पृथ्वी और सूर्य, आत्मा और परमात्मा आदर्श पति पत्नी

July 1975

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पृथ्वी और सूर्य को आदर्श पति-पत्नी कहा जा सकता है। पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है, उससे प्रकाश ग्रहण करती है और जीवित रहती है। आदर्श पत्नी को पति के इर्द-गिर्द घूमना चाहिए, उसकी सत्ता के साथ अपनी सता जुड़ी रखनी चाहिए। उससे प्रकाश ग्रहण करना चाहिए, योग्यता से लाभान्वित होना चाहिए और यदि वह सूर्य जैसा प्रकाशवान है, जो उसके जीवन से अपने जीवन को आलोकित भी करना चाहिए। सूर्य भी अपने उत्तरदायित्वों की उपेक्षा नहीं करता। अपनी समग्र सम्पदा का अजस्र अनुदान उसे मुक्त हस्त से प्रदान करता है और उसके रोम−रोम में जीवन संचार करने में अपने साथ ग्रन्थि वन्दन को, पाणिग्रहण को सार्थक बनाता है।

कभी सूर्य और पृथ्वी एक ही गोलक में संयुक्त थे जैसे सृष्टि के आरम्भ में नर और नारी एक थे। पीछे परिस्थितियों ने दोनों को अलग कर दिया फिर भी उनकी महानता में कोई अन्तर नहीं आया। परमात्मा का एक अंश ही जीव है। कभी दोनों एक थे, अब वे अलग हो गये फिर भी मूल सत्ता की विशेषता दोनों पक्षों में यथावत् विद्यमान है। पृथ्वी सूर्य से अलग है तो भी अपने भूल केन्द्र के विशेष वैभव की उत्तराधिकारिणी बनी हुई है। परमात्मा का समस्त वैभव बीज रूप में आत्मा में मौजूद हैं। पृथ्वी का ठोस पिण्ड थोड़ी सी परिधि में सीमित है पर उसका शक्ति क्षेत्र, वायुमंडल बहुत बड़े क्षेत्र में संव्याप्त हैं।

पृथ्वी कितनी बड़ी है इसका उत्तर छोटी कक्षा के विद्यार्थी तुरन्त 8000 मील व्यास बता कर दे सकते हैं। पर चूँकि वायु मण्डल भी पृथ्वी का ही अंग है धरती की वायु भूत सम्पदा जिस क्षेत्र में उड़ती फिरती हैं, उसे भी उसी का एक अंग क्यों न माना जाय। इस प्रश्न के अनुसार पृथ्वी का विस्तार और अधिक बढ़ जाता है। अब से 50 वर्ष पूर्व यह वायु मंडल 7-8 मील माना जाता था। पीछे माया गया कि वह 100-150 मील तक फैला हुआ है। रेडियो संचार की खोज ने उसे 250-300 मील तक पहुँचा दिया। पर अन्त यहाँ भी नहीं होता। प्रकृति की दिव्य रंग बिरंगी, झूमती, लहराती, उरु ज्योतियाँ, आऊरोरल लाईट्स दिखाई पड़ती रहती है वे भी बिना वायु मंडल के कैसे चमकती होंगी। यह सोचकर अब वायु मंडल का विस्तार 700 मील ऊंचाई तक मानना पड़ा।

रूसी और अमेरिकी उपग्रहों ने नये समाचार यह लाकर दिए कि वायुमंडल बहुत आगे तक फैला हुआ हैं। पृथ्वी की भूमध्य रेखा के चारोँ और दो मोटे-मोटे कवच है मानो पृथ्वी ने कमर में मजबूत मेखलाएं पहन रखी हों। पृथ्वी तल से इनकी दूरी क्रमशः 2 हजार और बीस हजार मील है। यह मेखलाएं किस चीज की बनी है, इसके उत्तर में उस स्थिति को ‘प्लाज्मा’ कहा गया है। पिछले दिनों पदार्थ के तीन स्वरूप बताये जाते रहे हैं। (1) ठोस (2) तरल (3) वायव्य। अब एक चौथा तथ्य और सामने आया है -प्लाज्मा। यह गैसीय स्थिति से भी विरल स्थिति है इतनी विरल कि उसमें परमाणुओं का विघटन हो जाता है। असल में ठोस पृथ्वी का वायव्य विस्तार इतने बड़े क्षेत्र को घेरे हुए है, यही मानकर चलना चाहिए। पृथ्वी का वास्तविक कलेवर इतना ही सुविस्तृत है।

