भाग रे भाग! शरीर में आग!

November 1977

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“यह शरीर माटी का पुतला” अब यह कहावत पुरानी पड़ गई है। वैज्ञानिक भी अब धीरे-धीरे इस भारतीय तत्त्वदर्शन की मान्यता के समीप आते जा रहे हैं जिसमें मनुष्य की अन्तःचेतना या उसके प्राण-शरीर की भूरि-भूरि महत्ता प्रतिपादित की और उसके विकास को ही मनुष्य जीवन की सर्वोपरि उपलब्धि माना है। भारतीय तत्त्व विज्ञान की मान्यता यह है कि शरीर के स्थूल पार्थिव तत्त्वों को समावेश होने पर भी शरीर के सूक्ष्म आग्नेय स्फुल्लिंग जिनसे अन्तरङ्ग आत्म-चेतना बनती है अधिक महत्त्वपूर्ण है।

शाँखायन का मत है-

प्राणोऽस्मि प्राज्ञात्या। तं मामायुरमृत भित्यु-प्रमृत भित्युपास्स्वाऽऽयुः प्राणः प्राणोवा आयुः। यावदस्मिच्छरी रे प्राणोतसति तावदायुः। प्राणेन हि एवगस्मिन लोकऽमृतत्त्व माप्नोति।

मैं ही प्राण रूप प्रज्ञा हूँ। मुझे ही आयु अमृत जान कर उपासना करो, जब तक प्राण है तभी तक जीवन है। इस लोक में अमृतत्व प्राप्ति का आधार प्राण ही है।

प्राण के आग्नेय स्वरूप को इस तरह निरूपित किया है-

एषोऽग्निस्तपत्येष सूर्य एषपर्जन्यो मद्यवानष्। एष पृथिवी रयिर्देवः सदसच्चामृतं चयत्॥ प्रश्नोपषिद् 2/5

रासायनिक विश्लेषण से भले ही यह बात सिद्ध न हो, पर जो वस्तु अस्तित्व में हैं वह किसी न किसी रूप में कभी न कभी व्यक्त होती ही रहती है। लन्दन के सुप्रसिद्ध स्नायु रोग विशेषज्ञ डॉ जान ऐश क्राफ्ट को जब यह बताया गया कि उनके नगर में ही एक 11 वर्ष किशोरी कन्या जेनी के मार्गन के शरीर में असाधारण विद्युत शक्ति है कोई भी व्यक्ति उसका स्पर्श नहीं कर सकता तो उनको एकाएक विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि हाड़-माँस के शरीर में अग्नि जैसा कोई तेजस् तत्त्व और विद्युत जैसी क्षमतावान् शक्ति भी उपलब्ध हो सकती है उसके परीक्षण का निश्चय कर वे जेनी मार्गन को देखने उसके घर पर जा पहुँचे। बड़े आत्मविश्वास के साथ जेनी से हाथ मिलाने के लिए उन्होंने अपना हाथ आगे बढ़ाया। जेनी बचना चाहती थी किन्तु डाक्टर के स्वयं आगे बढ़ कर उसके हाथ का स्पर्श किया उसके बाद जो घटना घटी वह डॉ ऐश के लिए बिलकुल अनहोनी और विलक्षण घटना थी। एक झटके साथ वे दूर फर्श पर जा गिरे, काफी देर बाद जब होश आया तो उन्होंने अपने आपको एक अन्य डाक्टर द्वारा उपचार करते हुए पाया। उन्होंने स्वीकार किया कि इस लड़की के शरीर में हजारों वोल्ट विद्युत प्रभार से कम शक्ति नहीं है। सामान्य विद्युत धारा से साधारण झटका लग सकता है किन्तु 150 पौण्ड के आदमी को दूर पटक दे इतनी असामान्य शक्ति इतने से कम विद्युत भार में नहीं हो सकती ।

वास्तव में बात थी भी ऐसी ही। जेनी मार्गन जिस किसी व्यक्ति के सम्पर्क में आई, उन सबने यही अनुभव दोहराया। एक दिन जेनी अपने दरवाजे पर खड़ी थी। उधर से एक ताले बेचने वाला निकला। वह जेनी से ताला खरीदने का आग्रह करने लगा। जेनी के मना करते करते उसने सस्ते ताले का प्रलोभन देकर ताला उसके हाथ में रख दिया। उसी के साथ उसके हाथ का जेनी के हाथ से स्पर्श हो गया, फिर तो जो हालत खाकर ताले वाला पीछे जा गिरा। बड़ी देर में उसे होश आया तो वह अपना सामान समेट कर भागते ही बना। इस तरह की ढेरों घटनाएँ घट चुकने के बाद ही डॉ ऐश ने जेनी के अध्ययन का निश्चय किया था किन्तु शरीर में उच्च विद्युत वोल्टेज होने के कारण का वे भी कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सके।

