श्रद्धा व्यक्तित्व के परिष्कार का एकमात्र अवलम्बन

November 1977

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जीवात्मा ने तीन कलेवर ओढ़ रखे हैं, इन्हें स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर कहते हैं। स्थूल शरीर की शक्ति किया है। इसके माध्यम से विचित्र प्रकार के उपार्जन होते हैं। श्रम का महत्त्व हम सभी जानते हैं। जो कुछ कमाया उगाया जाता है उसका प्रमुख आधार श्रम ही होता है, सक्रियता के अभाव में अभीष्ट उपलब्धियाँ प्राप्त करना तो दूर-जीवित रह सकना तक सम्भव न हो सकेगा।

दूसरा कलेवर हैं सूक्ष्म शरीर जिसे मनःसंस्थान कहा जा सकता है। चिन्तन इसी की शक्ति हैं। कल्पना, निर्णय, विश्वास के मन, बुद्धि, चित्त के नाम से-चेतना अचेतन, उच्च चेतन के नाम से-इस चिन्तन को चित् शक्ति के नाम से जाना जाता है। शरीर में सक्रियता मन में सूझबूझ यही दो प्रमुख आधार भौतिक जीवन की विभिन्न क्षेत्रों की प्रगतियों ओर समृद्धियों को उपलब्ध करते हैं। श्रम और बुद्धि का ही वह सब उत्पादन हैं, जिसे हम सम्पदाओं और सुखानुभूति के साधनों की तरह देखते हैं। भौतिक उपलब्धियों का रथ इन्हीं दो चक्रों के सहारे घूमता है। इन्हीं की न्यूनता से पिछड़ापन बना रहता है और जब वे पर्याप्त मात्रा में होते हैं तो सफलताओं के अम्बार लगाते चले जाते हैं। इस तथ्य को सभी लोग जानते हैं और क्रियाशक्ति बढ़ाने के लिए शरीर को तथा बुद्धिमत्ता बढ़ाने के लिए मन को परिपुष्ट बनाने के लिए यथा सम्भव प्रयत्न भी करते हैं।

शरीरों में क्रमशः एक के बाद दूसरा अधिक श्रेष्ठ हैं-अति श्रेष्ठ हैं। शरीरगत श्रम से थोड़ा-सा ही पारिश्रमिक प्राप्त किया जा सकता है किन्तु बुद्धि बल के सहारे प्रबुद्ध व्यक्ति प्रचुर परिणाम में धन और यश प्राप्त करते हैं। आलस्य से होने वाली हानि की तुलना में प्रमाद द्वारा प्रस्तुत हानि अत्यधिक होती हैं। इस प्रकार श्रमजीवी की तुलना में बुद्धिजीवी को अधिक श्रेय मिलता है। स्पष्ट है कि स्थूल शरीर का महत्त्व होते हुए भी सूक्ष्म शरीर की क्षमता का मूल्य अधिक हैं। श्रम की तुलना में चिन्तन की गरिमा का स्तर ऊँचा होता है।

तीसरा शरीर कारण शरीर हैं। इसे अन्तःकरण अन्तरात्मा आदि नामों से पुकारा जाता है। भाव सम्वेदनाओं का क्षेत्र यही हैं विश्वास की नींव इसी में जमती हैं। समूचा व्यक्ति इसी क्षेत्र से उद्भूत होने वाली प्रेरणाओं के आधार पर ढलता है। आकांक्षाएँ-अभिलाषाएँ यही से उभरती हैं। व्यक्तित्व को हिला डालने वाली ओर मनुष्य को कहीं से कहीं घसीट ले जाने वाली भाव सम्वेदनाओं की गंगोत्री इसी केन्द्र को कह सकते हैं। व्यक्ति, जैसा कुछ हैं इसी अन्तः करण की प्रतिमूर्ति हैं क्या पिछड़े, क्या क्या प्रगतिशील, क्या सुर, क्या असुर, इसी क्षेत्र की स्थिति के अनुरूप ढालते हैं।

