हार आखिर आदमी की हुई

November 1977

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न जाने क्यों और कैसे मनुष्य में सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी होने की अहमन्यता विकसित हो गई है। अपने इस पूर्वाग्रह को उसने निरीह प्राणियों पर थोप कर उनका शोषण और मनचाहा उत्पीड़न किया। जो दाँव उसने उन पर चलाया वह धीरे-धीरे उसके स्वभाव का एक अंग बन गया। अब यही प्रयोग वह अपनी जाति पर भी अपनाने लगा है। जिससे मानवीय सम्वेदना का अंश धीरे-धीरे घटता और वैयक्तिक सुख स्वार्थ के शोषण और अत्याचार बढ़ते चले जा रहे हैं। आज व्यक्ति, व्यक्ति के बीच परिवार, परिवार, जातियों, समुदायों और राष्ट्रों के मध्य इस खींच-तान को स्पष्ट देखा जा सकता है।

होना यह चाहिये था कि मनुष्य सभी प्राणियों को जिज्ञासा भरी दृष्टि से देखता और उनकी अनन्त क्षमताओं से कुछ सीखने का प्रयत्न करता तो स्थिति कुछ और ही होती। अभागे कहे जाने वाले इन जीवों की मिले प्राकृतिक उपहार मनुष्य से कम नहीं कुछ अधिक ही हैं। पक्षियों की तरह अकेले किसी भी दिशा और ऊँचाई में उड़ने के लिए सम्भव है मनुष्य को कई सदियाँ लग जायें, मछलियों की तरह दिन-रात भर पानी में तैरना मनुष्य के वश की बात नहीं। मनुष्य को गगनचुम्बी इमारतें और बड़े-बड़े पुल तथा बाँध बाँधने पर गर्व हो सकता है, पर इस कला में तो दीमक-चींटियाँ और मधुमक्खियों की कुशलता कतई कम नहीं। बीवर जैसा चतुर इंजीनियर तो बिना प्रशिक्षण प्राप्त किये अपनी क्षमता प्रदर्शित कर सकता है, ‘मनुष्यों’ में कहाँ मिलेगा। बीवर या ऊदबिलाव अपनी आवश्यकताओं के लिए बहुत सुदृढ़ बाँध बनाते पाये गये हैं।

चींटी अपने भार से 70 गुना अधिक भार सहज ढो सकती है। चींटी की तुलना में मनुष्य का जितना अधिक वजन हैं, उस हिसाब से उसे बिना पहिये की माल गाड़ी का इंजिन जमीन में खींच लेना चाहिए, पर मनुष्य में उतनी क्षमता है क्या, पिस्सू मेढ़क अपनी ऊँचाई से 250 गुना ऊँचा उछल सकते हैं मनुष्य इसी तुलना में उछले तो 4500 फुट आसानी से उछल जाना चाहिए जब कि वह 10 फुट ऊँची दीवार भी फाँद नहीं सकता। मधुमक्खी छत्ता बनाती है। तो ऊपर की डाल पर यदि 20 मधुमक्खियाँ हों तो उन पर नीचे 10000 मधुमक्खियों का लगभग 7 किलो भार होगा इस औसत से एक मनुष्य की टाँगें पकड़ कर 2000 व्यक्तियों का लटक जाना चाहिए, पर कल्पना कीजिये दुनिया का बड़े से बड़ा पहलवान भी ऐसा कर सकेगा क्या ? चील की जितनी तेज आँख होती है उसी अनुपात से कहीं मनुष्य की दृष्टि रही होती तो वह प्लूटो ग्रह में चल रही गतिविधियाँ धरती से ही देख लेता। चमगादड़ जैसी सूक्ष्म श्रव्य शक्ति इंसान को मिल सकी होती तो वह धरती के किसी भाग की किसी कोठरी के अन्दर बैठकर भी सौर मण्डल की घूर्णन की आवाज- सौर घोष आसानी से सुन लेता। जैसी घ्राण शक्ति यदि मनुष्य को मिल जाती तो मंगल से उठ रही अमोनिया गैस का अनुभव उसे हरिद्वार में बैठे-बैठे मिल जाता। एक तितली दिन में जितना उड़ती है यदि वह एक सीध में लगातार उड़े तो वह दिन भर में 10 मील उड़ सकती है। मनुष्य का भार उसकी तुलना में कई हजार गुना हैं इस तुलना में तो उसे एक दिन में अधिक नहीं तो पृथ्वी की एक परिक्रमा तो आसानी से कर ही लेनी चाहिये थी।

