भगवान मनुष्य की अन्तरात्मा में ओत-प्रोत है!

November 1977

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विज्ञान क्षेत्र के युग ऋषि आइन्स्टीन ने ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर देते हुए एक भेंटकर्ता से कहा था-मेरी दृष्टि में ईश्वर इस संसार में सर्व व्याप्त एक महान नियम है। मेरी मान्यता के अनुसार ईश्वर सत्य-अन्तिम सत्य है। यों उसका स्पष्ट रूप निर्धारित कर सकना आज की स्थिति में अत्यन्त कठिन है। इसकी खोज जारी है। अन्तिम सत्य की खोज ही विज्ञान का परम लक्ष्य है। अपने मार्ग पर चलते हुए विज्ञान ने जो तथ्य ढूंढ़े और सत्य स्वीकारे है उन्हें देखते हुए भविष्य में और भी बड़े सत्यों का रहस्योद्घाटन होता रहेगा। यह कार्य वैज्ञानिक शोध-पद्धति से ही सम्भव है।

‘सिद्धान्तों, यन्त्रों और आविष्कारों में विज्ञान झाँकता भर दिखाई देता है। उन्हें उसकी उपलब्धियाँ भर कह सकते हैं। वस्तुतः विज्ञान एक जीवन्त प्रवृत्ति है जो सत्य की शोध को अपना लक्ष्य मानती है। भले ही इसके फलस्वरूप पूर्व मान्यताओं पर आँच आती हो अथवा किसी वर्ग विशेष का हित-अनहित होता हो। सत्य को सत्य ही रहना चाहिए। विज्ञान की दृष्टि में ईश्वर ‘सत्य’ है। उसकी साधना को सत्य की खोज कह सकते हैं। इस प्रकार विज्ञान को अपने ढंग का ‘आस्तिक’ और उसकी शोध साधना को ईश्वर उपासना कहा जा सकता।’

आइन्स्टीन के मतानुसार पदार्थ एवं जीवन का स्वरूप समझना ही नहीं उनका दूरदर्शिता पूर्ण सदुपयोग करने का उपाय सोचना भी विज्ञान क्षेत्र में आता है। तत्त्व-दर्शन को वान की एक शाखा मानते हैं और जीवन क्षेत्र में रुचि रखने वालों को परामर्श देते है-

जिज्ञासा को जीवन्त रखो और सोचो कि तुम क्या कर रहे हो और क्यों कर रहे हो? श्रेष्ठ व्यक्ति बनने का प्रयत्न करो। बिना दिये पाने का प्रयत्न मत करो। श्रेष्ठ व्यक्ति जीवन से अथवा व्यक्तियों से जितना लेता है उसे अनेक गुना उन्हें वापिस करने के प्रयत्न में लगा रहता है।

केनोपनिषद् के ऋषि ने परब्रह्म की व्याख्या आइन्स्टीन से मिलती-जुलती ही की है। उसका प्रतिपादन है-

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्। तदेव ब्रह्म तवं सिद्धि तेदं यदिदमुपासते॥

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति। तदेव ब्रह्म त्व विद्धि तेदं यदिदमुपासते॥

यच्छोत्रेण न श्रृणोति येंन श्रोत्रमिदं श्रुतम्। तदेव ब्रह्म त्व विद्धि तेदं यदिदमुपासते॥

यत्प्राणेन न प्राहिणति येन प्राणः प्रणीयते। तदेव ब्रह्म त्व विद्धि तेदं यदिदमुपासते॥

अर्थात् परब्रह्म ऐसा कोई विचारणीय पदार्थ नहीं जिसे मन द्वारा ग्रहण किया जा सके। वह तो ऐसा तथ्य है जिसके आधार पर मन को मनन शक्ति प्राप्त होती है। उस परम तत्त्व की सामर्थ्य से ही मन को मनन कर सकने की क्षमता प्राप्त होती है। वह परब्रह्म ही नेत्रों को देखने की, कानों को सुनने की, प्राणों को जीने की शक्ति प्रदान करता है। परब्रह्म ऐसा नहीं है जिसे इन्द्रियों से देखना और मन से समझाना सम्भव हो सके। वह सर्वान्तर्यामी और निरपेक्ष है। वह कोई देवता नहीं है और न वैसा है जिसकी परब्रह्म नाम से उपासना की जाती हैं।

मुण्डकोपनिषद् के ऋषि का अभिमत भी इसी से मिलता-जुलता है। उनका कथन है-

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा-नान्यैर्दैवैस्तपसा कर्मणा वा। शानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्फलं ध्यायमानः॥

