अपने को अधिकाधिक सुविस्तृत बनाते चलें

July 1975

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अपने आप में केन्द्रीभूत होकर हम उन समस्त सम्पदाओं से वंचित हो जाते हैं जो इस संसार के प्रत्येक कण में भरी पड़ी है। आहार-विहार के समस्त साधन बाहर ही उत्पन्न होते हैं और उन्हें उपार्जित करके उपभोग के द्वारा शरीर की गतिविधियाँ चलाते हैं। अपने हाथ पैर खाकर तो पेट नहीं भरते। शिक्षा, व्यवसाय, चिकित्सा, विवाह, विनोद आदि उपलब्धियाँ प्राप्त करने के लिए भी दूसरों का द्वार खटखटाते हैं और जो जितने मात्रा में मिल जाता है उससे उतनी ही मात्रा में प्रसन्न होते हैं। वे एकान्त में बैठकर मनमोदक खाते रहने से हर्षोल्लास के अवसर प्राप्त नहीं ही होते। विविध विधि पदार्थों का सहारा लेना पड़ता है, जो अपने भीतर नहीं बाहर ही मिलते हैं।

दूर दर्शिता इस बात में है कि अपने को संकीर्ण संकुचित न बनाये वरन् संसार के साथ घुल मिलकर समुद्र के विशद क्षेत्र में विचरण करने वाली और जीवनोपयोगी समस्त साधन उपलब्ध करने वाली मछली की नीति अपनाये। बुद्धिमत्ता इस बात में है कि सद्भावनाओं और सत्प्रवृत्तियों को अपनाकर आकर्षण के ऐसे केन्द्र बने जिस पर हर दिशा में अनवरत स्नेह सहयोग की वर्षा होने लगे कुशलता इस बात में है कि अपने उन दोष-दुर्गुणों को सुधारे जो प्रगति के प्रत्येक पग पर अवरोध बन कर खड़े होते हैं। प्रवीणता इस बात में है कि उदात्त चिन्तन का अभ्यास करे सद्व्यवहार की रीति-नीति अपनाये, अपने को दूसरों के साथ और दूसरों को अपने साथ घुला मिला कर देखे। आत्म विस्तार का यही रास्ता है।


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