किसी को कुत्ता कहना- मानवीय संस्कृति में सबसे बुरी गाली है किन्तु इस प्रकृति के योगी में ऐसी अतीन्द्रिय क्षमताएँ परमात्मा ने विकसित की हैं कि वह आने वाली प्राकृतिक विपदाओं, दैवी आपत्तियों की काफी समय पूर्व सूचना दे देने में सक्षम है। इटली का विसूसियस ज्वालामुखी पहली बार फटा उससे सात दिन पूर्व तक कुत्ते भयानक आवाज में रोने-चिल्लाने और मानवी विनाश की चेतावनी देने लगे थे, किन्तु किसी ने उनकी सम्वेदना को परखा नहीं और लाखों व्यक्ति ज्वालामुखी के लावे में जल मरे। 1961 में हुए भारत-पाकिस्तान युद्ध की चेतावनी कुत्तों ने पहले ही कर दी थी। गाँवों, शहरों में किसी की मृत्यु की सूचना उस मुहल्ले के कुत्ते पहले ही दे देते हैं।

वर्षा आने से पूर्व दीमकों के झुण्ड एकाएक विलुप्त हो जाते, मकड़ियाँ जाला समेटने लगतीं, चींटियाँ अपनी खाद्यान्न व्यवस्था सुरक्षित करने लगती हैं। असामयिक वृष्टि की सूचना गौरैया, मिट्टी स्नान द्वारा पहले ही दे देती है। इस अनुपात से मनुष्य को जैसी सूक्ष्म बुद्धि प्राप्त है, उसके अनुसार तो उसे त्रिकालदर्शी से कम नहीं होना चाहिए, पर ऐसे अवसरों पर उसकी दयनीयता देखते ही बनती है। कारण स्पष्ट है वह अपनी इन देव-प्रदत्त क्षमताओं के विकास की बात तो दूर उन्हें पहचानने और अनुभव करने तक का प्रयास नहीं करता। उसकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ मात्र इन्द्रियों की क्षणिक खुजली को ही शान्त करने में लगी रहती हैं।

मनुष्य शरीर जटिल रसायनों का विलक्षण भाण्डागार हैं। “हारमोन्स” के रूप में अब जिन स्रावों का वैज्ञानिकों ओर शरीर-शास्त्रियों का ज्ञान हुआ हैं, उससे तो पुराण युग की कपाल-कल्पनायें भी साकार सत्य होने जा रही हैं। आकार वृद्धि में सुरसा एक उदाहरण बन गई तो हनुमान के मशक-समान तथा ‘तब कपि भयउ पर्वतकारा” की कहानियाँ आये दिन सुनने में आती हैं। हारमोन्स ने इन सम्भावनाओं पर अपनी स्पष्ट मुहर लगा दी है। किन्तु आज इन क्षमताओं का कोई उपयोग कर पाता है क्या ? इस दृष्टि से छोटा-सा ‘मिंक’ हो भला जो अपने से कई गुने शक्तिशाली शत्रु को भी अपने शरीर से इच्छानुसार कम या अधिक मात्रा में एक विशेष प्रकार की रासायनिक दुर्गन्ध निकाल कर भगा देता है। यह मिंक वही हैं जिनकी खाल के कोट पहनने के लिए पश्चिमी लोग लालायित रहते और प्रचुर धन व्यय करते हैं। मनुष्य शरीर में जबर्दस्त रोग-निरोधक शक्ति है, पर वह बिगाड़ मच्छर तक का कुछ नहीं पाता।

