दिव्य केन्द्र सहस्रार एवं ब्रह्मरंध्र

November 1977

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मस्तिष्क की गरिमा मानवी शरीर के अवयवों में सर्वोपरि है। इसलिए उसकी अधिकाधिक सुरक्षा के लिए बहुत मजबूत आवरण का प्रबन्ध किया है। यों हृदय की सुरक्षा के लिए भी पसलियों का ढाँचा मौजूद है, पर मस्तिष्क के लिए तो खोपड़ी (क्रोनियम) के मजबूत डिब्बे का प्रबन्ध है। उसमें भीतरी पर्त पर भी माँसल गद्दी ‘पौ मैटर गति पर्त’ लगी हुई है जिसमें चोट ठंड आदि लगने पर मस्तिष्कीय जीवन-सम्पदा को किसी प्रकार की हानि न पहुँचे। खोपड़ी के ऊपर घने और लम्बे बालों का उगना इस बात का प्रमाण है कि ऋतु प्रभावों तथा अन्य प्रकार की कठिनाइयों से बचाने के लिए कैसी अच्छी सुरक्षा पंक्ति खड़ी की गई है।

कुछ समय पहले तक यह माना जाता था कि रक्त ही जीवन की सबसे बड़ी सम्पदा है। उसका संचार करने वाला अवयव हृदय ही सबसे महत्त्वपूर्ण संस्थान है। नाड़ी की धड़कन बन्द होने पर किसी के मरण की घोषणा की जाती थी। अब स्थिति बदल गई है, शरीर शास्त्रियों ने हृदय से अधिक गरिमा मस्तिष्क की स्वीकार की है। न केवल ज्ञान और बुद्धिमत्ता की दृष्टि से वरन् शरीर निर्वाह में भी उसी की प्रथम भूमिका है। नाड़ी संस्थान समस्त शरीर में फैला हुआ है। उसके माध्यम से मस्तिष्कीय ऊर्जा अंग-प्रत्यंग तक पहुँचती है। रक्त संचार आदि समस्त क्रिया कलाप उसी के आधार पर सम्पन्न होते हैं। बिजली कट जाने से बड़े से बड़ा कारखाना ठप्प हो जाता है, इसी प्रकार जीवन तभी तक है, जब तक मस्तिष्कीय विद्युत काम करती है। अब मरण की अन्तिम घोषणा हृदय की गति बन्द होने के आधार पर नहीं मस्तिष्कीय ऊर्जा तरंगों के रुक जाने पर की जाती है।

जीवन में भोजन के अतिरिक्त शिक्षा, अनुभव, ज्ञान, कौशल का-बुद्धिमत्ता एवं कल्पना का जीवन की प्रगति एवं सफलता से कितना बड़ा सम्बन्ध है। इसे सभी जानते हैं। भोजन से अधिक खर्च शिक्षा एवं मनोरंजन पर किया जाता है। इससे भी बड़ी बात है-व्यक्तित्व मूल्य उसी का है। उसी के मूल्य पर परिस्थितियाँ बनती है- सम्मान एवं सहयोग मिलता है। सफलताएँ और असफलताएँ बहुत कुछ इसी आधार पर निर्भर रहती है। यह व्यक्तित्व क्या है ? उसके उत्तर में इतना ही कहा जा सकता है कि दृष्टिकोण, मान्यता एवं अभिरुचि का समन्वय। इन शब्दों में कहना हो तो इसे श्रद्धा कह सकते हैं। यही है वह आधार जिसके आधार पर स्वास्थ्य शिक्षा और साधनों की दृष्टि से लगभग एक जैसी स्थिति में रहने वाले मनुष्यों में से एक उत्कृष्टता के उच्च शिखर पर जा पहुँचता है, आनन्दित जीवन जीता है और दूसरा निकृष्टता के गर्त में जा गिरता है और नारकीय संकटों में सड़ता, दुर्गन्ध फैलाता रहता है।