बुरी हालत तो बीती एक युवक पर जो जेनी को प्यार की दृष्टि से देखता था। जेनी जो अब तक अपने इस असामान्य व्यक्तित्व से ऊब चुकी थी । किसी भावनात्मक संरक्षण की तलाश में थी इस युवक को पाकर गदगद हो उठी, किन्तु भय वश स्नेह सूत्र भावनाओं तक ही जुड़े थे। शरीर स्पर्श से दोनों ही कतराते आ रहे थे। एक दिन युवक ने जेनी को एक ओपेरा में काफी की दावत दी । काफी पीकर जेनी जैसे ही उठी फर्श पर पैर फिसल जाने से वह गिर पड़ी। युवक उसे बचाने दौड़ा किन्तु अभी जेनी को समेट भी नहीं पाया था कि स्वयं भी पछाड़ खा कर एक मेज़ पर जा गिरा इससे वहाँ न केवल हड़कम्प मच गया अपितु उस पर एक साथ कई गर्म प्याले लुढ़क गये जिससे वह जल भी गया। काफी उपचार के बाद बेचारा घर तक जाने योग्य पाया। ओपेरा में उपस्थित सैकड़ों लोगों के लिए यह विलक्षण दृश्य था जिससे जेनी की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई, पर युवक ने फिर कभी मुड़कर भी उसे नहीं देखा। देखा वैज्ञानिकों ने, पर हुई उनकी भी दुर्गति। इस विद्युत भार का कोई कारण किसी की समझ में नहीं आया। सन् 1950 तक जेनी जीवित बिजली घर रही उसके बाद अपने आप ही उसकी यह क्षमता विलुप्त हो गई।

इस तरह अनायास ही जाग पड़ने वाली शरीर विद्युत की तरह कई शरीरों में प्राण शक्ति अग्नि के रूप में प्रकट होने की भी घटनाएँ है। वास्तव में सभी भौतिक शक्तियाँ परस्पर परिवर्तनीय है अतएव दोनों तरह की घटनाएँ एक ही परिप्रेक्ष्य में आती है।

प्राणाग्नय एवास्मिन् ब्रहापुरे जाग्रति प्रश्नोपनिषद्

इस ब्रह्मपुर अर्थात् शरीर में प्राण ही कई तरह की अग्नियों के रूप में जलता है।

कई बार यह विद्युताग्नि इतनी प्रचण्ड रूप में जागृति हुई है कि वह स्वयं धारण को ही लील बैठी। चेम्सफोर्ड इंग्लैण्ड में 20 सितम्बर 1938 को एक ऐसी घटना घटी। एक आलीशान होटल में आर्केस्ट्रा की मधुर ध्वनि गूँज रही थी। नृत्य चल रहा था तभी एक महिला के शरीर में तेज नीली लौ फूटी। लोग भय वश एक और खड़े हो गये। लपटें देखते-देखते लाल ज्वाला हो गई और कुछ ही क्षणों में युवती का सुन्दर शरीर राख की ढेरी बन गया। 31 मार्च 1908 को हिटले ( इंग्लैंड ) में ही ऐसी ही एक और घटना घटी थी। जोनहार्ट नामक एक व्यक्ति बैठा कोई पुस्तक पढ़ रहा था, सामने कुर्सी पर उसकी बहन बैठी थी, एकाएक उसके शरीर से आग की लपटें निकलने लगीं। जोन ने बहन को तुरन्त एक कम्बल से ढका और दौड़ा डाक्टर को बुलाने। 10 मिनट में ही नीचे स्ट्रीट से डाक्टर वहाँ पहुँचे किन्तु उनके पहुँचने से पूर्व ही बहन, कुर्सी और कम्बल सब एक राख की ढेरी में परिणत हो चुके थे।