मनुष्य शरीर परमात्मा का दिया हुआ एक सर्वांग-पूर्ण यन्त्र है। किन्तु उसका मनुष्य कितना सदुपयोग कर पाता है यह एक विचारणीय प्रश्न है। शरीर को मनचाही स्थिति में बदलकर यौगिक क्रियायें करने और सामान्य तन से विशेष लाभ प्राप्त करने की विशेषता थोड़े से भारतीय योगियों को प्राप्त कर सकती है, पर प्रकृति के यह पुत्र उनसे कम क्षमताएँ नहीं रखते। अमरीका के एक जन्तु-शास्त्री ने यह पता लगाया है कि कुछ पक्षियों में इस प्रकार की विशेष क्षमता होती है कि एक क्षण में ही वे अपनी आँखें के लेन्स को दूरदर्शी (टेलिस्कोप) से सूक्ष्मदर्शी (माइक्रोस्कोप) में बदल लेते हैं दूर की वस्तु ताड़ने या समीप की छोटी से छोटी वस्तु को बड़े आकार में करके पहचानने के लिए वे अपनी इस क्षमता का उपयोग करते हैं।

ईल मछली तो विधिवत् मारण मन्त्र का प्रयोग करने में सिद्ध होती है वह अपने शिकार को देखकर अपने शरीर को डायनेमो की तरह नचाकर ऐसी विद्युत शक्ति पैदा करती है कि शिकार कुछ ही क्षणों में मर जाता है, तब वह उसका भक्षण कर लेती हैं।

कबूतर यों प्रति घण्टे 55 मील की गति से उड़ सकता है, पर सामान्यतः वह 40 मील प्रति घण्टे की गति से उड़ता है। कई देशों में इनकी प्रतिस्पर्द्धा उड़ानें होती हैं। स्पेन के बार्सीलोना से लंकाशायर के एटखाम तक 919 मील, रोम से डर्वी तक 1000 मील की उड़ानें कबूतरों ने कुल 3 और 4 घण्टे के बीच की अल्प विधि में पूरी कर द्रुतगति विमानों को भी पीछे छोड़ दिया। अमेरिका के एक कबूतर ने 35 घण्टे में 10010 मील उड़ने का रिकार्ड स्थापित किया। वहीं के एक अन्य कबूतर ने 43 घण्टे लगातार मैनिटोवा (कनाडा) से दक्षिण अमेरिका के टैक्सास तक की 2040 मील की दूरी आने-जाने का रिकार्ड कायम किया।

दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका के ईचाफ द्वीप से उड़ाया गया लन्दन का एक कबूतर 5500 मील की अनवरत यात्रा 15 घण्टे में सम्पन्न कर सभी रिकार्ड ध्वस्त कर दिये। कहीं इस तरह की क्षमता मनुष्य को मिल सकी होती तो उसने अंतर्ग्रहीय दूरियों को ताक पर रख दिया होता। तब तो वह रह धरती पर रहा होता, खेती चन्द्रमा में करता तथा सैर के लिए मंगल और शुक्र से कम में उद्यान नहीं बनता किन्तु उस बेचारे के लिए दिन भर में अधिक से अधिक 30 मील पैदल चलने की क्षमता प्राप्त है। इससे अधिक के लिए तो उसे याँत्रिक सहायता ही लेनी पड़ती है।

कबूतर में पायी जाने वाली विलक्षण परीक्षण बुद्धि, स्मरण शक्ति का पता चला तो मास्को के एक इंजीनियरिंग कारखाने के विशेषज्ञों ने उनकी इस अद्भुत क्षमता का उपयोग करने का निश्चय किया। एक बाल-बियरिंग कारखाने में बनने वाले बाल-बियरिंग में से कुछ खरोंच व चोट खाये बियरिंगों को छाँट कर अलग करने की समस्या थी। कुशल से कुशल कारीगर भी उन्हें खोजने में चूक जाते थे किन्तु कुछ कबूतरों को कुल 3 सप्ताह की ट्रेनिंग देकर इस कार्य में लगाया गया तो उन्होंने कुशल कारीगरों को भी एक ओर धकेल दिया। अब इनमें से प्रत्येक कबूतर एक घण्टे में औसत 3500 बाल-बियरिंगों की जाँच कर लेता है, विलक्षण बात तो यह है कि अभी तक उनमें चूक का प्रतिशत शून्य से ऊपर नहीं उठ पाया। मनुष्य के मस्तिष्क में -“न्यूरोन” जिनमें स्मृति के बीज विद्यमान होते हैं, कणों की संख्या अरबों-खरबों होती हैं। कबूतर की तुलना में इस मस्तिष्क का यदि पूर्ण विकास किया जा सके तो सारे संसार की जितनी लाइब्रेरियाँ हैं उन्हें केवल एक ही मनुष्य अपने एक ही जीवन काल में आसानी से कंठस्थ कर सकता है।