मस्तिष्क विद्या के ज्ञाता उसकी चेतन-अचेतन क्षमताओं का शरीर शास्त्र और मनःशास्त्र के आधार पर विवेचन विश्लेषण करते रहे है। चेतन और अचेतन की व्याख्याओं और प्रतिक्रियाओं में मनोविज्ञान की सुविस्तृत व्याख्याएँ हुई है। यह सामान्य परतें है। मस्तिष्क का एक अतीव गहरा अन्तराल है जहाँ से चेतना और क्रिया का ताल मेल आरम्भ होता है। इस उद्गम की स्थिति से मस्तिष्कीय संस्थान की चेतन अचेतन परतें प्रभावित होती है। उस प्रभाव की प्रतिक्रिया चिन्तन की दिशा और क्रिया की धारा को प्रभावित करती है। इसी मर्मस्थल से व्यक्तित्व का भला या बुरा निर्माण आरम्भ हो जाता है।

मानवी काया की तुलना पृथ्वी से की जाय तो उसका ध्रुव प्रदेश मस्तिष्क है और उसकी धुरी सहस्रार चक्र। सहस्रार चक्र का अध्यात्म शास्त्र में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण वर्णन है। उसमें समस्त संभावनाएँ सन्निहित बताई गई है। उसकी स्थिति को परिष्कृत एवं विकसित करने के उपाय बताये गये है। सहस्रार साधना के अनेक स्वरूप, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के प्रयोग अभ्यासों के रूप में प्रस्तुत किये गये है। उनकी सफलताओं के फलस्वरूप मिलने वाले सत्परिणामों का आकर्षक वर्णन हुआ है। उस क्षेत्र की सफलताओं का भौतिक और आत्मिक ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में महात्म्य बताया गया है।

मस्तिष्क में विलक्षण शक्ति केन्द्रों की बात वर्तमान वैज्ञानिक भी मानते हैं। मस्तिष्क शास्त्र के प्रतिष्ठित वैज्ञानिक स्मिथ की शोध के अनुसार शुद्ध बुद्धि प्योर इन्टैलिजेन्स मानवी मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों से नियंत्रित होती है। यह सबकी साझेदारी का उत्पादन है। यही वह सार भाग है जिससे व्यक्तित्व का स्वरूप बनता और निखरता है। स्मृति (मैमोरी) विश्लेषण (एनालिसिस) संरचना (सिन्थैसिस) चयन निर्धारण (सिलैक्टीविटी) आदि की क्षमताएँ मिलकर ही मानसिक स्तर बनती है। इनका सम्मिश्रण एवं उत्पादन कहाँ होता है, वे परस्पर कहाँ गुँथती है, इसका ठीक से निर्धारण तो नहीं हो सका पर समझा गया है कि वह स्थान सैरिबेलम लघु मस्तिष्क में होना चाहिए। यही वह मर्मस्थल है, जिसका थोड़ा भी विकास परिष्कार सम्भव हो सके तो व्यक्तित्व का ढाँचा समुन्नत हो सकता है। इसी केन्द्र स्थान को अध्यात्म शास्त्रियों ने बहुत समय पूर्व जाना और उसका नामकरण सहस्रार किया है।

मस्तिष्क के गहन अनुसंधान में कितनी ही ऐसी परतें सामने आती है जो सोचने विचारने में सहायता देने भर का नहीं समूचे व्यक्तित्व के निर्माण में भारी योगदान करती है। इस तरह की विशिष्ट क्षमताओं का क्षेत्र ‘प्री फ्रंटल लोब्र’ है। इसमें मनुष्य के व्यक्तित्व (पर्सनालिटी कल्पना-इमैजिनेशन आकाँक्षाएँ (एम्बिशन्स) व्यवहार प्रक्रिया, अनुभूतियाँ, सम्वेदनाएँ, आस्थाएँ आदि अनेक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियों का निर्माण निर्धारण होता है। इस केन्द्र को प्रभावित कर सकना किसी औषधि उपचार या शल्य क्रिया से सम्भव नहीं हो सकता। इसके लिए ध्यान धारणा जैसी वे साधनाएँ ही उपयुक्त हो सकती है जिन्हें कुण्डलिनी जागरण प्रक्रिया के अंतर्गत प्रायः काम में लाया जाता है।

ऊपर मस्तिष्क के एकाध केन्द्र की सांकेतिक चर्चा भर कर दी गयी है। मस्तिष्क क्षेत्र अगणित रहस्यमय शक्तियों से भरा हुआ माना जाता है। मस्तिष्क के सम्बन्ध में वर्तमान वैज्ञानिक मान्यताओं की संगति इस सम्बन्ध में भारतीय दार्शनिक मान्यताओं से भी बैठती है।

