विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय निश्चित

November 1977

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नास्तिक दर्शन के मूर्धन्य प्रतिपादक ‘नीत्से’ ने अपने प्रबल तर्कों के सहारे आस्तिक बाद का खण्डन किया था। वे कहते थे कि इस संसार में मात्र पदार्थ को ही सत्ता है। मनुष्य भी पदार्थ है। उसे चलता फिरता पौधा समझना चाहिए। आत्मा रासायनिक पदार्थों के सम्मिलन की स्फुरणा मात्र है जो शरीर के मरने के साथ ही समाप्त हो जाती है। ईश्वर का नीत्से ने पूरा मखौल उड़ाया और कहा वैज्ञानिक प्रतिपादनों ने ईश्वर को मार दिया। अब वह कभी भी जीवित न हो सकेगा।

बात बहुत पुरानी नहीं है। नीत्से के तथा तत्समय अन्य अनेक नास्तिकता वादी दार्शनिकों के प्रतिपादन में पिछली शताब्दी में अनीश्वर वाद की प्रचण्ड लहर चली और उस हवा ने अपरिपक्व मस्तिष्कों को पूरी तरह प्रभावित किया। एक बार लगा कि कहीं सचमुच ही ईश्वर मरने तो नहीं जा रहा है। अध्यात्मवाद के प्रतिपादनों का कहीं इसी शताब्दी में अन्त तो नहीं हो जाएगा ।

पर अब समय बदला है। विज्ञान में प्रौढ़ता और परिपक्वता आई है अस्तु शोधों ने नये आधार दिये है। अब ईश्वर की मृत्यु पुराने जमाने की बात हो गई नवीनतम समस्या यह है कि कही पदार्थ की सत्ता ही तो समाप्त होने नहीं जा रही है। विज्ञान पदार्थ के गुण और स्वरूप का निर्धारण करता है, पर जब पदार्थ की सत्ता का ही लोप हो जाएगा तो फिर वान का अस्तित्व किस पर निर्भर रहेगा? आज ईश्वर की मृत्यु की बात विज्ञान के मूर्धन्य मस्तिष्क में ही नहीं वरन् वे इस असमंजस में है कि भौतिकी का सारा ढाँचा जो आँखों के सामने खड़ा है कहीं जादुई महल ही तो नहीं है।

आधुनिक भौतिकी के अनुसन्धानों ने अध्यात्म की उन अनन्त सम्भावनाओं के समर्थन की ही दिशा प्रशस्त की है, जिन्हें उन्नीसवीं शताब्दी से बीसवीं के पूर्वार्ध तक स्वप्निल कुहेलिका मात्र माना जाता था। ‘पदार्थ’ की सत्ता की खोज ने ‘परमाणु’ तक पहुँचाया और परमाणु की खोज बढ़ते-बढ़ते यह तथ्य प्रकाश में आया कि वे विद्युत-तरंगों के संघात मात्र ही है। और अब, अधुनातन अनुसन्धानों द्वारा यही स्पष्ट होता है कि वे विद्युत-तरंगें भी अज्ञान तरंग-समूहों का ही एक अंश मात्र है। इस तरह भौतिकी आज अनन्त अज्ञात तरंग-संघातों के तथ्य तक पहुँचकर अद्वैत वेदान्त की स्थापनाओं के अति निकट आ गई है। आधुनिक भौतिकीविद् इस स्थान पर आकर विस्मय और रहस्य से भर उठे हैं तथा उनमें जिज्ञासा और अन्वेषण का संकल्प और अधिक प्रखर हो गया है। क्योंकि वे स्पष्ट देख रहे हैं कि पदार्थ की मूल सत्त के अन्वेषण क्रम में जिन अज्ञात तरंग-संघातों की जानकारी तक वे आ पहुँचे हैं, वे तरंगें भी अपने मूल रूप में क्या हैं, यह जान सकना बहुत ही कठिन हो गया है, क्योंकि ये तरंग-समूह वस्तुतः मूल सत्ता नहीं कही जा सकती। अपितु इलेक्ट्रानिक कार्य-विधि की हमारी जो जानकारी है, उसी की मानो यह मानसिक संरचना है।