स्मरण शक्ति में मधुमक्खियाँ, बर्रे तथा चींटियाँ अद्वितीय सामर्थ्यवान जीव है। इन पर कई प्रयोग करके यह देखा गया है कि वे चाहे जितना भटका दी जावें, उन्हें अपने घर तक पहुँचने में कोई दिक्कत नहीं होती। ध्वनि और गन्ध पहचानने की तो इनमें बहुत ही विचित्र क्षमताएँ पाई जाती हैं। जर्मनी में एक विचित्र प्रयोग किया-टेलीफोन के एक रिसीवर से एक फीट दूर, एक मादा झींगुर और एक मादा टिड्डे को रखा गया। वहाँ से बहुत दूर पहले एक नर झींगुर को ट्रान्समीटर के पास ध्वनि की और वह ध्वनि रिसीवर तक पहुँची मादा झींगुर तुरन्त अपने स्थान से भागकर रिसीवर में जा घुसी, यद्यपि रिसीवर में उसे अपना प्रेमी नहीं मिला, पर अपने प्रेमी की आवाज पहचानने में उसने भूल नहीं की। मादा टिड्डा अभी अपने स्थान पर ही जमा था। दुबारा ट्रान्समीटर के पास टिड्डे की ध्वनि कराई गई तो इस बार रिसीवर में मादा टिड्डा भागकर आई और यह सिद्ध कर दिया कि वे अपने वंश को पहचानने को सूक्ष्म बुद्धि से पूरी तरह ओत-प्रोत हैं।

पानी के अन्दर घण्टों तक बने रहने का वैज्ञानिक आविष्कार मनुष्य अब इस बीसवीं शताब्दी में कर पाया है, पर यह विद्या जल मकड़े को अनादि काल से ज्ञात है वह पानी के अन्दर की शैवाल के सहारे अपना मकान बनाती हैं और उसमें चिरकाल तक आक्सीजन प्राप्त करते रहने के लिए सतह से बुलबुले पकड़-पकड़ कर जमा लेती हैं, यह बुलबुले ही उसे वायु देते रहते हैं और इस तरह मकड़ी वर्षों तक जल के भीतर बनी रहती हैं। मनुष्य ने आज जो जल में रहने की वैज्ञानिक पद्धति का विकास किया है, उसकी मार्गदर्शक यह जल मकड़ी ही है। फिर भी वह एक सीमित अवधि तक ही जल में रह सकता है वहाँ नियमित बस्तियाँ बसाने और आनन्दमय जीवन जीने योग्य परिस्थितियों के विकास में उसे वर्षों लग जायेंगे।

लम्बे समय तक जीव-जन्तुओं के इस तरह सुव्यवस्थित, विवेकपूर्ण और सुसंस्कृत जीवन क्रम का अध्ययन करने के सुप्रसिद्ध जीव शास्त्री हेनरी बेस्टन ने बहुत ही मार्मिक ओर भावपूर्ण समीक्षा प्रस्तुत की है- वे लिखते हैं प्रकृति से परे बनावटी जीवन जीने वाला इंसान इन नन्हे प्रकृति पुत्रों को ज्ञान के चश्मे से देखता, उनकी अपूर्णता पर दया दिखाता, उनकी निम्नतर योनि के जीव होने की विवशता पर तरस खाता है किन्तु यह उसकी भूल ही नहीं-जबर्दस्त भूल है। वह यह भूल जाता है कि वे हमारी दुनिया से अधिक प्राचीन और एक परिपूर्ण जगत के प्राणी हैं वे कहीं अधिक समर्थ, सुव्यवस्थित और इन्द्रिय क्षमताओं से सम्पन्न हैं जो हम या तो खो चुके या जिन्हें प्राप्त करने में मनुष्य जाति को अभी सदियों की साधना करनी पड़ेगी। वे न तो हमसे तुच्छ हैं न दया के भिखारी। इस धरती की शोभा और शान में वे हमारे समान सहचर और सहभागी हैं मनुष्य चाहें तो उनसे स्वयं भी बहुत सीख सकता है।


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