मोटे विभाजन की दृष्टि से मस्तिष्क को पाँच भागों में विभक्त किया जाता है। (1) बृहद् मस्तिष्क (सेरिश्रम) (2) लघुमस्तिष्क (सेरिबेलम)(3) माध्यमिक मस्तिष्क (मिडब्रेन) (4) मस्तिष्क सेतु (पाँन्स) एवं (5) सुषुम्ना शीर्ष (मैडुला आँबलाँगेटा)। इनमें से अन्तिम तीन अर्थात् मिडब्रेन, पाँन्स एव पैडुला को सुँयक्त रूप से मस्तिष्क स्तम्भ (ब्रेनस्टेम) भी कहते हैं।

अध्ययन शास्त्र के अनुसार मस्तिष्क रूपी स्वर्ग लोक में यो तो तैंतीस कोटि देवता रहते हैं, पर उनमें से पाँच मुख्य है। इन्हीं का समस्त देव संस्था पर नियन्त्रण है। मस्तिष्कीय पाँच क्षेत्रों को पाँच देव परिधि कह सकते हैं। इन्हीं के द्वारा पाँच कोशों की पाँच शक्तियों का संचार संचालन होता है। गायत्री की पंचमुखी साधना में इन पाँचों को समान रूप से विकसित होने का अवसर मिलता है। तदनुसार इस ब्रह्मलोक में, देवलोक में निवास करने वाला जीवात्मा स्वर्गीय परिस्थितियों के बीच रहता हुआ अनुभव करता है।

यह एक प्रकार के विभाजन की बात हुई। अनेक विद्वान एक ही तथ्य के बारे में भिन्न भिन्न प्रकार की विवेचनाएं प्राचीन काल में भी करते रहे है और आज भी करते हैं। मस्तिष्क के विभाजन तथा सहस्रार चक्र के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार एक ही तथ्य के भिन्न भिन्न विवेचन मिलते हैं।

सहस्रार चक्र को अमृत कलश भी कहा गया है। उसमें से सोम रस स्रवित होने की चर्चा है। देवता इसी अमृत कलश से सुधापान करते और अमर बनते हैं।

वर्तमान वैज्ञानिक मान्यतानुसार मस्तिष्क में एक विशेष द्रव “सैरिब्रो स्पाइनल फ्ल्यूड भरा रहता है। यही मस्तिष्क के भिन्न भिन्न केन्द्रों को पोषण और संरक्षण देता रहता है। मस्तिष्क की झिल्लियों से यह झरता रहता है। और विभिन्न केन्द्रों तथा सुषुम्ना में सोखा जाता है।

अमृत कलश के सोलह पटल गिनाये गये है। इसी प्रकार कहीं कही सहस्रार की 16 पंखुड़ियों का भी वर्णन है। यह मस्तिष्क के ही 16 महत्त्वपूर्ण विभाग विभाजन है। शिव संहिता में भी सहस्रार की 16 कलाओं का वर्णन है-

शिरः कपाल विवरे ध्यायेत् षोडसी कला। तंत्र स्थित्वा सहस्रारे पद्येचन्द्र विचित्रयेत्-योग भजूषा

कपाल के मध्य चन्द्रमा के समान प्रकाशवान् सोलह कला युक्त सहस्रार चक्र का ध्यान करें।

सहस्रार की यह सोलह कलाएँ मस्तिष्क के “सैरिब्रोस्माइनल फ्ल्यूड” से सम्बन्धित प्रमस्तिष्क के सोलह विभाग है। पूर्वोक्त पाँच स्थूल विभागों को अधिक विस्तार से व्यक्त किया जाय तो उसके निम्नाँकित 16 विभाग होते है-