अमेरिका में अब तक ऐसी 200 मौतें हो चुकी है। फ्लोरिडा का एक व्यक्ति सड़क पर जा रहा था कि एकाएक उसके शरीर से आग की नीली लपटें फूट पड़ी । सहयात्रियों में से एक ने उसके शरीर पर पानी की बाल्टी उड़ेल दी। आग थोड़ी देर के लिए शान्त हो गई। जब तक डाक्टर और गुप्तचर विभाग वहाँ पहुँचे तब तक पानी सूख चुका था और सैकड़ों दर्शकों की उपस्थिति में ही आग का भभका फिर उठा और वह व्यक्ति वहीं जल कर ढेर हो गया, फ्लोरिडा के मेडिकल जनरल में छपे एक लेख में वैज्ञानिकों ने हैरानी प्रकट की कि मनुष्य शरीर में 90 प्रतिशत भाग जल होता है, उसे जलाने के लिए 5000 डिग्री फारेनहाइट की अग्नि चाहिए वह एकाएक कैसे पैदा जाती है। शरीर के कोषों (सेल्स) में अग्नि स्फुल्लिंग “प्रोटोप्लाज्मा” में सन्निहित रहते हैं, पर वह इतने व्यवस्थित रहते हैं कि शरीर के जल जाने की आशंका नहीं रहती। प्रोटोप्लाज्मा-उच्च प्लाज्मा में बदलने पर ही अग्नि बन सकती है यह सब एकाएक कैसे हो जाता है यह वैज्ञानिकों की समझ में अब तक भी नहीं आया।

टोकियो (जापान) की नेशनल मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ने इस तरह की घटनाओं पर व्यापक अनुसंधान किया और कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं इस संस्था के वैज्ञानिकों का कथन है कि आमतौर पर एक बल्ब 25 वोल्ट से 60 वोल्ट का विद्युत बल्ब जलाने जितनी विद्युत की न्यूनाधिक मात्रा प्रत्येक शरीर में पाई जाती है। ट्रांजिस्टर के “नोब” को हाथ की उँगलियों का स्पर्श देकर बजाये तो ध्वनि की तीव्रता बढ़ जाती है उँगलियाँ हटाने पर आवाज कुछ क्षीण हो जाती है, यह इसी तथ्य का प्रमाण है। विद्युत चिनगारियों के मामले आये हैं उनमें भी विद्युत आवेश अधिकांश उँगलियों में तीव्र पाया गया है, पर असीमित-शक्ति का कोई कारण खोजा नहीं जा सका।

भारतवर्ष की तरह जापान की धार्मिक आस्थाओं योग साधनाओं का केन्द्र है। सामान्य भारतीय की तरह उनमें भी आध्यात्मिक अभिरुचि स्वाभाविक है। एक घटना के माध्यम से जापानी वैज्ञानिकों ने यह निष्कर्ष निकालने का भी प्रयास किया है कि शरीर में विद्युत की उपस्थिति का कारण तो ज्ञात नहीं किन्तु जिनमें भी यह असामान्य स्थिति पाई गई उनके मनोविश्लेषण से पता चलता है कि ऐसे व्यक्ति या तो जन्म-जात आध्यात्मिक प्रकृति के थे या कालान्तर में उनमें विलक्षण अतीन्द्रिय क्षमताओं का विकास भी हो जाता है। इस संदर्भ में जेनेवा की एक युवती जेनेट डरनी का उदाहरण विशेष रूप से उल्लेखनीय है। जेनेट 1948 में जब वह 16-17 वर्षीय युवती थी किसी रोग से पीड़ित हुई। उनका वजन बहुत अधिक गिर गया। अब तक उनके शरीर में असाधारण विद्युत भार था वह काफी मन्द पड़ गया था किन्तु किसी धातु की वस्तु का स्पर्श करने पर अब भी उनकी अंगुलियों से चिनगारियाँ फूट पड़ती थी। अब वह अनायास ही ध्यानस्थ हो जाने लगीं। ध्यान की इस अवस्था में उन्हें विलक्षण अनुभूतियाँ होती वह ऐसी घटनाओं का पूर्व उल्लेख कर देतीं जो कालांतर में सचमुच घटित होतीं। व्यक्तियों के बारे में वह जो कुछ बता देतीं वह लगभग वैसा ही सत्य हो जाता। वे सैकड़ों मील दूर की वस्तुओं का विवरण नितान्त सत्य रूप में इस तरह वर्णन कर सकती थीं मानो वह वस्तु प्रत्यक्ष ही उनके सामने है। पता लगाने पर उस स्थान या वस्तु की बताई हुई सारी बातें सत्य सिद्ध होतीं। काफी समय तक वैज्ञानिकों ने जेनेट की इन क्षमताओं पर अनुसन्धान किये और उन्हें सत्य पाया किन्तु वे कोई वैज्ञानिक निरूपण नहीं कर सके- आया इस अचानक प्रस्फुटित हो उठने वाली आग या विद्युत का कारण क्या है?

