प्राणाग्नि का उद्दीपन कुण्डलिनी जागरण के लिए

November 1977

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कुण्डलिनी जागरण में सूर्यभेदन प्राणायाम की प्रमुखता है। उसमें लोम-विलोम क्रम से एक बार बाएँ स्वर से साँस लेकर दाहिने से निकालने की और दूसरी बार दाहिने से लेकर बांये से निकालने की क्रिया लगातार करने पड़ती है। साथ ही इस मंथन का ‘प्रहार’ मूलाधार में प्रसुप्त महा अग्नि पर प्रसुप्त सर्पिणी पर करना पड़ता है। आक्सीजन के संयोग से अग्नि भड़कती है। प्राण की अभीष्ट मात्रा प्रसुप्त अग्नि चिनगारी को मिलते रहने से उसके भड़कने और दावानल का रूप धारण करने में देर नहीं लगती। यही प्राण प्रहार प्रक्रिया सूर्य भेदन प्राणायाम का मुख्य प्रयोजन है।

अग्नि और प्राण के संयोग एवं प्रहार क्रम को प्रहार प्रताड़ना आदि नाम दिये गये है। जागरण के इस प्रयोग का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-

चक्र मध्ये स्थिता देवाः कम्पतिवायु ताडनात्। कुण्डल्यपि महामाया कैलाशे सा विलीयते -शिव संहिता

प्राणवायु के आघात से चक्रों के मध्य रहने वाले देवता जागते हैं और महामाया कुण्डलिनी कैलाश पति शिव से जा मिलती है।

योगाभ्यासेन मरुता साग्निना बोधिताँ सती। स्फुरिता हृदयाकाशे नागरूपा महाज्ज्वला -हत्रिशिखब्रहाह्मणोपनिषद्

योगाभ्यास द्वारा प्राण वायु तथा अग्नि से प्रदीप्त यह महासती कुण्डलिनी ऊपर उठकर हृदयाकाश में पहुँचती है। और वहाँ अत्यन्त प्रकाश वर्ण नाग के रूप में स्फुरित होती है।

येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम्। मुखेनाच्खद्य तद्द्वार प्रसुप्ता परमेश्वरी। प्रबुद्धा बहिनयोगेन मनसा मरुता सह॥

सूचिवद्गुणमादायं प्रजत्यूर्ध्व सुपुम्नया। उद्धाटयेत्कपाट तु यथा कुँचिकया हठात्॥ कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वार विभदयेत्-ध्यानबिन्दुपनिषद

जिस मार्ग से ब्रह्म स्थान तक सुगमता से जाया जा सकता है, उस मार्ग का द्वार परमेश्वरी कुण्डलिनी अपने मुँह से ढके सोयी हुई है। अग्नि तथा मन प्रेरित प्राणवायु के सम्मिलित योग से वह जागृत होती है। और जैसे सुई के साथ धागा जाता है, उसी प्रकार प्राणवायु के साथ वह कुण्डलिनी सुषुम्ना पथ से ऊपर जाती है। जैसे कुञ्जी से हठात् द्वार खोल दिया जाता है, वैसे ही योगी कुण्डलिनी शक्ति से मोक्ष द्वार को भेदते हैं।

ज्वलनाधातपवना धादोरुन्निद्रितोऽहितोऽहिराट्। ब्रह्मग्रन्थि ततो भित्वा विष्णुग्रन्थि भिनत्यतः। रुद्रग्रन्थि च भित्वैव कमलानि भिनत्ति षट्।

सहस्रकमले शक्ति शिवेन सह मोदते॥ सैवावस्था परा ज्ञेका सैव निवृतिकारणा -योगकुण्डल्युपनिषद्

अग्नि और प्राणवायु दोनों से आघात से सुप्त कुण्डलिनी जाग पड़ती है और ब्रह्मग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि, रुद्रग्रन्थि तथा षट्चक्र का भेदन करती हुई सहस्रार कमल में जा पहुँचती है। वहाँ यह शक्ति शिव के साथ मिलकर आनंद की स्थिति में निवास करती है। वही श्रेष्ठ परा स्थिति है। यही मोक्ष का कारण है।

