलब्धि का लाभ लिया जा सकता है।

चिकित्सा विज्ञान ने इन दिनों पुराने रोगों में से कितनों के ही कारगर इलाज ढूँढ़ निकाले है और बीमारियों से मरने वालों का अनुपात काफी घट गया है। इतने पर भी कुछ नये रोग ऐसे है जो द्रुतगति से बढ़ रहे है और पूर्ण मृत्यु न सही मनुष्य जाति को अर्ध मृतक स्थिति में रहने के लिए विवश कर रहे है। हृदय रोग, मधुमेह, कैन्सर, क्षय आदि की अभिवृद्धि से सभी को चिन्ता है। अस्पतालों की रिपोर्ट इन रोगों का विवरण देती है और चिकित्सा अनुसंधान का द्वार खोलती है। किन्तु कुछ रोग ऐसे हैं जो बिस्तर पकड़ने के लिए, रोने चिल्लाने के लिए विवश नहीं करते। उनके रहते लोग अपना काम-धन्धा किसी प्रकार करते रहते हैं। अस्तु उनका लेखा जोखा भी नहीं मिलता और चिकित्सा अनुसंधान के लिए भी विशेष प्रयत्न नहीं होता। इतने पर भी वे होते इतने भयंकर है कि मनुष्य तेजी से जीवन रस समाप्त करता चला जाता है और अपने ढंग की विलक्षण व्यथा सहते सहते अकाल मृत्यु के मुख में ग्रास की तरह पिस जाता है। ऐसे रोगों में सर्वप्रथम है-मस्तिष्कीय तनाव और तज्जनित अनिद्रा अभिशाप।

यो ज्वर, अतिश्रम, दुर्घटना, आकस्मिक विपत्ति जैसे कारणों से भी यदा कदा मस्तिष्कीय आवेश आ चढ़ते हैं। और शिर भीतर ही भीतर गरम, उत्तेजित अशान्त दीखता है। उस बेचैनी में विचित्र उद्वेग उच्चाटन होता है। क्या करें, कहाँ जाय? न बैठे-चैन पड़ता है न चलते, न अपना सुहाता है न पराया न बात करने को जी करता और न चुप रहा जाता है। सोचने का तन्त्र इतना अस्त−व्यस्त हो जाता है कि नवागत कठिनाई से छुटकारा पाने का सही उपाय सोच सकना तो बन ही नहीं पड़ता, दैनिक जीवन के सामान्य कार्य और अनिवार्य उत्तर दायित्व निभाने तक कठिन हो जाते हैं। मानसिक तनाव जिस स्तर का होता है उसी अनुपात में विक्षिप्तता छाती है। हलकी बेचैनी से लेकर सिर फोड़ लेने या शिर फोड़ देने की उद्विग्नता तक के छोटे-बड़े दौर आते हैं और उस उन्माद में जो कुछ सूझता है जो बन पड़ता है वह परिस्थितियों को सुलझाता नहीं वरन् अधिकाधिक उलझता ही जाता है।

सामयिक विपत्तियों के कारण उत्पन्न हुए मानसिक तनाव फसली बुखार की तरह समय गुजरने के साथ साथ हलके होते चले जाते हैं। आवेश चिरस्थायी नहीं होते, वे ज्वार की तरह आते तो है पर भाटे की तरह उतर भी जाते हैं। जख्मों को भर देने की विशेषता हमारे रक्त में मौजूद है। विपत्तियों के आघातों की भी भर पाई कर देने की क्षमता कालचक्र में विद्यमान है। बाहरी कठिनाइयों से उत्पन्न हुए मानसिक तनाव बरसाती नाले की तरह उछल उछलकर ठंडे हो जाते हैं। समय के साथ स्मृति-विस्मृति में बदलती जाती है। जिन स्वजनों के बिछोह में जीवन सम्भव नहीं दीखता था, समयानुसार वे विस्तृत होते चले जाते हैं और उनके बिना भी निर्वाह सरलतापूर्वक होता रहता है। इसी प्रकार अमुक सुविधा छिन जाने पर भी नई असुविधाएँ सहन हो जाती है। और फिर विपन्नता भी स्वभाव में सम्मिलित होकर चिर सहचरी की तरह साथ-साथ रहने और गुजर करने लगती है।