जीवन की दिशाधारा को मस्तिष्क निर्धारित नहीं करता और न शरीर की क्रियाशीलता स्वतन्त्र हैं। इन दोनों को अन्तःकरण का गुलाम कह सकते हैं। उनका अपना अस्तित्व निर्दिष्ट दिशा में चलता रहता है। किधर चलना हैं इसका निर्धारण आकांक्षाओं का क्षेत्र अन्तःकरण ही करता है। जैसी आकांक्षाएँ उभरती हैं। उसी के अनुरूप मस्तिष्क की सारी मशीन सोचने में लग जाती हैं और शरीर के कल पुर्जे इसी निर्देश का पालन करने में जुट जाते हैं। मन और शरीर ही काम करते दिखाई पड़ते हैं, पर वस्तुतः वे यंत्रवत हैं और अपने असली मालिक अन्तःकरण की प्रेरणाओं के अनुरूप उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ही निरन्तर काम करते हैं। व्यक्तित्व के मूल में आस्थाएँ ही काम करती हैं। गतिविधियों का संचालन आकांक्षाओं के अनुरूप होता है। यही हैं मानव तत्त्व का सार। मनुष्यों की शारीरिक संरचना लगभग एक जैसी हैं उनके बीच नगण्य सा ही अन्तर पाया जाता है किन्तु पतित-प्रखर और उत्कृष्ट के मनुष्यों के बीच जो अन्तर पाया जाता है, उसे जमीन, आसमान जैसा कहा जा सकता है। सौभाग्य एवं दुर्भाग्य की आधार शिला यहीं रखी जाती हैं। व्यक्तित्व की ढलाई इसी दिव्य संस्थान में होती रहती हैं।

अन्तः करण की उत्कृष्टता को श्रद्धा के नाम से जाना जाता है, उसका व्यावहारिक स्वरूप हैं भक्ति। यों साधारण बोलचाल में दोनों का उपयोग पर्यायवाची शब्दों के रूप में होता है, फिर भी कुछ अन्तर तो हैं ही श्रद्धा अन्तरात्मा की आस्था हैं। श्रेष्ठता के प्रति असीम प्यार के रूप में उसकी व्याख्या की जा सकती हैं। भक्ति उसका व्यावहारिक रूप हैं। करुणा, उदारता, सेवा, आत्मीयता के आधार पर चलने वाली विभिन्न गतिविधियों को भक्ति कहा जा सकता है। देश भक्ति आदर्श भक्ति, ईश्वर भक्ति आदि के रूपों में त्याग-बलिदान के तप-साधना के,अनुकरणीय आदर्शवादिता के अनेकों उदाहरण इसी भक्ति भावना की प्रेरणा से बन पड़ते हैं।

आस्थाएँ आकांक्षाएँ जब परिपक्व स्थिति में पहुँचती हैं और निश्चयपूर्वक अपने लक्ष्य की ओर बढ़ती हैं। तो उन्हें संकल्प कहते हैं। संकल्प का प्रचण्ड शक्ति सर्वविदित हैं संकल्पों के धनी व्यक्तियों ने ही सामान्य साधनों और सामान्य अवसरों में भी चमत्कारी सफलताएँ उपलब्ध की हैं संकल्प की प्रखरता मस्तिष्क और शरीर दोनों को अभीष्ट दिशा में घसीट ले जाती हैं ओर असंख्य अवरोधों से टकराती हुई उस लक्ष्य तक पहुँचती हैं, जिसे आरम्भ में असम्भव तक समझा जाता था। पुरुषार्थियों की यश गाथा से इतिहास के पन्ने भरें पड़े हैं। वस्तुतः उन्हें संकल्प शक्ति का चमत्कार ही कह सकते हैं। यहाँ इतना और समझने की आवश्यकता है कि संकल्प उभर कर आने से पूर्व विश्वास बनकर मनःक्षेत्र में अपनी जड़े जमाता है या उस बीज का प्रत्यक्ष पौधा संकल्प रूप में प्रकट होता है विश्वास की प्रतिक्रिया ही संकल्प हैं। यही कारण हैं कि अन्तः करण की उच्चस्तरीय आस्थाओं को श्रद्धा विश्वास का रूप दिया गया है। वे उत्कृष्ट स्तर के होने पर शिव पार्वती का युग्म बनते हैं और निकृष्ट होने पर आसुरी क्रूर कर्मों में इस प्रकार निरत दिखाई पड़ते हैं जैसा कि उपाख्यानों में दानवों एवं शैतानों का चित्रण किया जाता है।