पिछले दिनों यह माना जाता रहा है कि ग्रह नक्षत्रों के बीच अन्तरिक्ष क्षेत्र नितान्त शून्य है। अब यह माना गया है कि शून्य नाम की कोई चीज नहीं। सर्वत्र किसी न किसी रूप में पदार्थ की सत्ता मौजूद है। अन्तरिक्ष भी विद्युन्मय चैतन्य से भरा है उसमें भी स्पन्दन मौजूद है और प्लाज्मा अथवा अन्य रूपों में पदार्थ की सत्ता विद्यमान है। पृथ्वी की ठोस परिधि समाप्त होते ही वायु मंडल की परत आरंभ होती है और वायु मंडल के समाप्त होते ही प्लाज्मा की परत आरंभ हो जाती है तो फिर प्लाज्मा को भी पृथ्वी की ही परिधि में क्यों न गिन लिया जाय? पृथ्वी का यह चुम्बकीय क्षेत्र है। प्लाज्मा की हलचलों को सूर्य से गति मिलती है अस्तु सूर्य और पृथ्वी के बीच का सारा क्षेत्र चुम्बक मण्डल बन जाता है। उसी से सूर्य और पृथ्वी के बीच अति महत्वपूर्ण आदान-प्रदान चलते रहते हैं।

पति पत्नी का स्थूल कार्य क्षेत्र में घर परिवार की छोटी सीमा में सीमाबद्ध प्रतीत होता है पर वस्तुतः उसका कर्तव्य और उत्तरदायित्व, समाज, राष्ट्र और विश्व की सुविस्तृत सीमाओं का स्पर्श करता है। सूर्य पृथ्वी का पोषण करता है पर उतने एक सीमित नहीं है वह अन्य ग्रह उपग्रहों को भी अपने अनुदान देता है और अनन्त आकाश को अपनी सामर्थ्य से प्रभावित प्रकाशित करता है; यही बात पृथ्वी की भी है वह सूर्य की अनुचरी तो है। पर अपने शिशु चन्द्रमा सहित सुविस्तृत प्रभाव क्षेत्र अपने अनुदान बखेर कर ब्रह्मांड व्यापी आदान-प्रदान प्रक्रिया के निर्वाह का पूरी तरह ध्यान रखती है। न सूर्य न पृथ्वी कोई किसी के लिए सीमित नहीं होते यद्यपि कर्तव्य पालन में कोई त्रुटि भी नहीं रहने देते ।

जिस तरह पृथ्वी का वायुमण्डल सैकड़ों मील तक फैला हुआ है उसी तरह सूर्य का वायव्य कवच लाखों मील तक फैला हुआ है। सूर्य का पीलापन लिए जो प्रभामंडल दूरबीनों से दीख पड़ता है वह उसके इर्द गिर्द का 6000 मील का आवरण वर्ण मंडल हैं। इसके बाद एक और क्षीण आलोक हैं यह एक लाख मील विस्तार का है इसे सूर्य किरीट कहते हैं। इस किरीट आवरण की हलचलें और आगे बढ़कर लाखों मील एक देखी गई है।

सूर्य के वर्ण मण्डल में कई बार आग की अत्यन्त विशालकाय लपटें सूर्य से अलग स्वतंत्र रूप से उड़ती और शून्य में विलीन होती देखी जाती हैं। वे जिधर भी जाती होंगी उधर अन्य ग्रहों से सम्बन्धित प्लाज्मा को प्रभावित करती होंगी,

विकिरण मेखलाओं को क्षेत्र इतना विशाल है कि उसकी व्याख्या मीलों तक नहीं की जा सकती है और न उन्हें किसी ग्रह विशेष की सम्पदा माना जा सकता है यह समस्त विश्व का एक संयुक्त वैभव है जिसमें सभी ग्रह उपग्रह सम्मिलित है।सूर्य मण्डल का कामनवैल्थ तो निश्चित रूप से इस शृंखला में मजबूती के साथ बँधा हुआ है ही। सूर्य को प्रसन्नता होती होगी कि उसकी परिपोषित पत्नी निखिल ब्रह्मांड को अपनी सत्ता से प्रभावित करती है और स्वतंत्र स्वावलम्बी बनकर अपने प्रखर एवं परिपक्व अस्तित्व का परिचय देती है। पति को इतना ही उदार होना चाहिए। अपनी पोषित को अपने उपभोग के लिए ही सीमाबद्ध नहीं करना चाहिए। क्षेत्र की व्यापकता होने से भी उनके परस्पर प्रेम और आकर्षण में किसी प्रकार की कमी नहीं आती।

