प्रतिकूलताओं और अभावों की भी उपयोगिता है।

November 1977

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भगवान के इस विश्व उद्यान में जहाँ एक और प्रगति के प्रचुर आधार भरे पड़े हैं और सुख साधनों की भरमार हैं, वहाँ विकृतियों ओर अवाँछनीयताओं की भी कमी नहीं । दैवी सत्प्रवृत्तियों की तरह दुष्टता और दुर्बुद्धि का भी वैभव विस्तार छाया दीखता है। कई बार यह असमंजस होता है कि सृष्टा ने अपनी इस सुरम्य कलाकृति को ऐसी विसंगतियों से क्यों भर दिया कि एक ओर जहाँ श्रेष्ठता की कमी नहीं, दूसरी ओर वहाँ दुष्टता भी सृष्टि सौंदर्य को निगल जाने के मनसूबे बाँधती रहती हैं। जब नीति बनी तो अनीति के अस्तित्व की क्या आवश्यकता थीं? जब देव मौजूद थे तो दैत्यों का प्रकटीकरण किस लिए हुआ?

उपभोक्ता की दृष्टि से हमारा यह सोचना ठीक हो सकता है, पर यदि हम निर्माता की स्थिति में होते तो समस्या दूसरे ही रूप में सामने होती ओर उसका समाधान करने के लिए हमें भी वही करना पड़ता जो परमेश्वर को करना पड़ा है। तथ्य यह है कि अनुदान कितने ही मूल्यवान क्यों न हों उनका महत्त्व समझना ओर उपयोग में सतर्कता बरतना तब तक सम्भव हो नहीं हो सकता जब तक कि अभाव या प्रतिकूलता की स्थिति सामने न हो। मात्र सरलता बनी रहने पर तो कठिनाई की कल्पना ही न होंगी और तुलना करने के लिए कोई मापदण्ड सामने न रहने पर उपलब्धि का न तो कोई मूल्य समझा जा सकेगा और न उसमें किसी प्रकार का आनन्द रह जाएगा । जिन्हें निरन्तर प्रचुर सुविधाएँ मिली रहती हैं उन्हें वे भार प्रतीत होने लगती हैं और वैसा रस नहीं लगता, जैसा कि अभाव ग्रस्त स्थिति वालों को उसी को पाने में स्वर्ग सौभाग्य जैसा आनन्द आता है। रसास्वादन में जितना श्रेय सुख-साधनों को हैं उतना ही महत्त्व उस अभावग्रस्त स्थिति का हैं जिसके कारण उन पदार्थों की आकुल आकांक्षा बनी रहती हैं। कड़ी भूख लगने पर रूखी सूखी रोटी भी अत्यन्त स्वादिष्ट लगती हैं जब कि पेट भरा रहने पर व्यंजनों पर भी नाक-भौं सिकोड़नी पड़ती हैं। भोजन की स्वादिष्टता का जितना मूल्य हैं उससे अधिक कड़ाके की भूख लगने का हैं। अभाव की कठिनाई भाव का मूल्यांकन के कारण ही सन्तोष और आनन्द मिलता है। इस आनन्द के लिए ही आकुल आकांक्षा उत्पन्न होती हैं और उसे प्राप्त करने के लिए कठोर परिश्रम करने का साहस उठता है। प्राणियों को विभिन्न प्रकार की हलचलें करने की प्रेरणा इसी से मिलती हैं। मस्तिष्क को उसके आधार खड़े करने के लिए सोच विचार करना पड़ता है। शरीर की तत्परता और मन की तन्मयता का प्रेरणा केन्द्र अभीष्ट उपलब्धियों की आकांक्षा ही रहती हैं और उन आकांक्षाओं का उभार अभाव की कल्पना से उठता है। दरिद्रता की कठिनाइयों की कल्पना करने से सम्पन्नता संचय करने के लिए उत्साह उठता है। रुग्णता ओर दुर्बलता की स्थिति में शरीर की जो दुर्गति होती हैं उससे भयभीत होकर ही लोग स्वास्थ्य रक्षा की चिन्ता करते हैं। यदि सक्षम स्वास्थ्य की निश्चिन्तता रहे तो फिर आरोग्य साधना के लिए जो किया और सोचा जाता है उसकी किसी को आवश्यकता ही न पड़ेगी। फिर आरोग्य स्वाभाविक रहने से उसका महत्त्व भी प्रतीत न होगा तब किसी को स्वास्थ्य का महत्त्व ही प्रतीत न होगा और उसके लिए प्रयत्नशील रहना तो दूर कोई उस संदर्भ में चर्चा तक करना पसन्द न करेगा। ऐसी दशा में मानव जीवन में सुदृढ़ स्वास्थ्य के कारण जो गर्व गौरव एवं आनन्द प्राप्त होता है उसका भी अन्त हो जाएगा । मरण संसार में से उठ जाय तो फिर जिन्दगी को प्यार करने का कोई प्रश्न ही न रहेगा। कुरूपता कहीं रहे ही नहीं तो सौंदर्य के लिए आँखें आज जिस तरह तरसती हैं और देख कर प्रसन्न होती हैं फिर वैसी स्थिति नहीं रहेंगी । सौंदर्य भी सामान्य घास पात की तरह आये दिन की सामने वाली उपेक्षित वस्तु रह जाएगी । ऐसी दशा में सौन्दर्यानुभूति की सरलता का उससे लिए बन पड़ने वाली उत्साह भरी चेष्टा का कहीं कोई चिह्न दिखाई न पड़ेगा।