इस तरह वस्तुपरक विश्व तो मानस और आत्मा के क्षेत्र में समाहित एवं विलुप्त होता जा रहा है। आज यदि किसी भौतिकीविद् से पूछा जाय कि यह जगत क्या है, तो वह यही उत्तर देगा कि हम अब तक ऊर्जा और “इलेक्ट्रानिक क्रियाविधि” की जो भी जानकारी प्राप्त कर सके हैं, उसी की कल्पना-सीमा में बाँधने पर हम भले ही विश्व को मूल सत्ता का कुछ तरंग-समूहों का नाम दें, पर सच बात तो यह है कि यह दुनिया ऐसी अज्ञात और अकथनीय तरंगों का संघात मात्र है, जिनके बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं, वहीं कह सकते हैं, पर इस निवेदन के साथ कि मूल स्वरूप उसका क्या है, यह हमें स्वयं ज्ञात नहीं। अर्थात् ‘कहत कठिन समुझत कठिन।’

इस प्रकार विज्ञान भी आज अध्यात्म की ही तरह विनम्र है और अपनी सीमाओं की घोषणा कर रहा है। बालबुद्धि का शोर अब थम गया है। यों विज्ञान दुराग्रही कभी भी नहीं रहा। उसकी नास्तिकता अपनी स्थिति का विवरण-प्रतिवेदन मात्र थी, कोई निश्चित निष्कर्ष नहीं। उसने सृष्टि की चैतन्य सत्ता के अस्तित्व की सम्भावना को अस्वीकार कभी भी नहीं किया था। वह तो अपने प्रतिपाद्य विषय के निष्कर्षों को प्रस्तुत कर देता रहा है। उसका प्रतिपाद्य विषय इन्द्रिय-बोध के आधार पर सूक्ष्मदर्शी उपकरणों की सहायता से वस्तुतः सत्ता का विश्लेषण-विवेचन और निष्कर्ष संग्रह रहा है। इस प्रक्रिया में वह ‘मैटर’ को ही अपना अनुसन्धान क्षेत्र बनाए रहा है। ‘मैटर’ की मूलभूत सत्ता का विवेचन वह निष्ठा और श्रम के साथ करता रहा है। किन्तु अब इस ‘मैटर’ की मूलभूत सत्ता ही संदिग्ध और अनिश्चित हो गई है।

भौतिकी वैज्ञानिकों की मान्यता है कि शीशे और काँसे से अधिक भारी परमाणु स्थायी नहीं है। वे टूट जाते हैं। रेडियोसक्रिय द्रव्य से जब विकिरण निष्क्रमित हो जाता है, तो उनकी रेडियो-सक्रियता की शक्ति में कुछ कमी पाई जाती है। यह क्षरण की प्रक्रिया है। इस प्रकार एक परमाणु विसंगठित तथा विसर्जित हो सकता है। परमाणु सम्पूर्णतः स्थायी वस्तु नहीं है, इसके विपरीत वे परिवर्तनशील है, उत्पन्न होते तथा नष्ट होते रहते हैं। इस प्रकार ‘मैटर’ की कोई मूलभूत सत्ता इस रूप में नहीं है। उसका भी जन्म-मरण होता रहता है। द्रव्य की सक्रियता का अर्थ है क्रमशः क्षीण होते जाना और अन्त में समाप्त हो जाना। इसीलिए वैज्ञानिक अब यह मानते हैं कि द्रव्यमय जगत का ह्रास एवं विनाश अनिवार्य है। भौतिकविदों ने खोज की है कि प्रकृति के क्रियाकलापों में प्रत्येक अपव्यय का लेखा-जोखा रहता है। इस प्रकार सन्तुलन क्रमशः कम हो रहा है। एक दिन यह पूरी तरह गड़बड़ा जाएगा और सृष्टि का वर्तमान स्वरूप विघटित हो जाएगा ।