पति अपना सारा उपार्जन अनुदान पत्नी को ही दे दे और अन्यान्य कर्तव्यों का पालन करने के लिए कुछ भी शेष न रखे यह आवश्यक नहीं। आवश्यकता के अनुरूप आदान-प्रदान ही उचित है। समूचा आधिपत्य-अधिकार तो संकीर्ण होना और संकीर्ण बनाना ही कहा जायगा। पृथ्वी ओर सूर्य में से कोई भी ऐसा अनुदान नहीं है।

सूर्य की गर्मी और रोशनी जो ब्रह्मांड में चारों और बिखरती रहती है उसका दो करोड़वाँ भाग ही पृथ्वी को मिलता है। यह थोड़ी सी सम्पदा ही पृथ्वी को जीवन प्रदान करती है। यदि इसकी थोड़ी सी सम्पदा में थोड़ी? सी भी कमीवेशी पड़ जाय तो लेने के देने पड़ जायें। गर्मी बढ़ते ही धरती की परत झुलस जाय और थोड़ी कमी पड़ जाय तो सब कुछ शीत से अकड़ कर ठंडा हो जाय। ग्रहण और प्रदान में औचित्य का ध्यान रखा ही जाता है।

पृथ्वी के पास एक से एक बढ़ी चढ़ी शक्तियाँ है उनमें एक अति महत्वपूर्ण है- गुरुत्वाकर्षण। इसी के आधार पर वह सौर परिवार के साथ अपना सम्बन्ध संतुलन बनाये हुए है। इसी के कारण उस पर रखे पदार्थ और प्राणी उछल कर अनंत आकाश में उड़ जाने से बचे रह सकते हैं। यह गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी को सूर्य से मिला स्नेह, सौजन्य सद्भाव ही कहा जायेगा। यदि वह उसका सही उपयोग कर सकें तो पृथ्वी के समान ही अपने सुविस्तृत संपर्क क्षेत्र को सुसंतुलित बनाये रह सकता है।

न्यूटन द्वारा प्रतिपादित ‘आकर्षण नियम’ की अभी भी पूरी तरह व्याख्या नहीं हुई है। उसका एक अंश ही जाना जा सका है। गुरुत्वाकर्षण क्यों है? क्या है? किस तरह है? जैसे प्रश्नों का उत्तर देने में न्यूटन ने अपनी अनभिज्ञता प्रकट की थी अभी वे प्रश्न जहाँ के तहाँ है। इस बीच कुछ नई खोजें जमा हुई हैं। समान आवेश वाले कणों का परस्पर धकेला जाना ओर विपरीत आवेश वालों का आपस में खिंचना। यह विद्युत चुम्बकीय बल हैं। आइन्स्टीन ने इस बल को फोटोन नामक अणु अंश द्वारा निःसृत सिद्ध किया है। जर्मन खगोल वेत्ता मिलिगेट और अंग्रेज वानी पोल डिराक ने यह संभावना व्यक्त की कि हो न हो गुरुत्वाकर्षण इसी विद्युत चुम्बकीय बल का स्थूल रूप है। इन्हीं 40 वर्षों में परमाणु के भीतर एक सौ से भी अधिक सूक्ष्म कण खोजे जा चुके हैं। उन्हें परस्पर बाँधे रहने की क्षमता सम्पन्न एक नया नाभिकीय बल खोजा गया है। अनुमान यह लगाया गया है कि विद्युत चुम्बकीय बल का केन्द्र यह नाभिकी सत्ता है जो विकसित एवं विस्तृत होकर गुरुत्वाकर्षण का रूप धारण करती है।

अपने शोध निष्कर्षों का निर्णय यह है कि गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी का अपना उपार्जन नहीं है वह सूर्य का ही अजस्र अनुदान है जो पृथ्वी ने अपने भीतर मजबूती के साथ गहराई तक जकड़ पकड़ लिया है।

ऐसी ओर भी अनेक शक्तियाँ है। धरती पर बिखरा पड़ा जीवन भी सूर्य का ही अनुदान है। अदृश्य आकाश में वायु, विद्युत, रेडियो विकिरण आदि न जाने क्या-क्या भरा पड़ा है। चुम्बकत्व और प्रकाश को भी इसी प्रकार के सूर्य द्वारा पृथ्वी को दिये गये उपहार कहा जा सकता है।

इस संसार में तीन प्रकार की चुम्बकीय शक्तियाँ काम कर रही है। (1) प्राणि चुम्बक (2) धातु चुंबक (3) पृथ्वी चुंबक। इन तीनों की त्रिविध शक्तियाँ इस संसार में विभिन्न प्रकार की हलचलों को जन्म देती और उनमें रूपांतरण प्रस्तुत करती है।