रात न हो तो दिन की उपयोगिता समझने का प्रसंग ही न उठेगा। न दिन का महत्त्व प्रतीत होगा और न उन घण्टों में में तत्परतापूर्वक श्रम करने की आवश्यकता प्रबल होगी। ऐसी दशा में मनुष्य नितान्त शिथिल बने रहेंगे। उत्साह तो अतिरिक्त लाभ पाने के लिए अथवा सम्भावित कठिनाई से बचने के लिए उत्पन्न होता है। उत्साह एक उत्तेजना है जो लाभ कमाने एवं भय से बचने की कल्पना के सहारे उठती है। उच्चस्तरीय लोगों में भी जो उत्कृष्ट साहस और पुरुषार्थ प्रकट होता है उनके मूल में भी यही तथ्य काम करते हैं। यह बात दूरी है कि वे लाभ की परिभाषा व्यक्तिगत सुविधा के स्थान पर सामूहिक सुविधा की बात सोचें और परलोक लाभ को प्रधानता दें। इसी प्रकार वे भी सार्वजनिक विनाश और परलोक की नरक जैसे दुखों की विभीषिका को ध्यान में रखते हुए उत्साह उभारते हैं यह स्तर भर का अन्तर है। उत्साह जिसे शक्ति का स्रोत कह सकते हैं बिना किसी लाभ या भय के उभरता ही नहीं और स्पष्ट है कि उत्साह की उत्तेजना ही मूर्छित व्यक्तित्व को जगाती, उभारती है। उसे प्रगति की दिशा में धकेलती और महत्त्वपूर्ण कार्य कराती हैं यदि उमंगें न उभरें तो मनुष्य को शरीर यात्रा की सामान्य क्रिया करते रहने के अतिरिक्त और कुछ न तो करते बन पड़ेगा और न सोचते। ऐसी दशा में वह अर्ध मृतक-अर्ध मूर्छित स्थिति में पड़ा खाने सोने जैसे जीवन चिह्न भर धारण किये रहेगा। उस साहसी मनोभूमि का वरदान पाने से वंचित ही बना रहेगा जिसके सहारे नगण्य से नर-बानर ने सृष्टि का मुकुट मणि कहलाने का अवसर प्राप्त किया है।