एक सामान्य व्यक्ति के लिए यह संसार रूप, रंग, ध्वनि, ताप आदि का समन्वित स्वरूप है। किन्तु एक आधुनिक वैज्ञानिक की दृष्टि में यह सृष्टि रंग रहित, गन्ध रहित, ध्वनि रहित है। उसकी दृष्टि में प्रकृति में वस्तुतः द्रव्य है ही नहीं। वह सिर्फ दिक्-काल का और विद्युत-प्रवाहों का ऐसा विस्तार है, जिन्हें सम्भावनाओं की अज्ञात तरंगों के द्वारा ही वर्णित किया जा सकता है। अर्थात् ऐसी तरंगों का खेल है यह संसार, जिनमें अनन्त सम्भावनाएँ विद्यमान है और जिनका मूल स्वरूप अज्ञात है। यह ठोस दिखने वाला विश्व जब भली−भाँति विश्लेषित किया जाता है तो एक ऐसे रहस्यमय परिमाण (क्वान्टिटी) का रूप ले लेता है, जिसका वर्णन असम्भव है, कुछ गणितीय प्रतीकों द्वारा जिसका संकेत मात्र किया जा सकता है। इस प्रकार इस भौतिक विश्व का पूरा ढाँचा, नाना रूपों नाना वेशों वाले, नक्षत्र मालाओं, पर्वत शृंखलाओं, नर-नारियों पशु-पक्षियों प्राणियों और वस्तुओं से भरपूर, ध्वनियों और रंगों तापों और गन्ध से भरपूर यह पूरे का पूरा ढाँचा अन्तिम वैज्ञानिक विश्लेषण में मात्र विद्युत प्रवाहों अथवा असीम शून्य आकाश या कि अनन्त सम्भावनाओं से भरी तरंगों का समुच्चय मात्र रह जाता है। ‘मैटर’ रह ही नहीं जाता। ठोस दिखने वाला यह संसार वाष्प की तरह उड़कर अदृश्य हो जाता है और वस्तुएँ विलीन हो जाती है, बहुत्व की और बढ़ता-सा दिख रहा विभिन्न रूपों तथा नामों में अभिव्यक्त हो रहा यह ब्रह्माण्ड एक ही अति सूक्ष्म मूल सत्ता में, शक्ति के उस मूल रूप में समाहित हो जाता है, जहाँ से कि उसका उद्गम होता है।

‘द यूनीवर्स एंड डा आइन्स्टाइन’ के लेखक बर्टन लिखते हैं-जिसे वैज्ञानिक तथा दार्शनिक आभास मय जगत कहते हैं, वह संसार है, जो कि मरणधर्मा मनुष्य अपनी प्रकृति के अनुरूप अनुभव करता है। जिसे ये वैज्ञानिक दार्शनिक यथार्थ जगत कहते हैं- वह रंग रहित, ध्वनि रहित, अव्याख्यये, कास्मास है। मनुष्य की प्रक्षेपण के तल में यथार्थ जगत प्रतीकों का एक कंकाल-ढाँचा मात्र है।”

‘गाइट टू फिलॉसफी’ नामक पुस्तक में श्री जाड़ ने भी ऐसा ही कुछ कहा है- मेटर दिक् तथा काल में विस्तृत एक रस्सी का ऐंठन की तरह है। वह एक इलेक्ट्रानी कुकुरमुत्ता है। अनन्त सम्भावनाओं की एक ऐसी तरंग है, जो कुछ नहीं जैसा है। ऐसी विद्युतधाराओं का समूह है, जो किसी भी ‘वस्तु’ में प्रवाहित नहीं होती। दिक्काल में घट रही घटनाओं की एक व्यवस्था है, जिसकी विशेषताएँ मात्र गणितीय ढंग से संकेतित की जा सकती है।”