प्राणि चुम्बक वह है जिसके आधार पर एक प्राणी अपनी भौतिक एवं आत्मिक विशेषताओं का एक दूसरे के साथ आदान प्रदान करता है। संगति प्रभाव से लेकर प्रजनन प्रक्रिया तक में इस का चमत्कार देखा जा सकता। इसके अंतर्गत मनोबल, साहस, शौर्य, पराक्रम, तेजस्विता, ओजस् आत्मबल जैसी विशेषताएं आती हैं, रूप सौंदर्य के आकर्षण भी इसी से जुड़े हुए है एक दूसरे के निकट आने और दूर हटने की अविज्ञात हलचलें भी आधार पर होती रहती है। शाप, वरदान, सिद्धि चमत्कार और अतीन्द्रिय चेतना को भी इसी परिधि में लिया जा सकता है।

प्राणि विद्युत पर पिछली शताब्दी में गहरी खोजें हुई है। थियो फ्रास्टस्पैरा सेल्सस, वान हेलमान्ट स्काचमेंन मैक्स वेल, मैस्मर सैटामेली, कान्स्टैट पुसिगर, ला फान्टेन्ट आदि विद्वानों ने इस संदर्भ में गहरे अन्वेषण किए है। और सिद्ध किया है कि मनुष्य की शरीर गत और मनोगत विद्युत शक्ति न केवल व्यक्तित्व को उठाने गिराने में वरन् दूसरों को सहायता देने में भी बहुत बड़ी भूमिका प्रस्तुत कर सकती है। इस विज्ञान का इलेक्ट्रो वायोलजिकल्स् के रूप में मान्यता मिली और उस पर गहरे अनुसंधान हुए। डा0 डुरान्ड डे ग्रास और डा0 लीवाल्ट ने इस शक्ति का चिकित्सा शास्त्र में सफल प्रयोग किया, स्टैटिक इलेक्टि सिटी का वैसा ही प्रयोग जीवित प्राणियों की शारीरिक और मानसिक क्षमता सुव्यवस्थित करने के लिए किया गया जैसा कि वस्तुओं के हेर-फेर में सामान्य बिजली का प्रयोग किया जाता है। उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव चुम्बक के केन्द्र माने जाते हैं वहाँ से निसृत होने वाली विद्युत धाराएं धातुओं को प्रभावित करती है। यह शक्ति रासायनिक पदार्थों के रूप में परस्पर संमिश्रण के द्वारा नवीन योगिकों का सृजन करती है। अणुओं को उनके अवयवों के साथ सटाये रहती है। बिजली की उत्पत्ति का केंद्र यही है। खदानें इसी आधार पर जमा होती है और भी बहुत कुछ इसके द्वारा होता है। कम्पास की सुई का सिरा सदा उत्तर की ओर रखने में यही धातु चुम्बक ही काम करता है।

धरती को सूर्य से मिला एक उपहार है प्रकाशं इसकी अनेकों धाराएं हैं। इन धाराओं में एक का नाम है ‘लेसर’। इसकी खोज कुछ ही समय पूर्व हुई है। वैज्ञानिक इसके आधार पर बड़ी बड़ी आशाएं लगा रहें हैं। और उसे अणु शक्ति हाइड्रोजन शक्ति से भी बड़ी मानकर करतल गत करने का प्रयत्न कर रहे हैं।

आमतौर से प्रकाश रश्मियाँ जैसे जैसे आगे बढ़ती हैं, फैलती चली जाती है। अस्तु दिन-रात जाने से कुछ दूर जाकर उनका अस्तित्व समाप्त हो जाता है। साधारण प्रकाश यदि चन्द्रमा की दूरी ढाई लाख मील तक फेंका जाय तो वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते वह पच्चीस हजार मील चौड़ा हो जायगा।

लेसर किरणों की विशेषता उनके सीधे चलने में हैं वे अपनी निर्धारित दिशा में ही बढ़ती है और इधर उधर नहीं छितराती। इसी विशेषता के कारण उनके कम्पन ज्योँ के त्यों बने रहते हैं। अन्य प्रकाश दूरी के अनुपात से अपने रंग बदलते रहते हैं, पर लेसर किरणें अपना मूल रंग ज्यों का त्यों बनाये रहती हैं।

आमतौर से प्रकाश तरंगें अलग अलग लम्बाई की होती है, उनसे मिलकर दृश्यमान प्रकाश बनता है। सबसे बड़ी तरंगों को लाल और सबसे छोटी को बेंजनी रंग की माना जाता है। बल्ब हो या मोमबत्ती सभी प्रकाश इन्हीं बड़ी छोटी तरंगों से मिलकर बने होते हैं। प्रत्येक तरंग की एक आवृत्ति होती है। इन आवृत्ति पुंजों का संयुक्त स्वरूप प्रकाश के रूप में दृष्टिगोचर होता है।