तनाव चिरस्थायी जड़ तब जमाता है जब वह चिन्तन तन्त्र की प्रकृति का अंग बन जाता है। विकृत दृष्टिकोण के कारण हर व्यक्ति वस्तु या परिस्थिति का अँधेरा पक्ष देखने लगता है और उजला सूझ ही नहीं पड़ता। ऐसी मनःस्थिति निषेधात्मक कही जाती है और उसमें खीज और निराशा जन्य उद्विग्नता ही पल्ले बँधकर रह जाती है। ऐसे तनाव चिरस्थायी होते हैं, बहुत हुआ तो कभी कभी सन्तुलन की बिजली कौंधी अन्यथा हर दिशा में निराशा छाई और विपत्ति बरसती दीखती है। ऐसे मनुष्यों को कदाचित ही कभी प्रसन्न देखा जा सके। वे सदा असन्तुष्ट, रुष्ट दीखते हैं। छेड़ने पर उनके घाव रिसने लगते हैं और शिकायतों का मवाद बहने लगता है। किसी से उन्हें कुछ मिला भी है, क्या-यह तो स्मरण ही नहीं आता ताकि कृतज्ञता व्यक्त कर सके और उस सहयोग को सौभाग्य अनुभव कर सके। जो उपलब्ध है उसकी श्रेष्ठता जब सोची ही नहीं जा सकेगी तो अभावों के अतिरिक्त और कुछ दीखेगा भी कैसे? जब हर व्यक्ति के दोष ही ढूंढ़ने ठहरे तो फिर पूर्ण निर्दोष व्यक्ति इस संसार में तो है भी नहीं तब अपनी पसन्दगी का आदमी मिलेगा भी कौन और कहाँ ?

असन्तोष और आक्रोश के वास्तविक कारण कम ही होते हैं। वस्तुतः यह लानते, चिन्तन तन्त्र के उलट जाने से उत्पन्न होती है। अच्छा खासा ट्रक उलट जाय तो उस दुर्घटना से जान माल की भारी क्षति होती है। मस्तिष्क उलट जाय तो समझना चाहिए जीवन सम्पदा के द्वारा मिल सकने वाले सुख सौभाग्य का अन्त ही होगा। अब जो कुछ हाथ रह जाएगा वह मस्तिष्कीय तनाव का अभिशाप मात्र ही पाया जाएगा ।

सिर गरम होना एक बात है और तनाव रहना दूसरी। लू लगना, जुकाम, ज्वर, आधा शीशी आदि के कारण सिर गरम हो सकता है और उसके लिए एस्फ्रो जैसी खाने की और आइओडैक्स जैसी लगाने की दवाएँ काम दे सकती है। गीली मिट्टी की पट्टी बाँधने से भी सामयिक सिर दर्द दूर हो सकता है। किन्तु आन्तरिक असन्तोष एवं विक्षोभ के कारण जो आक्रोश उत्पन्न होगा वह धीरे-धीरे स्थायी मानसिक तनाव का रूप धारण कर लेगा। उस रुग्णता के कारण ज्वराक्रान्तों की तरह शिर गरम भले ही न लगे पर भीतर ही भीतर ऐसा लगेगा मानों खोपड़ी चटक रही है-नसें फट रही है और सिर के भीतर अशान्ति की आग सुलगने का धुँआ घुट रहा है। ऐसे तनाव ‘हाइ ब्लड प्रेशर’ जैसे कष्ट कारक लगते हैं, यद्यपि डाक्टर लोग रक्त चाप सामान्य होने की ही घोषणा करते रहते हैं।

मस्तिष्क रुग्ण होगा तो शरीर का स्वस्थ रह सकना असम्भव है। जितनी बीमारियाँ चिकित्सा शास्त्र की पकड़ में आ गई है उनसे सहस्रों गुनी वे हैं, जिनका कोई स्वरूप, निदान एवं उपचार निर्धारित नहीं हो सका। इतने पर भी वे जीवन को नीरस, अस्त-व्यस्त विपन्न एवं असफल बनाने में बढ़ी-चढ़ी भूमिका प्रस्तुत करती है। मस्तिष्क पर छाया हुआ तनाव शरीर को अपंग बनाकर रख देता है। असन्तुलित व्यक्तित्व न परिवार में चैन से रह पाता है और न स्वजन सम्बन्धियों को सन्तुष्ट सहयोगी बना पाता है। सम्पर्क क्षेत्र में उसका व्यवहार अटपटा होता है फलतः उपहासास्पद भी बनना पड़ता है और घृणास्पद भी। ऐसी दशा में न शान्तिपूर्वक निर्वाह सम्भव होता है और न प्रगति का द्वार खुलता दीखता है।

जीवन को सुखी, सन्तुष्ट समुन्नत, सफल बनाना हो तो हमें मस्तिष्कीय सन्तुलन की ओर ध्यान देना चाहिए। यह स्वस्थ चिन्तन की प्रक्रिया अपनाने से ही सम्भव हो सकता है। यथार्थता वादी दृष्टिकोण अपनाया जा सके और हलकी-फुलकी जिन्दगी का महत्त्व समझा जा सके तो सामान्य परिस्थितियों में भी असामान्य लोगों की तरह आनन्दित जीवन जिया जा सकता है। अपने समय के सर्वनाशी महारोग मानसिक तनाव से बचना हो तो इसी विवेकशील दूरदर्शिता को अपनाने की आवश्यकता अनुभव करनी होगी।


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