एडिंगटन महाशय भी कहते हैं-मैटर का सारभूत अंश पिघलकर छायावत् बन गया है, वह गया है। वह एक अज्ञात परिणाम मात्र रह गया है, जिसके लिए गणितीय संकेत ‘क्ष’ का प्रयोग किया जा सकता है।

तब क्या आकर्षक रंगों की, सम्मोहक सौंदर्य की, चित्ताकर्षक ध्वनियों और लुभावने संगीत की, पृथिवी पर फैलने वाले प्रकाश की, जीवन उत्पन्न करने वाली ऊष्मा की कोई सत्ता नहीं है? आधुनिक वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, उसका कोई यथार्थ स्वरूप नहीं है। वे तरंगों और गतियों के विभिन्न समूह मात्र है। ऊष्मा क्या है? अणुओं का कम्पन मात्र। ध्वनि क्या है- वातावरण की तरंगों का संवात। और प्रकाश तथा वर्ण? “इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पैकट्रम” में विभिन्न ‘फ्रीक्वेन्सीज’ की वेवलेंथ के अलग-अलग ‘सेट’ मात्र है। प्रत्येक रंग प्रकाशखण्ड में कुछ निश्चित ‘फ्रीक्वेन्सी’ तथा ‘वेवलेंथ’ की तरंगों का परिणाम है। वस्तुतः है मात्र ये तरंगें। जो रंग हम देखते हैं, वह हमारा ‘आत्मपरक सृजन’ है एडिंगटन कहते है-तरंग है यथार्थ और रंग जो हम देखते हैं, हमारी दिमागी बनावट है।” इस प्रकार जिसे हम वस्तु-सत्य कहते हैं, वह असल में हमारा ही “आत्मपरक सृजन” है। इस प्रकार विज्ञान अध्यात्म के ही निष्कर्षों तक आ पहुँचा। दोनों की आधार-भूमि एक ही चली।

भारतीय मनीषी सृष्टि के इस मूल स्वरूप से हजारों वर्ष पूर्व से परिचित रहे हैं। वेदान्त की सृष्टि व्याख्याएँ आज भौतिकी के अनुसन्धानों द्वारा भी प्रमाणित-पुष्ट हो रही है।

अगले दिनों विज्ञान के बढ़ते चरण निश्चित रूप से उस स्थान पहुँचेंगे, जहाँ प्रकृति और पुरुष का मिलन होता है। जड़-पदार्थ और चेतन जीवन में बहुत समय से अन्तर माना जाता रहा है। जब बात आगे बढ़ रही है और एक चेतना का अस्तित्व ही उसी रूप में आ रहा है जिसमें पदार्थ का भी सम्मिश्रण है। इसे जीवन कह सकते हैं और जीवन ही निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है।

अध्यात्म और विज्ञान की पिछले दिनों परस्पर विरोधी माना जाता रहा है। नवीनतम शोधें उन्हें पूरक ही नहीं एकीभूत भी सिद्ध कर रही है। ऐसी दशा में यह आशा की जा सकती है कि वेदान्त के उस तत्त्व-दर्शन का विज्ञान द्वारा भी प्रतिपादन होगा, जिसमें अद्वैत की सर्वव्यापी सत्ता का प्रतिपादन किया गया है।

नीत्से ने ईश्वर को विज्ञान के हथियार से मार डालने की घोषणा की थी। अब वह दुधारा उलट गया है और उलटे पदार्थ विज्ञान के अस्तित्व पर ही कुठाराघात कर रहा है। आशा की जानी चाहिए कि प्रहार युग समाप्त हुआ कुछ ही दिन में विज्ञान और अध्यात्म दोनों ही गले मिलेंगे और उस सार्वभौम एकता का प्रतिपादन करेंगे, जिसके सहारे विश्व एकता की मान्यताएँ पनपे और सर्वत्र आत्मीयता भरे व्यवहार से धरती पर स्वर्ग के अवतरण का आनन्द बिखरे।


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