जीवात्मा के उच्चतम आवरण कारण शरीर की अन्तःकरण की, स्थिति एवं शक्ति को यदि ठीक तरह समझा जा सके तो मात्र उसी को व्यक्तित्व का सारतत्त्व कहा जाएगा ।

गीताकार ने इस तथ्य को और भी अधिक स्पष्ट शब्दों में कहा है “श्रद्धा मयोयं पुरुष यो यच्छद्धः स एवस” अर्थात् जीव की स्थिति श्रद्धा के साथ लिपटी हुई हैं। जिसकी जैसी श्रद्धा है। यह वैसा ही हैं। क्रिया, विचारणा और भावना यहीं चेतना की तीन शक्तियाँ हैं। श्रेष्ठता की दिशा में जब वे बढ़ती हैं तो सत्कर्म, सद्ज्ञान एवं सद्भाव के रूप में उन्हें काम करते देखते हैं। इन्हें सुविकसित करने के विज्ञान को अध्यात्म कहते हैं। ब्रह्म विद्या का विशालकाय ढाँचा इसी के निर्मित खड़ा किया गया है। चेतना को श्रेष्ठता के साथ जोड़ देने के प्रयास को ही योग कहते हैं। योग साधना की तीन सही प्रमुख धाराएँ हैं-कर्म योग, ज्ञान योग, भक्ति योग इन्हीं के सहारे जीवन लक्ष्य प्राप्त होने की स्थिति बनती हैं। इसी त्रिवेणी में स्नान करने से परम पद की प्राप्ति का लाभ मिलता है।

उपरोक्त विवेचना के सहारे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। कि मानव -जीवन में सबसे बड़ी, सबसे ऊँची, सबसे समर्थ शक्ति ‘श्रद्धा’ की ही हैं । मनः स्थिति की परिस्थितियों को सृजन कर्ता कहा गया है। शरीर को जन्म तो माता-पिता के प्रयत्न से मिलता है। पर आत्मा को उत्कृष्टता, श्रद्धा और विश्वास रूपी दिव्य-जननी और जनक की अनुकम्पा का फल माना जा सकता है। विधाता द्वारा भाग्य लिखे जाने के अलंकार में तथ्य इतना ही हैं कि अपना अन्तःकरण अपने स्तर के अनुरूप मनुष्य की प्रगति, अवनति आदि का तात्त्विक स्वरूप समझना हो तो उन्हें अन्तःकरण के ही वरदान , अभिशाप कह सकते हैं। लोक व्यवहार में कहा जाता है कि ‘मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप हैं। गीता कहती हैं- आत्मवं-ह्मात्मनः बन्धु-आत्मैव रिपुरात्मनः” अर्थात् मनुष्य स्वतः ही अपना मित्र और शत्रु हैं । उत्थान और पतन की कुँजी पूरी तरह उसे अपने हाथ में हैं और वह सुरक्षित एवं सुनिश्चित रूप में अन्तःकरण में रखी रहती हैं। इसी चाबी को शास्त्रकारों ने आस्था, निष्ठा, श्रद्धा भक्ति, विश्वास, संकल्प आदि के नामों से पुकारा हैं। भावनाओं और आकांक्षाओं के रूप में भी इसी तथ्य की अलग-अलग ढंग से व्याख्या की जाती।