(1)बृहद्मस्तिष्क (सैरिब्रम) (2) लधुमस्तिष्क (सैरिवेलम) (3) सुषुम्ना शीर्ष (मैडुला आँबलागेटा) (4) सेतु (पाँन्स) (5) मध्य मस्तिष्क (मिडब्रेन) (6) महासंयोजक (कौर्पस कलोसम) (7) रखी पिण्ड (कौपर्स स्ट्रेटम) (8) पीयूष ग्रन्थि (पिट्यूटरी ग्लैण्ड) (9) शीर्ष ग्रन्थि (पीनियल ग्लैण्ड) (10) चेतक (थैलोमस) (11) अधःचेतक (थैलोमस) (12) उपचेतक (सब थैलेमस) (13) अनुचेतक (मैटा थैलेमस) (14) ऊर्ध्व चेतक (एपी थैलेमस) (15) संचार जालिकाएँ (काराडप्लैक्सैसेज) (16) प्रकोष्ठ (वैन्ट्रिक्लस)।

इन सभी विभागों में शरीर को संचालित करने वाले एवं अतीन्द्रिय क्षमताओं युक्त अनेक केन्द्र है। सहस्रार अमृत कलश को जागृत करके उन्हें अत्यधिक सक्रिय बना कर असाधारण लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। शास्त्रों में इस संदर्भ में स्पष्ट उल्लेख किया गया है-

इदं स्थानं ज्ञात्वा नियतनिजचितो नरवरो, नंभूयात् संसार पुनरपि न बद्धस्त्रिभुवने। समग्रा शक्तिः स्यात्रियतमनसस्तस्य कृतिनः सदा कतुँ हतुँ खगतिरपि वाणी सुविभला-षट्चक्र निरूपणम्

इस सहस्रार कमल की साधना से योगी चित्त को स्थिर कर आत्मभाव में लीन हो जाता है। भवबन्धन से छुट जाता है। समग्र शक्तियों से सम्पन्न होता है। स्वच्छन्द विचरता है और उसकी वाणी विमल हो जाती है।

शिरःकपालविवरे ध्यायेद्दुग्धमहोदधिम्। तत्र स्थित्वा सहस्रारे पद्ये चन्द्र विचिन्तयेत्॥ शिव संहिता

कपाल की गुफा में क्षीर सागर समुद्र का तथा सहस्र दल कमल में चन्द्रमा जैसे प्रकाश का ध्यान करें।

तस्माद् गलित पीयूषं पिवेद्योगी निरन्तरम्। मृर्त्योमृत्यु विधायाशु कुलं जित्वा सरोरुहे॥ अत्र कुण्डलिनी शक्तिर्लयं याति कुलभिधा। तदा चतुर्विधा सृष्टिर्लीयते परमात्मनि-शिव संहिता

जो योगी सहस्रार से स्रवित हो रहे पीयूष का निरन्तर पान करता है। वह मृत्यु की ही मृत्यु का विधान रचने में समर्थ होता है। अर्थात् मृत्यु उसे मृत्यु के समान नहीं प्रतीत होती, वह मृत्यु से परे का जीवन जीता है। यहीं इसी सहस्रार में कुण्डलिनी शक्ति का लय होता है और तब चारों प्रकार की सृष्टि परमात्मा में ही लीन हो जाती है, सभी कुछ परमात्मा मय हो जाता है।

येन पूता ऋचःसामानि यजुर्ब्राह्मणं यह येन पूतम्। तेना सहस्त्रधारेण पवमानः पुनातु मास-यजु

जिससे ऋचाएँ, साम, यजुः और ब्राह्मण पवित्र हुए उस सहस्र धारा वाले सोम से पवमान मुझे पवित्र करे।

सहस्रार क्या है? इसका उत्तर शरीर शास्त्र के अनुसार अब इतना मात्र जाना जा सका है कि मस्तिष्क के माध्यम से समस्त शरीर के संचालन के लिए जो विद्युत उन्मेष पैदा होते हैं, वे आहार से नहीं वरन् मस्तिष्क के एक विशेष संस्थान से उद्भूत होते हैं। वह मनुष्य का अपना उत्पादन नहीं वरन् दैवी अनुदान है। आमाशय, हृदय आदि अवयव तो उसी ऊर्जा से अपने काम कर सकने की क्षमता प्राप्त करते हैं। रक्त से शरीर के अवयवों को पोषण मिलता है यह सत्य है। फेफड़े साँस का और पाचन तन्त्र आहार का साधन जुटाते हैं यह भी सही है पर देखना फिर भी शेष रह जाता है कि यह सारी मशीन निर्वाह की आवश्यकता पूरी करने में जुटी हुई है, वह अपने लिए मूल ऊर्जा कहाँ से पाती है। ? यह समाधान सही नहीं है कि आहार एवं साँस आदि से ही जीवन ऊर्जा मिलती है। यदि ऐसा रहा होता तो भूख या दम घुटने के बिना किसी की मृत्यु हो न होती।