‘लेसर’ अपने ढंग का अनोखा प्रकाश है। उसकी सभी तरंगें एक ही आवृत्ति की होती हैं। प्रत्येक तरंग एक दूसरे के समानान्तर चलती है। उनमें तनिक भी कालान्तर नहीं रहता। साधारण प्रकाश चारों ओर फैलता है। किन्तु लेसर एक दिशा में चलता है यही वह विशेषताएं है जिनके कारण वह अन्य प्रकाशों की तुलना में अत्यधिक शक्तिशाली सिद्ध हो सका।

लेसर की सभी किरणें एक दूसरे का साथ देती है फलस्वरूप उनकी शक्ति भी उसी अनुपात से बढ़ती जाती है। एक सेन्टीमीटर के दस हजारवें भाग जितनी छोटी जगत पर लेसर किरणें एकत्रित की गई तो उनकी गर्मी एवं चमक सूर्य को भी मात देने वाली बन गई। कुछ वर्ष पूर्व पृथ्वी से ढाई लाख मील दूरी पर घूमने वाले चन्द्रमा पर लेसर प्रकाश की टार्च फेंकी गई थी। उसने एक सेकेंड में इतनी लम्बी यात्रा पूरी करली और दो मील क्षेत्र को प्रकाश से भर दिया। लेसर की सहायता से घने अन्धकार में आवश्यक चित्र लिए जा सकते हैं और अधिक से अधिक एवं छोटी से छोटी दूरी तक उसे भेजा जा सकता है। देखते देखते एक फुट मोटी लोहे की चद्दर में छेद किया जा सकता है।

लेसर सुविधाओं से युक्त छड़ी अब बनने जा रही है। जो अंधों के लिए आँखों का काम देगी। उसे हाथ में लेकर वे चलेंगे और जानते रहेंगे कि उनके मार्ग में कितनी दूरी पर क्या बाधा है।

विभिन्न प्रयोजनों के लिए पृथ्वी से अंतरिक्ष में कितने ही उपग्रह भेजे जाते रहते हैं। इनकी कक्षा तथा चाल सुधारने के लिए इन किरणों का प्रयोग होने लगा हैं। आकाश में उड़ने वाले किसी भी शत्रु पक्ष के विमान अथवा उपग्रह को जलाकर भस्म कर देना इन किरणों की सहायता से अब बहुत ही सरल हो गया हैं। छोटे से छोटे काम यहाँ तक कि सिगरेट जलाने की जेबी माचिस बक्स तक इन्हीं किरणों से बनने लगे हैं।

पृथ्वी का लाड़ला पुत्र मनुष्य अपने पुरुषार्थ से उपार्जित ऊर्जा को आवश्यकता से कम अनुभव कर रहा है। उसे नये शक्ति स्रोतों की आवश्यकता पड़ रही है। इसके लिए उसे पिता सूर्य के आगे ही हाथ पसारना पड़ेगा। वह अपनी पत्नी पृथ्वी का और उसकी संतान का पालन करने में कभी भी कंजूसी बरतने वाला नहीं हैं।

संयुक्त राष्ट्र संघ की संग्रहित सूचनाओं के अनुसार संसार में ऊर्जा का उपयोग अत्यधिक तेजी से बढ़ रहा है। इसकी पूर्ति पैट्रोल, गैस, कोयले एवं बिजली से न हो सकेगी। अणु ऊर्जा की बात भी वन नहीं पड़ रही क्योंकि उससे उत्पन्न विकिरण को नियंत्रित करने का कोई निश्चित मार्ग निकल नहीं पाया है। ऐसी दशा में सूर्य ऊर्जा ही निरापद प्रतीत होती है।

ब्रिटेन के नोबुल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक सर जार्जपार्टर ने कहा है कि विश्व में ऊर्जा आवश्यकता जिस तेजी से बढ़ रही है उसकी पूर्ति सूर्य किरणों के अतिरिक्त और किसी प्रकार से नहीं हो सकती।

परमात्मा शक्ति का पुँज है वह अपनी पत्नी आत्मा की उसके परिवार की सभी आवश्यकताएं पूरी कर सकता है। जैसा की सूर्य पृथ्वी की उसकी संतान की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए वचन बद्ध है। पर इसके लिए वैसे ही घनिष्ठ संपर्क की आवश्यकता है। जैसा कि पृथ्वी ने सूर्य के साथ बनाया हुआ हैं ।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118