अर्थात् आँखों से, जीभ से अथवा अन्य इन्द्रियों से उसे जाना नहीं जा सकता। मात्र तप और कर्मकाण्ड भी उसकी अनुभूति नहीं कराते। जिसका मन पवित्र और शान्त है वह निर्मल ज्ञान की सहायता से गम्भीर ध्यान का आश्रय लेकर उसकी प्रतीति कर सकता है।

ज्ञान और अन्तर्ज्ञान के अन्तर एवं कार्य क्षेत्र सम्बन्धी पूछे गये एक प्रश्न के उत्तर में आइन्स्टीन ने कहा था-

ज्ञान आवश्यक है। उसी के सहारे दैनिक क्रिया-कलापों का संचालन और निर्णयों का निर्धारण होता है। फिर भी अन्तर्ज्ञान और अपना क्षेत्र और अस्तित्व है। हमारा मस्तिष्क मात्र वहीं तक सहारा देता है जहाँ तक कि उसकी जानकारी है अथवा तर्क की उड़ान उड़ती है। लेकिन एक स्थिति ऐसी भी आती है जहाँ चेतना उछल कर किसी ऐसे स्थान पर जा पहुँचती है जहाँ मस्तिष्क के सहारे पहुँच सकना कठिन है। संसार के महान आविष्कार इसी रहस्यमयी अन्तःप्रज्ञा के आधार पर सम्भव हुए है। वहाँ से उनका प्रकाश मिला है। प्रमाणित करने वाले अन्वेषण का कार्य तो यह प्रकाश मिलने के उपरान्त आरम्भ होता है।

ज्ञान उपलब्धि के तीन प्रसंग है-एक वह जो माता की गोदी से लेकर परिवार एवं सम्पर्क क्षेत्र की गतिविधियों के आधार पर संचित होता है और स्वभाव का अंग बनता है। दूसरा वह जो स्कूली तथा व्यवहार क्षेत्र में अनेकों अध्यापकों द्वारा प्रशिक्षण के रूप में प्राप्त होता रहता है। तीसरा अन्तिम चरण वह है जिसमें आत्मबोध होता है। जीवन का स्वरूप, उद्देश्य एवं उपयोग मस्तिष्क की जानकारी तक सीमित न रहकर जब आस्था बनकर परिपुष्ट होता है तब उसे आत्मबोध कहते हैं। यह वह उपलब्धि है जिसे पाकर एक सामान्य सा राजकुमार महान बुद्ध के रूप में साक्षात् भगवान बन गया था। इस तत्त्व की छोटी मात्रा भी मनुष्य को अपने साथियों की तुलना में कहीं अधिक ऊँचा और कहीं अधिक सफल बनाती है। ज्ञान भूमिका का यह तीसरा चरण आत्म साक्षात्कार एवं ईश्वर दर्शन के रूप में माना गया है। आत्मा का एकाकी अस्तित्व आदर्श विहीन और नीरस ही रह जाता है उसमें सरसता का संचार ईश्वर के समन्वय से ही सम्भव होता है। आत्मज्ञान और ब्रह्मज्ञान को एक ही तथ्य का उद्बोधक माना गया है ईश्वर विश्वास के साथ जुड़ा हुआ आत्म-विश्वास जब विकसित होता है तो उस पर उच्चस्तरीय आदर्शवादिता छाई रहती हैं। यह आच्छादन सामान्य दृष्टि से भले ही नगण्य-सा प्रतीत होता हो, पर उसका प्रतिफल क्रमशः अधिकाधिक श्रेय, फलदायक सिद्ध होता चला जाता है।