अनुकूलता और प्रतिकूलता दोनों के ही अपने-अपने लाभ है। अनुकूलता, सुविधा एवं सफलता प्राप्त होने से मनुष्य को आत्म-गौरव की अनुभूति होती है। सफलता पर गर्व करने के साथ-साथ वह अपने व्यक्तित्व का वर्चस्व भी अनुभव करता है। यह आत्माभिमान, आत्मावलम्बन का विश्वास दिलाता है ओर अपनी क्षमता के बारे में यह मान्यता बनाने का अवसर मिलता है कि आगे भी बड़े काम करने और बड़े लाभ पाने की स्थिति आनी है। यह मान्यता जिस किसी के अन्तराल में आस्था बन कर बैठ जाती है निश्चय ही वह बहुत सामर्थ्यवान सिद्ध होता है। आत्मबल से बड़ा और कोई बल नहीं और वह आत्मबल को ही मनोबल कहते हैं मनस्वी लोग उच्चस्तरीय शक्ति सम्पन्न माने जाते हैं वे साधन हीन होते हुए भी-सहयोग और समर्थन न मिलने पर भी बहुधा ऐसे काम कर गुजरते हैं जिन्हें देखकर आश्चर्य से दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है। इसमें मनोबल की सामर्थ्य ही चमत्कार दिखाती हैं। संसार के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों का बड़े महत्त्वपूर्ण काम कर गुजरने के पीछे यदि आधार तलाश किया जाय, तो उनका मनोबल ही काम करता प्रतीत होगा। उसी की प्रेरणा से शरीर अथक परिश्रम करता है। मस्तिष्क में उमंगें छाई रहती है और अन्तःकरण में सफलता की आशा, उज्ज्वल भविष्य की आस्था सुदृढ़ बनी रहती हैं स्पष्ट है कि मनोबल छोटी-छोटी सफलताएँ प्राप्त करते करते विकसित होता है। वह आसमान से किसी पर नहीं टपकता। छोटे कदम, छोटे प्रयोग, छोटी सफलता का क्रम चलता रहे तो मनुष्य क्रमशः अधिक आत्मविश्वासी बनता जाता है और इस आधार पर विकसित हुई प्रतिभा के सहारे अपने शरीर तन्त्र के-मनःसंस्थान के हर कल पुर्जे को क्रिया कुशल बनाकर सचमुच इस स्थिति में जा पहुँचता है कि उसे अतिरिक्त शक्ति सम्पन्न-असाधारण महत्त्व एवं सामर्थ्य का व्यक्ति समझा जा सके।

यह सुविधा पक्ष हुआ। असुविधा एवं प्रतिकूलता की उपयोगिता इसे भी अधिक हैं पर वह कष्ट कारक रहने से रुचि कर नहीं लगती और आमतौर से लोग उससे डरते बचते ही देखे जाते हैं। इतने पर भी उसका मूल्य किसी प्रकार कम नहीं होता। आवश्यकताओं को आविष्कारों की जननी कहा गया है। प्राणि शास्त्र के ज्ञाता कहते हैं कि जीवधारियों के शरीरों में जो परिवर्तन हुए है उसका कारण उनकी आकांक्षाएँ और आवश्यकताएँ ही रही है। मन जिस वस्तु या स्थिति को पाने के लिए मचलता है उसके लिए भीतर से क्षमताएँ उभरती है और बाहर से साधन जुटते हैं चेतना की अद्भुत शक्ति का इसे प्रत्यक्ष चमत्कार समझ जा सकता है। शाकाहारी प्राणियों ने आत्म रक्षा के लिए और माँसाहारियों ने शिकार पर सफल आक्रमण करने के लिए अपने शरीरों में क्रमशः परिवर्तन किये है। सृष्टि के आरम्भ में प्राणियों के शरीर वैसे नहीं थे जैसे पीछे बनते बदलते चले गये। इस परिवर्तन का एकमात्र कारण जीव शास्त्रियों के शोध निष्कर्ष से यही सिद्ध हुआ है कि उनकी अन्तःचेतना में प्रस्तुत कठिनाइयों के समाधान की अकुलाहट और अधिक अनुकूलता की अभिलाषा उत्पन्न हुई। उसके दबाव से शरीर और मस्तिष्क ने तद्नुरूप ढलना आरम्भ कर दिया। अन्य प्राणियों की तरह मानवी प्रगति का इतिहास भी यही है। यह प्रखरता प्रतिकूलताओं के साथ होने वाली टकराहट की प्रतिक्रियाओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

हथियारों की धार तेज करने के लिए उसे पत्थर पर रगड़ना पड़ता है। रगड़ एक अप्रिय घटना हैं। यदि वह स्वीकार न हो तो फिर हथियारों, औजारों की धार रखने और उन्हें कारगर बनाये रहने की आशा छोड़नी पड़ेगी। व्यायाम क्रियाओं में दबाव पड़ता है और कष्ट होता है। ऐश आराम के आदी लोगों के लिए व्यायाम की कठोरता का सहन करना किसी भारी दण्ड भुगतने की तरह ही कष्ट कारक प्रतीत होगा, पर जिन्हें शरीर की बलिष्ठता अभीष्ट है वे दण्ड-बैठक आदि कष्टकारक क्रियाएँ शरीर के असुविधा अनुभव करने पर भी किये ही चले जाते हैं। शिल्पी और कलाकार अपने विषयों को प्रवीणता पाने के लिए किस कदर मन मार कर अभ्यास करते हैं यह उनके साथ रहकर जाना जा सकता है। जो उस कठोर तत्परता में आनाकानी करते हैं उनकी सफलता उसी अनुपात में अनिश्चित बनती जाती है।