प्राण स्थानं ततोवन्हिः प्राणापानौ च सत्वरम्। मिलित्वा कुण्डली याति प्रसुप्ता कुण्डलाकृतिः। तेनाग्नाच संतृप्ता पवने परिचालिता। प्रसाय स्व शरीरे तु सुषुम्नावदनान्तरे-योग कुण्डल्युपनिषद्

प्राण और अपान के संयोग से महा अग्नि दीप्तिमान होती है। और कुण्डलिनी जगती है। प्राणवायु में तीव्रता आने से वह अग्नि भी तीव्र होती जाती है और अपना क्षेत्र विस्तार करती है।

ततो वन्हि प्रतापेन प्राणसंधर्षणेन च। दन्डाहता भुजंगीव कुण्डली संप्रबुद्धचते-योगरसायनम्

अग्नि के ताप तथा प्राण के संघर्षण से उत्पन्न ऊर्जा से कुण्डली प्रबुद्ध होकर वैसे ही सीधी हो जाती है जैसे दण्ड से आहत सर्पिणी।

तदानिल शिखा दीर्धा जायते वायुनाहता। तेन कुण्डलिनी सुप्ता संतप्ता सप्रबुध्य ते-हठयोग प्रदीपिका

प्राणवायु के प्रहार से अग्नि शिखा प्रदीप्त होती है और उसकी गर्मी से प्रसुप्त कुण्डलिनी जाग पड़ती है। सूर्यभेदन प्राणायाम द्वारा अग्नि उत्पन्न करने के लिए उपकरणों से रगड़ उत्पन्न करती पड़ती है। वे इड़ा और पिंगला नामक दो प्राण प्रवाह है। जो सुषुम्ना के-मेरुदण्ड के मध्य में रहते हैं। सामान्यतया उनकी गतिशीलता इतनी ही रहती है कि शरीर निर्वाह के लिए जितनी आवश्यक है उतनी ऊर्जा उत्पन्न होती रहें। अधिक मात्रा में प्राण उत्पादन अभीष्ट हो तो इन प्रवाहों को अधिक सक्रिय करना पड़ता है। मन्दी आग पर कुछ पकाना हो तो चूल्हे में सामान्य गर्मी बनाये रहने से काम चल जाता है किन्तु यदि खौलाने योग्य ताप की आवश्यकता हो तो अधिक ईंधन डालने के लिए हवा धोंकने का प्रबन्ध करना पड़ता है। इस प्रयोजन के लिए इडा और पिंगला को अधिक गतिशील बनाने के लिए सूर्यभेदन प्राणायाम का आश्रय लिया जाता है। इडा पिंगला का महत्त्व बताते हुए कहा गया है।

शक्तिरूपः स्थितश्चन्द्रो वामनाडी प्रवाहकः। दक्षनाडी प्रवाहश्च शम्भुरूपो दिवाकरः-श्वि स्वरोदय

वाम नाड़ी का प्रवाह करने वाला चन्द्रमा शक्ति रूप से और दक्षिण नाड़ी को प्रवाहक सूर्य शिव रूप से स्थित रहता है।

मेरोर्बाहन्यप्रदेशे शशिमिहिरशिरे सव्यदक्षे निषण्णे मध्ये नाड़ी सुषुम्णा त्रितयगुणमयी चन्द्रसूर्याग्निरूपा। धुस्तुरस्मेरपुष्पग्रथिततमवपुः कन्दमध्याच्छिरःस्था वज्राख्या मेढ्रदेशाच्छिरसि परिगता मध्यमेऽस्या ज्ज्वलन्ती-षट्चक्र निरूपणम-2