जीवन की हर परिस्थिति में ईश्वर विश्वास सहायक होता है वह असन्तुलन में बदलता है। निराशा के क्षणों में उसकी वह ज्योति चमकती है जिसे दीनबन्धु, भक्त-वत्सल अशरण-शरण आदि नामों से पुकारते हैं और मातृ तुल्य वात्सल्य प्रदान करने की, अंचल में आश्रय देने की कलपना करते हैं। सफलताओं के साथ-साथ एक उन्मादी अहंकार आता है जिसमें स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति पनपती है और मर्यादाओं की नीति-नियमों की चिन्ता न करते हुए स्वार्थ साधना अहमन्यता की पूर्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने की उच्छृंखलता अपनाता है तो उसे आस्तिकता की भावना ही डराती हैं वह कहती है यहाँ स्वेच्छाचार की किसी को भी छूट नहीं है। सबक ऊपर एक नियामक शक्ति मौजूद है और कर्मफल की दण्ड व्यवस्था भी मौजूद है जो इतनी कठोर है कि मर्यादा तोड़ने वाले को भली प्रकार सबक सिखा सकती है। भगवान की भयानकता से डर कर उच्छृंखलता पर बहुत कुछ नियन्त्रण होता रहता है आस्तिकता में ईश्वर के गुणानुवादों का कथन, श्रवण, मनन, चिन्तन जुड़ा हुआ है। ईश्वर सद्गुणों का पुँज है। पवित्रता, करुणा, ममता, उदारता जैसी सद्भावनाएँ ईश्वरीय अनुकम्पा के फलस्वरूप उपलब्ध होने वाली विभूतियाँ है। इस मान्यता से ईश्वर सान्निध्य के लिए-उपासना आदि प्रयास करते हुए मनुष्य अधिकाधिक चरित्र निष्ठ और समाज-निष्ठ बनने का प्रयत्न करता है समाज-निष्ठा को धार्मिकता और सभ्यता कहते हैं। चरित्र-निष्ठा को धार्मिकता और सभ्यता कहते हैं। चरित्र-निष्ठा का दर्शन अध्यात्म कहलाता है उसी का दूसरा नाम संस्कृति भी है। इन्हीं के आधार पर मनुष्य प्रामाणिक और पराक्रमी बनता है। प्रगति के यही दो चरण है जिनके सहारे लोग भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं। ईश्वर की मान्यता का प्रभाव न्यूनाधिक मात्रा में सदाशयता और शालीनता की अभिवृद्धि में ही दृष्टिगोचर होता है। यों बुराइयाँ तो आस्तिकों में भी पाई जाती है, पर नास्तिकता अपना लेने पर तो मनुष्य उन मर्यादा उल्लंघन के सम्बन्ध में और भी अधिक निर्भय हो जाता है। सम्भावनाओं की दृष्टि से देखा जाय तो आस्तिक की तुलना में नास्तिक के अनाचार मार्ग पर चल पड़ने की अधिक सम्भावना है। श्रेष्ठ मार्ग पर कदम बढ़ाने वाले के लिए ईश्वर विश्वास एवं सुयोग्य एवं सुसम्पन्न साथी की तरह सहायक सिद्ध होता है, वह सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहन ही नहीं वरन् सहायता के आश्वासन भी देता है। इन दोनों आन्तरिक उपलब्धियों के सहारे चलने वाले का साहस प्रतिकूलताओं के बीच भी अविचल बना रहता है ऐसी दशा में उसे ऐसी अन्त-स्फुरणा का लाभ नहीं मिलता जो अग्रगमन के लिए अनुकूल साधनों से भी अधिक मूल्यवान होती हैं।

बुद्धि की एक सीमा है। प्रत्येक प्राणी को वह उसकी आवश्यकता के अनुरूप ही मिली है। उसके आधार पर चेतना के परतों को समझना तो दूर पदार्थ के प्रत्यक्ष दर्शन से आगे की-उसकी सूक्ष्म क्षमताओं तक की पूरी जानकारी नहीं हो सकी। प्रकृति के अनेक रहस्यों को जानने में मनुष्य ने आश्चर्यजनक सफलता पाई है, पर अभी जो जाना गया है उसकी तुलना में अविज्ञात का विस्तार अत्यधिक है। प्रकृति के नये-नये रहस्यों का उद्घाटन आये दिन होता रहता है। यह क्रम आगे भी चलता रहेगा किन्तु इस भौतिक जगत की सूक्ष्मतम परिस्थितियों को पूर्णतया जान सकना कभी भी सम्भव न हो सकेगा, क्योंकि प्रकृति के विस्तार की तुलना में मानवी बुद्धि की एक सीमा और मर्यादा है उससे आगे बढ़ सकना उसके लिए सम्भव नहीं है।

इस संदर्भ में दार्शनिक विज्ञानवेत्ता हिटक ने अपनी पुस्तक ‘साइन्टिफिक रोमाँसेज’ में प्राणियों की बुद्धि सीमा-बन्धन के कितने ही उदाहरण दिये हैं। वे आँख से न दीख सकने वाले एक जीव ‘माइक्रोब’ का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि उसे केवल लम्बाई-चौड़ाई की दो दिशाओं की ही ज्ञान है। ऊँचाई से वह परिचित नहीं है। उसे समतल फर्श पर रखा जाय तो वह चलता ही रहेगा किन्तु यदि आगे कोई तख्ती खड़ी कर दी जाय तो रुक भर जाएगा उसका कारण न समझ सकेगा और न उससे बच निकलने का कोई उपाय ही करेगा। यदि तख्ती हटा दी जाय तो फिर चलने लगेगा किन्तु उस अवरोध के खड़े होने या हटने से उसकी गति पर क्यों प्रभाव पड़ा इसका कुछ भी कारण न समझ सकेगा। तख्ती खड़ी होने या हटने के क्रिया-कलाप के सम्बन्ध में कोई कल्पना तक कर सकना उसके लिए सम्भव न होगा। इतने पर भी माइक्रोब के अतिरिक्त अन्य प्राणी यह तो स्वीकार नहीं ही करेंगे कि ऊँचाई का कोई आयाम ही नहीं होता। लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई के तीन आयाम बुद्धि का भी है। बुद्धि की भी एक सीमा मर्यादा है। वह न तो असीम है-न निभ्रान्त और न सर्वज्ञ है। हर प्राणी की आवश्यकता को देखते हुए प्रकृति ने उसे कामचलाऊ मात्रा में इस उपहार से सुसज्जित किया है। उसमें घट-बढ़ भी एक सीमित मात्रा में ही हो सकती है। मानसिक अपंगों की बात दूसरी है।