मस्तिष्क में मध्य भाग से यह विद्युत उन्मेष रह रहकर सतत् प्रस्फुटित होते रहते हैं। उसे एक विलक्षण विद्युतीय फव्वारा कहा जा सकता है। वहाँ से तनिक तनिक रुक-रुककर एक फुलझड़ी सी जलती रहती है। हृदय की धड़कन में भी ऐसे ही मध्यवर्ती विराम रहते हैं। ताप ध्वनि आदि की प्रवाह मान तरंगों में उतार चढ़ाव होते हैं। मस्तिष्कीय मध्य बिन्दु में अवस्थित ऊर्जा उद्गम की गतिविधि भी ठीक उसी प्रकार की है वैज्ञानिक इन उन्मेषों को मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों की सक्रियता-स्फुरण का मुख्य आधार मानते हैं। भारतीय योग ग्रन्थों में भी इसी बात को अपने ढंग से व्यक्त किया गया है।

मस्तिष्के मणिवद् भिन्न यो जानाति स योगवित्॥ तप्तवामी कराकार तडिल्लेखव विस्फुरत-ध्यानबिन्दु उपनिषद्

मस्तिष्क के मध्य मणिवत् प्रकाश है। उसमें से तप्त स्वर्ण के समान विद्युत धाराओं का स्फुरण होता है। जो इस रहस्य को जानता है वह योगी है।

ब्रहाज्योतिवसुधा या ब्रह्मस्थानीय उच्यते। ततो यः पावाको नाम्नायः सद्रिर्योग उच्यते-मत्स्य पुराण

ब्रह्म ज्योति-अग्नि रूप से ब्रह्मरन्ध्र में निवास करती है। वह साधक को पवित्र करती है। यही योगाग्नि है।

इस मस्तिष्कीय ऊर्जा उद्गम को शरीर शास्त्र के अनुसार सहस्रार चक्र कहा जा सकता है। सहस्र का अर्थ यो ‘हजार’ होता है। पर यहाँ उसका तात्पर्य हजारों से अगणितों से है परब्रह्म को सहस्र पुरुष-सहस्राक्षः सहस्र पाद” कहा गया है इसका तात्पर्य पूरे एक हजार आँख, हाथ, पैर वाला नहीं वरन् हजारों अगणितों वाला समझा जाना चाहिए। मस्तिष्कीय उद्गम से उभरने वाली फुलझड़ी की पूरी एक हजार नहीं वरन् अगणित चिनगारियाँ उड़ती है। उस फव्वारे की बूँदों की संख्या पूरी एक हजार नहीं वरन् हजारों असंख्यों है। इस सहस्र प्रतिपादन के आधार पर ही उस उद्गम को सहस्रार कहा गया है।

मस्तिष्क में मस्तिष्कीय विद्युत की अगणित धारायें प्रवाहित होने की बात वर्तमान विज्ञान मानता है। आवश्यकतानुसार यह धारायें अगणित दिशाओं में अगणित विशिष्ट तन्तुओं द्वारा प्रवाहित होती है। इन्हें वैज्ञानिकों ने उनको प्रवृत्ति के अनुसार अनेक वर्गों में विभाजित कर रखा है। जैसे-ऊर्ध्वमुखी मस्तिष्कीय स्फुरण (एसैब्डिगरैटिकुलर एक्टिवेटिंग सिस्टम) अधोमुखी म॰ स्फु0 (डिसैन्डिग रैटि0 एक्टि0 सि0) विशिष्ट चेतन स्फुरण (स्पैसिफिक थैलैमिक प्रोजैक्शन) प्रस्तुत चे0 स्फ0 (डिफ्युज्ड थै 9 प्रो0) स्तम्भिक स्फुरण (ब्रेनस्टैम रेटि0 फार्मेशन) आदि। इन स्फुरण संस्थानों का संयुक्त प्रभाव योग दृष्टि से मस्तिष्क में विद्युतीय उन्मेष की सहस्र धाराओं के रूप में दीखना स्वाभाविक है।