रहस्य तब और भी गहरा हो जाता जब जीव-जगत इस आश्चर्य से अछूता रह जाता, पर इसे प्रकृति का उपकार ही कहना चाहिए कि मनुष्य जैसी जटिल रचना से जो तथ्य प्रकट नहीं हो पाये वह कुछ-कुछ जीव-जगत में पाई जाने वाली इन्हीं क्षमताओं के विश्लेषण से सामने आने लगे हैं मनुष्यों में तो इस तरह की घटनाएँ कभी-कभी अनायास दिखाई देती है किन्तु जीव-जगत और वनस्पति-जगत में भी ऐसे अनेक उदाहरण है जो इस गुत्थी को सुलझाने में सहायक होने लगे हैं।

वेस्ट इंडीज में ‘ट्रेन इंसेक्ट’ या रेलगाड़ी-क्रीडा पाया जाता है उसके मुँह पर एक लाल रंग का और दोनों बाजुओं में दीपकों की 11-11 की पंक्तियाँ पाई जाती है यह हरा प्रकाश उत्पन्न करती है चलते समय यह कीड़ा रात में चलती रेलगाड़ी की तरह लगता है इसी कारण इसको यह नाम दिया गया है। दक्षिणी अमेरिका में भी यह बहुतायत से पाया जाता है। वेस्टइंडीज में ही ‘कूकूजी’ नामक एक कीड़ा पाया जाता है। इसे मोटर कीड़ा कहते हैं यह जुगनू की ही एक जाति है किन्तु उसके मुँप दो-दीपक होते हैं और वह दोनों पीले रंग का प्रकाश निकालते हैं। स्पेन-अमेरिका के गृह-युद्ध के समय विलियम गोरगास नामक डाक्टर ने इस कीड़ों को एक सफेद शीशी में भर कर उनके प्रकाश में सफल आपरेशन किये थे।

वनस्पति जगत की एक काई भी स्व-प्रकाशित होती है। कटल फिश, दुश्मनों के आक्रमण के समय काले रंग का प्रकाश-बादल फैला देते हैं। झींगा मछलियाँ और अन्य कई जल के जीव अपने शरीरों से प्रकाश, उत्सर्जित करते हैं। जुगनू इस प्रकाश को उपयोग-प्रजनन क्रिया में संकेत के रूप में करते हैं। मादा जुगनू एक बार संकेत करके शान्त हो जाती है तब नर उसे ढूंढ़ता हुआ उस तक आप पहुँच जाता है इस तरह यह जीव किसी न किसी रूप में इस प्रकाश को उपयोग प्रकृति प्रदत्त विभूति के रूप में करते हैं जब कि मनुष्य को उसके लिए वाह्य साधनों का आश्रय लेना पड़ता है।

निर्जीव वस्तु से आग की लपटों का या विद्युत का निकाल लेना इस वैज्ञानिक युग में कोई चमत्कार नहीं रह गया, किन्तु जीवन्त चेतना के यह दृश्य निःसन्देह अचम्भे में डालने वाले है। जुगनू इस मामले में एक बहुत साधारण जीव है जिसकी चमक से किसी को आश्चर्य नहीं होता। समुद्र में बहुत सारे एक कोषीय जीव पाये जाते हैं, जो जुगनू की तरह स्व-प्रकाशित होते हैं दिन में तो उनकी चमक दृष्टिगोचर नहीं होती किन्तु रात में यह जीव रेत-कणों की तरह ऐसे चमकते हैं जैसे अंधेरे आसमान में तारे चमकते हों। बैंजामिन फ्रैंकलिन जो एक प्रसिद्ध विद्युत वैज्ञानिक थे, पहले यह समझते थे कि समुद्र की यह चमक समुद्र के पानी और नमक के कणों से उत्पन्न विद्युत कण है किन्तु पीछे उन्होंने भी अपनी भूल सुधारी और बताया कि समुद्र ही नहीं धरती पर भी सड़ी गली वस्तुएँ खाने वाले अनेक जीव है जो अपने भीतर से विद्युत पैदा करते हैं। कृत्रिम रूप से विनिर्मित विद्युत की मात्रा में ताप की मात्रा उसे कई गुनी अधिक होती है, किन्तु मनुष्य या मनुष्येत्तर जीवों में ऐ क्यों नहीं होता? इस प्रकाश को बैंजामिन ने ठण्डे-प्रकाश (कोल्ड लाइट) को संज्ञा दी है। दो हजार जुगनू एक साथ चमके तो उससे एक मोमबत्ती का प्रकाश उत्पन्न हो सकता है, पर उस प्रकाश को यदि एकत्र किया जाये तो रुई भी नहीं जल सकती, जब कि मोमबत्ती ईंधन को भी जला देगी।