यदि सब कुछ सरलतापूर्वक होता चला जाया करे तो मनोरथ भले ही पूरे हो सकें पर प्रतिभा के विकास का मार्ग एक प्रकार से अवरुद्ध ही होता चला जाएगा । अमीरों की सन्तानें आमतौर से आलसी, मन्दबुद्धि और दुर्व्यसनी होती हैं जबकि कठिनाइयों का सामना करने वाले परिवारों की सन्तानें आश्चर्यजनक प्रगति करते देखी जाती हैं इस प्रकार की घटनाओं में प्रतिकूलताओं से टकराने पर उत्पन्न होने वाली शक्ति की कमी वैसी ही अपनी-अपनी भूमिका निभाती देखी जा सकती हैं

आत्मिक प्रगति के लिए तप−तितिक्षा की साधना करनी पड़ती है। इससे कष्टों और कठिनाइयों को जानबूझकर आमन्त्रित किया जाता है। प्रायः सभी प्रकार की तपश्चर्याएँ शरीर को कष्ट देने वाली और मन को अखरने वाली होती है। उन्हें आमन्त्रित करने का उद्देश्य प्रतिकूलताओं से टकराने पर उत्पन्न होने वाली शक्ति का लाभ उठाना हैं जल प्रपातों की धारा से घूमने वाले पहिये जोड़ दिये जाते हैं। और उतने भर से बिजली घर, पनचक्की तथा दूसरे कल कारखाने चलने लगते हैं। रगड़ से गर्मी, बिजली उत्पन्न होने के सिद्धांत विज्ञान के आरम्भिक विद्यार्थी भी जानते हैं। प्रखरता चाहे भौतिक क्षेत्र की हो या आध्यात्मिकता की। प्रतिकूलताओं के साथ टक्कर लेने से ही उत्पन्न होती है। यह प्रतिकूलता प्रकृति प्रदत्त है या अपने आप उत्पन्न की हुई यह दूसरी बात है। हर हालत में प्रतिकूलता से टकराने पर ही किसी को शूरवीर, साहसी, पराक्रमी, पुरुषार्थी बनने का अवसर मिलता है। यही व्यक्तित्व की समर्थता का मूलभूत उद्गम स्रोत हैं चैन से दिन काटते रहने पर समय तो आराम से बीत सकता है पर उस शारीरिक ओज और मानसिक तेज से वंचित ही रहना पड़ेगा जिसे जीवधारियों का सार तत्त्व ‘प्राण’ कहा जाता है। प्राणवान बनने के लिए ऐसा साहस चाहिए जो व्यावहारिक जीवन में प्रतिकूलताओं से टकराते-टकराते स्वभाव और अभ्यास के साथ पूरी तरह घुल−मिल गया हो। प्राचीनकाल में अपनी सन्तान को दूरदर्शी अभिभावक गुरुकुलों में पढ़ने भेजते थे जहाँ उन्हें असुविधा युक्त जीवनचर्या अपनानी पड़ती थी। सम्पन्न व्यक्ति यदि चाहे तो घर पर अध्यापक नौकर रख कर बालकों की सुख सुविधा का उपभोग करते हुए पढ़ाने का प्रबन्ध कर सकते हैं। अथवा अमीरों के उपयुक्त प्रथम विद्यालयों की व्यवस्था कर सकते थे। पर वे जानते थे कि शौक-मौज के वातावरण में पले हुए बच्चे हर दृष्टि में दुर्बल ही बने रहेंगे और जीवन संग्राम के किसी भी कठिन मोर्चे पर सफलता प्राप्त न कर सकेंगे। अस्तु उचित यही है कि प्रारम्भ से छाती कड़ी करके कष्ट साधना अपनाई जाय ओर पीछे के लिए प्रति के लिए नितान्त आवश्यक प्रखरता का उपार्जन किया जाय। बालकों को आरम्भ में थोड़ी असुविधा भले ही रहे पर दूरगामी ओर चिरस्थायी लाभ तो तपस्वी जीवन के फलस्वरूप ही मिलता है। यह तथ्य जब तक छात्रों, अध्यापकों और अभिभावकों को स्वीकार रहा तब तक गुरुकुलों के छात्र ओजस्वी, तेजस्वी और मनस्वी बन कर निकलते रहे और अपनी प्रतिभा का हर क्षेत्र में परिचय देते रहे।