सहस्र दल कलम तथा शेषनाग के सहस्र फन माने जाने की उक्ति का आधार भी वही है। ब्रह्मलोक एवं क्षीरसागर के मध्य विष्णु भगवान का कुण्डली भरे हुए शेष नाग पर शयन करना, यह आकृति भी सहस्रार की स्थिति समझाने की दृष्टि से ही बनी है। क्षीरसागर अर्थात् मस्तिष्कीय मज्जा। कुण्डलाकार सहस्रकार सहस्रमुख सर्प अर्थात् सहस्रार चीरने के आरे में दाँत है। पहिये में भी आरे होते हैं। चक्र, सुदर्शन जैसे अस्त्र भी दाँतेदार होते थे। ‘सहस्रार’ नामकरण की संगति इन्हीं सब बातों के साथ मिलती है।

सहस्रार को सूर्य (सहस्ररश्मि) की उपमा दी गई है। सूर्य की ऊर्जा से पूरा सौर मण्डल प्रकाशवान् एवं गतिशील है। मानवी सत्ता का प्रत्येक घटक मस्तिष्कीय ऊर्जा से अनुप्राणित होता है। अस्तु उसी पिण्ड रूपी भूलोक का अधिष्ठाता सूर्य कहा जाय तो यह रूपक सर्वथा उपयुक्त ही माना जायेगा। सहस्रार की ब्रह्म सत्ता को सूर्य की उपमा दी गई है-

सहस्रारे महापद्ये कर्णिकामुद्रितश्चरेत्। आत्मा तत्रंव देवोशि केवलः पारदोपमः॥ सूर्य कोटि प्रतीकाशः चन्द्रकोटि सुशीतलः। अतीव कमनीयश्च महाकुण्डलिनो युत्-स्कन्द पुराण

“हे देवेशि ! सहस्र दल महापद्य में मुद्रित कर्णिका के अन्दर पारद की भाँति आत्मा का निवास है। यद्यपि उसका तेज करोड़ों सूर्यों के समान है, परन्तु स्निग्धता में वह करोड़ों चन्द्रमाओं के तुल्य है। यह परम पदार्थ अतिशय मनोहर तथा कुण्डलिनी शक्ति समन्वित है।

ब्रह्म सूर्यस्त्रम ज्योतिः -यजुः 23,48

यह सूर्य ब्रह्म तत्त्व ही है, जिसका भौतिक प्रतीक स्थूल सूर्य है।

‘य आदित्ये तिष्ठन्ना दित्यादन्तरों यमादित्यों न वेद यस्यादित्यः शरीर य आदित्यमन्तरो यमयत्येष त आत्मान्तर्याभ्यमृतः -वृहदारण्यक

‘जो सूर्य में रहने वाला सूर्य का अंतर्वर्ती है, जिसे सूर्य नहीं जानता, सूर्य जिसका शरीर है और जो भीतर रहकर सूर्य का नियमन करता है, वह तुम्हारा आत्मा अन्तर्यामी अमृत है।’