1886 में प्राणि शास्त्रियों ने एक प्रकाश देने वाली सीप के शरीर से ‘लुसिफेरिन’ नामक एक रसायन निकाल कर यह सिद्ध किया कि ऐसे जीवों में यही तत्त्व प्रकाश उत्पन्न करता है यह तत्त्व शरीर की विशिष्ट ग्रन्थियों से निकलता है और आक्सीजन के सम्पर्क में आकर प्रकाश के रूप में परिणत हो जाता है। जुगनू में मैगनेटिक बेल की तरह यह तत्त्व रुक-रुक कर निकलता है इसी से वह जलता बुझता रहता है किन्तु यह तत्त्व किस तरह बनता है इस सम्बन्ध में वैज्ञानिक अब तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं कर सके। सम्भव है जीवन की खोज करते-करते वह रहस्य करतलगत हों जो इन तथ्यों का भी पता लगा सकें और प्राण चेतना की गुत्थियाँ भी सुलझा सकें।

सम्भव है भारतीय योग-विद्या का प्राण विज्ञान इस दिशा में कुछ महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाल कसे। सामान्य मनुष्य के लिए तो प्राणों की मात्रा को इस तरह आश्चर्यजनक रूप में बढ़ा पाना सम्भव नहीं किन्तु “प्राणायाम” आदि के अभ्यास से प्राण मात्रा को इतना विकसित किया जा सकता है कि शरीर में हो रही डिजनरेशन क्रिया को भी नियन्त्रित किया जा सके। अदृश्य रूप से निवास करने वाली इस प्राण शक्ति को शरीर की ऊर्जा के रूप में भारतीय योगी प्रयुक्त कर उस तरह के विलक्षण कार्य करते रहे है जैसे उपरोक्त उदाहरणों में अनायास ही हुए जान पड़ते हैं। अभी कुछ समय पूर्व भौतिक शास्त्रियों ने एक ऐसे कैमरे का विकास किया है जिसके द्वारा प्राणों की किरणों को स्पष्ट देखा और उनका फोटो लिया जा सकता है इसे “किर्लियन फोटोग्राफी” कहते हैं यह विज्ञान की नितान्त प्रारम्भिक गति हैं भारतीय तत्त्वदर्शियों की जानकारियाँ इस संदर्भ में बहुत उच्च कोटि की रही है।

प्रश्नोपनिषद् (4-6) तथा छान्दोग्य उपनिषद् (8-6-3) में प्राण को ही अग्नि अथवा तेजस् कहा है। लय की स्थिति का वर्णन करते हुए छान्दोग्य (6-8-6) में बताया गया है- प्राण की द्रुत चालित अवस्था में ही तेज या अग्नि प्रकट होती हैं वृहदारण्यक में महर्षि उद्दालक के प्रश्नों का उत्तर देते हुए याज्ञवल्क्य ने प्राण को वायु में घुला हुआ तत्त्व बताया है। “वायुः प्राणोभूत्वा” द्वारा एतरेय ने भी उसकी पुष्टि की है जो वैज्ञानिकों की जीवों के प्रकाश सम्बन्धी व्याख्या से मेल खाली है। प्राण-विद्या की शक्ति सामर्थ्य और सम्भावनाएँ अपने आप में एक इतना बड़ा चमत्कार है जिसकी तुलना में उपरोक्त घटनाएँ नितान्त साधारण और तुच्छ है, पर उसकी अनुभूति और विकास को ‘प्राणमय कोष’ की उच्चस्तरीय साधनाओं से ही सम्भव हो सकती है। प्राणों का स्वरूप स्थिति और विज्ञान जान लेने के बाद, आत्मा-परमात्मा और प्रकृति में से जानने के लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता।


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