तथ्यों को सन्तुलित रीति से ही समझना चाहिए, अतिवादिता से नहीं । गरीबी, दरिद्रता, बीमारी, उत्पीड़न, पिछड़ेपन की स्थिति में पड़े रहने से तपश्चर्या होती है, इसलिए कष्टकर स्थिति में पड़े रहना और सन्तोष करना उचित है ऐसा सोच बैठना तो अर्थ का अनर्थ करना हो जाएगा, कष्ट में शक्ति नहीं वह तो उल्टा मनोबल तोड़ता है। शक्ति तो टकराने से उत्पन्न होती है। प्रस्तुत कठिनाइयों से जितनी तीव्रता से टकराया जाएगा उतनी ही सामर्थ्य पैदा होगी। यदि दुर्गति के नीचे शिर झुका दिया गया उन्हें भाग्य का खेल समझकर सहन स्वीकार कर लिया गया तो समझाना चाहिए कि एक प्रकार से मन्द स्तर की आत्महत्या ही अपना ली गई। चूँकि टकराने के लिए प्रतिकूलता ही चाहिए। इसलिए वैसे अवसर जब भी मिलें, रोने खीजने की आवश्यकता नहीं है वरन् यह सोचा जाना चाहिए-मनोबल बढ़ाने और प्रखरता संजोने का एक सुअवसर सामने आया। खोजने वाले विष में से भी अमृत खोज लेते हैं हमारा चिन्तन यह होना चाहिए कि प्रकृति व्यवस्था से जो कठिनाइयाँ सामने आ खड़ी हुई उनसे मल्ल युद्ध करके अपनी वरिष्ठता सिद्ध करने का लाभ कमाया जाय।

तपस्वी किन्हीं आदर्शों की पूर्ति के लिए कष्ट उठाने की पूर्ण क्षमता उपार्जित करने के लिए सन्तुलित मात्रा में ऐसे कष्टों को विचारपूर्वक आमन्त्रित करते हैं जो आत्मिक और भौतिक प्रगति के समान रूप से सहायक हो। वे व्यायाम एवं उपचार स्तर के होते हैं उनकी तुलना गरीबी, बीमारी, अनीति एवं विपत्ति के कारण हुए कष्टों से नहीं की जानी चाहिए। वे तो निरस्त ही किये जाने योग्य हैं उन्हें सहन करने की बात सोचने से तो टकराव का आधार ही नष्ट हो जाएगा और गई गुजरी स्थिति में पड़े रहने से तो रहा बचा मनोबल भी समाप्त हो जाएगा । विपत्ति से असली हानि उसकी उपस्थिति से नहीं होती, जब मनःस्थिति उससे लोहा लेने में असमर्थता प्रकट करती है तभी व्यक्ति टूटता है और हानि सहता है।

मनुष्य की तेजस्विता उभारना सृष्टा को अभीष्ट है। वह अपने पुत्रों को साहसी, पराक्रमी देखना चाहता है। पराक्रम और पुरुषार्थ को ही सफलता का बीज माना गया है। योद्धा के लिए कोई प्रतिपक्ष तो चाहिए ही। अखाड़े में पड़े भारी पत्थरों को उठाने और मुद्गरों को घुमाने से पहलवानों की छाती, कलाई मजबूत बनती है इनमें प्रत्यक्ष कठिनाई और असुविधा तो अवश्य है पर साथ ही यह परोक्ष लाभ है। बालक हनुमान शिला पर गिरे थे और वह उनके प्रहार से टूट गई थी उसी दिन से उनका नाम बजरंगबली - वज्र जैसे अंग वाला पड़ा। हमें प्रतिकूलताओं की ऐसी शिलाओं की प्रतीक्षा में बैठे रहना चाहिए कि उनसे टकराकर अपनी गौरव गरिमा सिद्ध करने का अवसर प्राप्त करें। इनसे प्रत्यक्षतः कुछ हानि भी उठानी पड़ती हो तो हर्ज नहीं। सतर्कता, कुशलता, साहसिकता, दूरदर्शिता जैसी अनेकों विभूतियाँ इस टकराव से मिलती है जो जीवन संघर्ष के समय उठाई गई हानियों की तुलना में कहीं अधिक मूल्यवान है।

सृष्टि में कठिनाइयाँ और प्रतिकूलताएँ देखकर हमें सृष्टा की अदूरदर्शिता का असमंजस नहीं करना चाहिए। हमारे लिए प्रगति के महत्त्वपूर्ण साधन के रूप में उन्हें सृजा गया है। उन्हें उसी रूप में देखा, समझा जाना चाहिए और उनके साथ किसी प्रकार निपटना चाहिए, इसका दूरदर्शिता पूर्ण निर्णय करना चाहिए।


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