देवोऽयं भगवान भानुरन्तर्यामी सनातनः-सुर्य पुराण

यह सूर्य देवता अन्तर्यामी सनातन भगवान ही है। जिस प्रकार सूर्य से सौर मण्डल को ऊर्जा मिलती है, उसी प्रकार सहस्र धारा वाले ऊर्जा उद्गम से मस्तिष्कीय संयंत्र को गतिशील बनने की क्षमता उपलब्ध होती है। मील, कारखानों में अनेकों मशीनें चलती है। उन्हें चलाने के लिए बिजली की मोटर लगी होती है। मोटर चलती है और उसकी ताकत से मशीनें सक्रिय होती है। किन्तु मोटर को चलाने वाली बिजली उसकी अपनी कमाई नहीं है। वह कहीं अन्यत्र से आती है। मस्तिष्क को मोटर और शरीर के अवयवों को छोटी बड़ी मशीनें कहा जा सकता है। इस सारे मिल, कारखाने की चलाने के लिए आवश्यक शक्ति अन्यत्र आती है। इसे ध्रुवीय क्षेत्र से पृथ्वी को मिलने वाले अनुदान प्रवाह के समतुल्य माना जा सकता है। यह अन्तर्ग्रही ऊर्जा का ही अनुदान है। व्यक्तियों स्वतन्त्र है, स्वभाग्य निर्माता है। फिर भी व्यक्ति को व्यक्तित्व प्रदान करने वाली ऊर्जा को ब्राह्मी अनुदान ही माना जाएगा । वह धारा जिस क्षण रुकती है, तत्काल मरण सामने उपस्थित होता है। हृदय की धड़कन पूर्णतया बन्द हो जाने पर भी उसे कृत्रिम उपायों से पुनः क्रियाशील बनाया जा सकता है। किन्तु जब सहस्रार का विद्युत उभार अपना उछलना बन्द कर दे तो समझना चाहिए कि अन्तिम मृत्यु हो गई। कनेक्शन कट जाने पर फिटिंग और बल्ब सही होने पर भी अँधेरा छा जाता है। अवयवों के सही सलामत होने पर भी मस्तिष्कीय उत्पादन के बिना जीवित नहीं रहा जा सकता।

जीवन का आरम्भ और अन्त स्थूल विवेचना के अनुसार जिस भी तरह बताया जाय, सूक्ष्म विज्ञान के अनुसार उसका समूचा आधार ‘सहस्रार’ की सक्रियता पर अवलम्बित है। इतना ही नहीं आगे की बात भी यहीं से चलती है। सहस्रार मात्र जीवन का ही उद्गम नहीं है, वरन् व्यक्तित्व का स्वरूप एवं स्तर की दिशा धारा भी यहीं से निर्धारित होती है। ढलान का तनिक सा अन्तर होने पर वर्षा का जल अपने बहाव की दिशा बदलता है। एक स्थान की ढलान जिस वर्षा जल को किसी नदी में पहुँचाती है, तो उसके समीप की ढलान दूसरी और होने के कारण वर्षा जल को किसी अन्य नदी में ले जाकर पटकती है। ढलान के आरम्भ में कुछ इंचों का अन्तर था, पर बहते हुए वर्षा जल को भिन्न नदियों में जा पहुँचने का अन्तर सैकड़ों, हजारों मील का बन जाता है। जंक्शन स्टेशन पर एक ही लाइन में खड़ी गाड़ियाँ लीवर बदलने के आधार पर भिन्न भिन्न दिशाओं में चल पड़ती है। लीवर का अन्तर कुछ इंचों का ही होता है, पर चल पड़ने वाली गाड़ियों में दूरी का अन्तर निरन्तर बढ़ता जाता है। सहस्रार उद्गम में राई रत्ती अन्तर रहने से व्यक्तित्व के बाहरी और भीतरी ढाँचे में आश्चर्य जनक अन्तर उपस्थित हो जाता है।

पृथ्वी के अन्तर्ग्रही अनुदानों में न्यूनाधिकता करने की बात सोचना भी वैज्ञानिकों के लिए डरावनी आशंकाएँ और विभीषिकाएँ सामने ला खड़ी करता है। वे उस दिशा में कदम बढ़ाने की कल्पना करते ही काँपने लगते हैं। तनिक भी उलटा पुलटा होने पर सर्वनाश का अनर्थ खड़ा हो सकता है। जो अनुकूल उपाय बन पड़े तो पृथ्वी निवासियों को उसका असीम लाभ भी मिल सकता है। तब हम अकल्पनीय सुविधा साधनों के अधिपति बन सकते हैं। आवश्यक ज्ञान के अभाव में वैज्ञानिक कोई बड़े कदम उठाने का साहस नहीं कर रहे है, केवल वे धीमे पैरों ध्रुवीय क्षेत्र की खोजकर रहे हैं, पृथ्वी की धुरी न तो अभी उन्हें मिली है और न उसके लिए गम्भीरतापूर्वक प्रयत्न ही हुआ है।