मेरुदण्ड के बाहर बाईं और चन्द्रमा के प्रकाश के समान इड़ा नाड़ी, सूर्य के प्रकाश के समान पिंगला नाड़ी है। इड़ा से शक्ति रूप और पिंगला से शिव रूप का बोध होता है। मेरुदण्ड के भीतर अग्नि रूप सुषुम्ना है। भ्रू मध्य भाग में इन तीनों का संगम होता है। यह तीनों नाड़ियां जननेन्द्रिय मूल में स्थित धतूरे के पुष्प के समान कन्द से उत्पन्न होकर ऊपर मस्तक तक जाती है।

प्राणायाम में श्वास को खींचना फेंकना भर ही नहीं होता वरन् उसके आवागमन की गति को नियन्त्रित रखना होता है। उनकी चाल एक जैसी रहनी चाहिए। कुम्भक के प्रहार रुकने का समय और वापसी की प्रवाह प्रक्रिया इन सब में समय एवं गति की क्रमबद्धता बनी रहनी आवश्यक है। मस्त व्यस्तता से अनियमितता और नियन्त्रण न रहने से प्राण योग का आधार ही नष्ट हो जाता है और वह मात्र गहरी साँस लेने की डीप ब्रिदिंग की- सामान्य व्यायाम परिपाटी मात्र बन कर स्वल्प फलदायक रह जाती है।

तात्त्विकी प्राणायामों में श्वास क्रिया की एक सुनिश्चित क्रम व्यवस्था बना कर उसमें ‘ताल’ उत्पन्न किया जाता है। संगीत शास्त्र के जानकार समझते हैं कि ‘ताल’ किसे कहते हैं ? उसके आधार पर ही ताल वाद्य बजाने की शिक्षा दी जाती है और स्वर लहरी का सौंदर्य निखरता है। ताल का ज्ञान न होने पर ढोलक, तबला, मजीरा, करताल आदि बजाये जाएँ तो उससे कर्ण कटु कर्कशता ही उत्पन्न होगी और सुनने वालों के कानों को अखरेगी। महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए की गई प्राण योग की साधना में जहाँ श्रद्धा विश्वास भरी संकल्प शक्ति का समावेश करना है वहाँ उसकी तालबद्धता का अभ्यास करना भी आवश्यक होता है।

ताल से कितनी प्रचण्ड शक्ति उत्पन्न होती है उसे विज्ञान वेत्ता भली प्रकार जानते हैं। पुलों पर से सेना को लैफ्ट राइट करते हुए नहीं निकलने दिया जाता है। उन पर से गुजरते हुए वे चाल को अस्त व्यस्त रखते हैं।

ताल बद्ध कदम पड़ने से उत्पन्न सूक्ष्म तरंगें पुल में दरारें डाल सकती है। एक भारी गर्डर छत में लटका दिया जाय और उस पर कार्क जैसी हलकी वस्तु के तालबद्ध आघात पड़ते रहने की यांत्रिक व्यवस्था कर दी जाय तो उन स्वल्प आघातों से भी उत्पन्न प्रचण्ड शक्ति के फलस्वरूप गर्डर में थरथराहट दृष्टिगोचर होने लगेगी।

एक नियत गति से काँच के गिलास के पास ध्वनि की जाय तो वह उन आघातों से टूट जाएगा । संगीत का शारीरिक और मानसिक प्रभाव होता है उसका स्वास्थ्य संवर्द्धन के लिए-रोग निवारण के लिए सफल प्रयोग हो रहा है। पशुओं का दूध ओर पक्षियों की प्रजनन क्षमता बढ़ाने में क्रमबद्ध संगीत के लाभ देखे गये है। पेड़ पौधों को कृषि उपज को बढ़ाने में भी संगीत का उत्साहवर्धक उपयोग होता है।

‘स्टोन हैन्ज्स’ के पुराने अवशेष में यह विशेषता है कि मध्यम स्वर लहरी के ध्वनि प्रवाह से वे काँपने लगते हैं अस्तु उस क्षेत्र में न केवल बजाना वरन् गाना भी मना है। चेतावनी के रूप में वहाँ यह सूचना टँगी है कि तालबद्धता इन अवशेषों को गिरा सकती है इसलिए यहाँ वैसा कुछ न किया जाय।