उल्लसित वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य का निर्धारण पूर्णतया सत् श्रद्धा के हाथ में हैं। उसी का महत्त्व, मर्म, उपार्जन, अभिवर्धन सिखाने के लिए भूतकाल की कथा गाथाओं को पुरातन उपाख्यानों में पुराण के नाम से जाना जाता है । भूत भविष्य और वर्तमान की सुखद सम्भावनाओं का निर्माण अन्तःकरण के जिस क्षेत्र में विनिर्मित होता है, उसका स्वरूप समझना हो तो एक ‘श्रद्धा’ शब्द का उपयोग करने से वह प्रयोजन पूरा हो सकता है।

बीज ही वृक्ष बनता है और श्रद्धा ही व्यक्तित्व का रूप धारण करती हैं, मनुष्य जो कुछ बनता हैं-जो कुछ पाता है वह समूचा निर्माण ‘श्रद्धा’ शक्ति के चमत्कार के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। यदि इस ब्रह्म विज्ञान के, आत्म-विज्ञान के गूढ़ रहस्य को जा सके तो प्रतीत होगा कि तत्त्वदर्शियों के वेदान्त प्रतिपादन सनातन सत्य की अध्यात्मा ब्रह्म-प्रज्ञानं, तत्त्वमसि, सोऽहम्, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् आदि सूत्र में घोषित किया है। पतन से बचने और उत्थान अपनाने का सुनिश्चित उपाय बताते हुए शास्त्रकार इस उत्तरदायित्व को मनुष्य के अपने कन्धे पर ही लाद देते हैं-वे कहते हैं-उद्धरेत् आत्मनात्मानं-नात्मनं अवसादयेत्” अर्थात् अपना उद्धार आप करो-अपने को गिराओ मत । उनका सुनिश्चित मत हैं कि उत्थान पतन की मुहिम हर मनुष्य स्वतः ही सम्भालता है। परिस्थितियाँ तो उसका अनुगमन भर करती हैं दिशा निर्धारण और प्रगति प्रयास अपना होता हैं- साधन और सहयोग तो उसी चुम्बकत्व के सहारे खिंचते भर चले आते हैं। उत्थान या पतन में से जो भी अपना गन्तव्य हो -व्यक्तियों ,साधनों एवं परिस्थितियों का सरंजाम भी उसी स्तर का जुटता चला जाता है। श्रद्धा की इसी गरिमा को देखते हुए अध्यात्म शास्त्र ने मानवी सत्ता में विद्यमान साक्षात् ईश्वरीय शक्ति के रूप में अभिवन्दन किया है। उसी की उपलब्धि को आत्मोपलब्धि कहा गया है और जीवन लक्ष्य की पूर्ति का केन्द्र बिन्दू माना हैं। न केवल आत्मिक वरन् भौतिक प्रगति का आधार भी सजग और समर्थ व्यक्तित्व ही रहता है। उसका निर्माण भी उसी स्तर की निष्ठाएँ करती हैं। इतना ही नहीं दुष्ट दुरात्मा, क्रूर कर्मी ओर दुस्साहसी समझे जाने वाले लोग भी अपनी दानवी क्षमताओं का विकास इसी श्रद्धा तत्त्व के अहंकारी आसुरी स्तर का सहारा लेकर सम्पन्न करते हैं। ईश्वर ने अपने संसार का स्वामित्व अपने हाथ में रखा हैं, किन्तु एक छोटी दुनिया को निजी व्यक्तित्व के रूप में मनुष्य के हाथ में ही सौंप दिया है। कर्म फल पाने की व्यवस्था में तो वह पराधीन हैं, किन्तु कर्म कुछ भी करते रहने की पूरी तरह छूट ही हैं। इसी स्वाधीनता के सहारे वह अपने भाग्य का विधाता और स्तर का निर्माता बन सकने में पूर्णतया सफल होता है।


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