मानवी सत्ता के ध्रुव केन्द्र मस्तिष्कीय धुरी संस्थान सहस्रार के सम्बन्ध में वैसा कोई जोखिम नहीं है। भौतिक शक्ति दैत्य है। बिजली का, आग का तनिक भी असावधानी से प्रयोग करने पर प्राण संकट सामने आ उपस्थित होगा किन्तु माता और बच्चे के बीच व्यवहार की कोई भूल चूक बन पड़ने पर भी कोई बड़ा विग्रह उत्पन्न नहीं होता, मामूली ही अनबन भी देर तक नहीं टिकती। आत्म चेतना और प्रकृति चेतना में यही भौतिक अन्तर है। सहस्रार में आत्मा और परमात्मा का मिलन संस्थान है। यह चेतनात्मक आदान प्रदान है। इसमें उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाएँ भरी पड़ी है। अध्यात्म, साधनाओं का स्वरूप सद्भाव सम्पन्नता के साथ जोड़कर बनाया गया है, अस्तु उनमें श्रेष्ठताओं के दैवी अनुदान ही मिलते हैं।

सहस्रार चक्र का सम्बन्ध रन्ध्र से है। ब्रह्मरन्ध्र को दशम द्वार कहा गया है। नौ द्वार तो दो नथुने, दो आँखें, दो कान, एक मुख, दो मल-मूत्र छिद्र सर्व विदित है। दसवाँ द्वार ब्रह्मरन्ध्र है। योगी जन इसी से होकर प्राण त्यागते हैं। मरणोपरान्त कपाल क्रिया करने का उद्देश्य यही है कि प्राण का कोई अंश शेष रह गया हो तो वह उसी में होकर निकले और ऊर्ध्व गति प्राप्त करे।

नवजात शिशु की खोपड़ी के मध्य भाग में थोड़ा सा खाली स्थान होता है। जिसमें हड्डी न होकर झिल्ली होती है। यह स्थान पीरिटल और आस्सीविटल हड्डियों के बीच में है। शरीर वृद्धि के साथ साथ बगल की हड्डियाँ बढ़ती है और इस स्थान को ढक लेती है। योग शास्त्र का कथन है कि ब्रह्म सत्ता का ब्रह्माण्डीय चेतना का मानव शरीर में प्रवेश इसी मार्ग से होता है।

शरीर रचना की दृष्टि से इस स्थल पर केवल हड्डियों का जोड़ ही नहीं होता उसी सीध में नीचे अन्य संगतियाँ भी बैठती हैं। कपाल की हड्डियों के नीचे मस्तिष्क को आच्छादित किए हुए एक ब्राह्मक (सैरिब्रल कार्टेक्स) होते हैं। इसमें खेत में हल चलाने से बने हुए चिह्न जैसे होते हैं। जो उसे विभिन्न भागों में विभाजित करते हैं। इन्हें सीता (सल्कस) कहते हैं। ब्राह्मक (कार्टेक्स) को लम्बाई में बीच से विभाजित करने वाली धार के लाम्बिक सीता (लौंगी ट्यूडिनल फिमर) तथा चौड़ाई में बीच से विभाजित करने वाली को केन्द्रीय सीता (सैन्ट्रल सल्कस) कहते हैं। इन दोनों जोड़ों का केन्द्र (क्रासिंग) ठीक उसी स्थल पर होता है, जहाँ ब्रह्मरन्ध्र कहा गया है। इसी रन्ध्र की सीध में मस्तिष्क की सबसे ऊपरी रहस्यमय कही जाने वाली शीर्ष ग्रन्थि ( पीमियल ग्लैण्ड) का स्थान है।

यह ब्रह्मरन्ध्र कार्य स्थित सत्ता को महत् चेतना से सम्बद्ध करने का विशिष्ट मार्ग-द्वार है। योगी अन्त समय में इसी मार्ग से प्राण का निष्कासन करके ब्रह्मलीन होते हैं। स्पष्ट है कि जीवन काल में यह ब्रह्मरन्ध्र मस्तिष्क के सहस्रार चक्र के माध्यम से दिव्य शक्तियों तथा दिव्य अनुभूतियों के आदान-प्रदान का कार्य करता है। सहस्रार चक्र और ब्रह्मरन्ध्र मिलकर एक संयुक्त इकाई-यूनिट के रूप में कार्य करते हैं। अतः योग साधनों में भी इन्हें संयुक्त रूप से प्रयुक्त प्रभावित करने का विधान है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118