लोम विलोम प्राणायाम क्रम में यह ताल प्रक्रिया विशेष रूप उत्पन्न होती है। एक ही क्रम बना रहने से घुमावदार ‘सर्किट’ बनता है। पर उलट पुलट का क्रम दुहराने से ताल की उत्पत्ति होती है। सूर्यवेधन प्राणायाम में तालबद्धता का उत्पन्न करना स्थूल शरीर गत ऊर्जा को एकत्रित, प्रज्वलित और प्रखर बनाता है। संकल्प शक्ति के आधार पर खींचा हुआ दिव्य प्राण आत्म प्राण की मूलाधार स्थिति को प्रज्वलित करता है। इसी आधार पर प्रसुप्ति जागृति में परिणित होती है और साधक को आत्म सत्ता के अंतर्गत दिव्य ऊर्जा का अभिवर्धन दृष्टिगोचर होता है। योग शास्त्र में दिव्य प्राण को देवता-कुण्डलिनी अग्नि को दिव्य अग्नि कहा गया है और उसके जागरण से अनेकों दिव्य लाभ मिलने की बात कही गई है।

अपश्यं गोपामनिपद्यमानमा च परा च पथिभिश्चरन्तम्। स सध्रीचीः स विषूचीर्वसान आवरीवर्ति भुवनेष्वन्तः -एतरेय आरण्यक

मैंने प्राण को देखा है- साक्षत्कार किया है। यह प्राण सब इन्द्रियों का गोपा (रक्षक) है। यह कभी नष्ट नहीं होने वाला है। यह भिन्न भिन्न मार्गों अर्थात् नाड़ियों के द्वारा आता और जाता है। मुख तथा नासिक के द्वार क्षण-क्षण में इस शरीर में आता है तथा फिर बाहर चला जाता है यह प्राण शरीर में अध्यात्म रूप में-वायु के रूप में है, परन्तु वस्तुतः यह आधि देव रूप में सूर्य है।

ब्रह्मादयोऽपि त्रिदशाः पवनाभ्यासतत्पराः। अभूवत्रन्त कभया तस्मात्पवनमभ्यसेत्-योग सन्ध्या पृ0 62

ब्रह्म, विष्णु, महेश आदि भी सदा प्राणवायु के द्वारा ही कार्य करते हैं, इसलिए इस वायु को संयमित करने का अभ्यास करना ही चाहिए।

जागृत प्राण ऊर्जा स्थूल शरीर एवं सूक्ष्म शरीर के जिस भी भाग में पहुँचती है वहीं की प्रसुप्ति दिव्य सामर्थ्य सजग एवं सक्रिय होने लगती है। कुण्डलिनी का प्रभाव एवं प्रकाश पहुँचने से जो विभूतियाँ उभरती है उनका उल्लेख कुण्डलिनी स्तवन के रूप में इस प्रकार किया गया है-

हृत्पद्यस्था प्राण शक्तिः कण्ठस्था स्पप्न नायिका। तालुस्था त्वं सदा धारा विन्दुस्था विन्दु मालिनी। मूले त्वं कुण्डली शक्तिर्व्यापिनी केश मूलगा॥

हृदय चक्र में प्राण शक्ति, कण्ठ चक्र में दिव्य दृष्टि, तालु में धारणा, बिन्दु में बिन्दु मालिनी केश मूल में व्यापिनी और मूलाधार चक्र में तुम्हीं कुण्डलिनी शक्ति हो।

कीर्ति कान्तिश्च नैरुज्यं सर्वेषाँ प्रियताँ व्रजेत् विख्यातं चपि लोकेषु मुक्त्वःन्ते मोक्ष माप्नुयात्॥

उस महा शक्ति की कृपा से कीर्ति क्रान्ति, आरोग्य, लोक प्रियता, सत्कार आदि मिलते हैं और अन्त में मोक्ष लाभ होता है।


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