कर्मफल न चाहते हुए भी मिलते हैं। कोई नहीं चाहता कि उसे अशुभ कर्मों के फलस्वरूप दण्ड मिले। कोई नहीं चाहता कि पुरुषार्थ के अनुपात से ही सफलता मिले। हर कोई दुःख से बचना और सुख का अधिकाधिक लाभ पाना चाहता है। पर यह इच्छा कहाँ पूरी होती है ? नियामक शक्ति द्वारा पदार्थों की तरह ही प्राणियों पर भी अंकुश रखा जाता है और जहाँ भी वे आलस्य प्रमाद बरतते हैं वहीं असफलताओं की, पिछड़ेपन की हानि उठाते हैं। व्यवस्था तोड़ते ही ठोकर खाते और दण्ड पाते हैं। विष खाना और पानी में कूदना अपने हाथ की बात हैं, पर उसके दुष्परिणामों से बच सकना कभी-कभी संयोगवश ही होता है। अपनी ही चेतना की सूक्ष्म परतों में ऐसी व्यवस्था ‘फिट’ है कि वह कुविचारों, कुकर्मों का प्रतिफल स्वचालित पद्धति से अपने आप ही प्रस्तुत करती रहती है। इसे झुठलाना या इससे बच निकालना भी किसी के हाथ में नहीं। देर तो होती हैं, पर अन्धेर की तनिक भी गुँजाइश नहीं है। आज के कर्मों का फल कल मिले इसमें देरी तो हो सकती है किन्तु कुछ भी करते रहने और मनचाहे प्रतिफल पाने की छूट किसी को भी नहीं है। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन की प्रक्रिया से सभी को असुविधा अनुभव होती है। सभी सुविधाजनक स्थिति में स्थिर रहना चाहते हैं, पर सृष्टि क्रम के आगे किसी की मर्जी नहीं चलती। इस व्यवस्था प्रवाह को ईश्वर समझा जा सकता है।

अन्तःकरण में एक ऐसी शक्ति काम करती है जो सन्मार्ग पर चलने से प्रसन्न, सन्तुष्ट हुई दिखाई पड़ती है और कुपंथ अपनाने पर खिन्नता, उद्विग्नता का अनुभव करती है। अन्तरात्मा की इसी परत में ईश्वर झाँकता हुआ देखा जा सकता है।

मानव जीवन में समता, सहयोग, शिक्षा, साहस, चरित्र और सुरक्षा जैसे उच्चस्तरीय तत्त्वों के अभिवर्धन की आवश्यकता है। यह मनन स्थितियाँ भी हैं और परिस्थितियाँ भी। इन्हें आस्थाओं की गहराई में प्रवेश करने के लिए जिस दर्शन की आवश्यकता है वह आस्तिकता का ही हो सकता है। निजी और तात्कालिक संकीर्ण स्वार्थपरता पर अंकुश लगाकर ही सामाजिक और आदर्शवादी मूल्यों का परिपोषण हो सकता है। प्रत्यक्षवाद का दबाव यह रहता है कि अपना सामयिक स्वार्थ सिद्ध किया जाय भले ही उसके फलस्वरूप भविष्य में अपने को ही हानि उठानी पड़े अथवा सार्वजनिक अहित करना पड़े। इस पशु प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने से ही मानवी आदर्शों की नींव रखी जा सकती है। इस स्तर की आस्थाएँ उत्पन्न करने में आस्तिकतावादी दर्शन से बढ़कर और कोई मनोवैज्ञानिक स्थापना हो नहीं सकेगी। देश-भक्ति समाज-निष्ठा अति मानव आदि के कितने ही विकल्प इसके लिए रखे गये और प्रयुक्त होते रहे हैं, पर उनसे बौद्धिकता अधिक और आध्यात्मिकता स्वल्प रहने से आस्था न बन सकी और नीति के रूप में जो जाना माना गया था वह संचित कुसंस्कारों की पशु प्रवृत्ति के सामने ठहर न सका। मानव जीवन की गरिमा और सामाजिक सुव्यवस्था के लिए साधनों की उतनी आवश्यकता नहीं जितनी आस्थाओं की। आस्तिकता का मूलभूत आधार इसी स्तर की आस्थाएँ उत्पन्न करता है।


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