जीवन साधना के तीन सूत्र

July 1975

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यों जीवन साधना का क्रम सारे दिन हर समय चलने का हैं। पर उसका प्रारम्भ, शुभारम्भ एक चिन्तन पद्धति के साथ किया जाना चाहिए। इस पद्धति के तीन अंग हैं- (1) जीवन के स्वरूप, उद्देश्य एवं उपयोग को समझना और उसके अनुरूप गतिविधियों का निर्माण करना, (2 “हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत” सूत्र के अनुसार जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग करने के लिए दिन भर की शारीरिक कार्य पद्धति एवं मानसिक विचार पद्धति का निर्धारण करना। (3 रात को सोते समय मृत्यु के समय आवश्यक वैराग्य का अनुभव करना। इन तीन चिन्तन क्रम में से दो को प्रातः और तीसरे को रात्रि के सोते समय प्रयुक्त करना चाहिए।

हर दिन प्रातःकाल उठते ही बिस्तर पर बैठकर अपने आपसे इस संदर्भ में तीन प्रश्न पूछने चाहिए और उनके उत्तर भी स्वयं ही उपलब्ध करने चाहिए। पर प्रश्नोत्तर प्रातःकाल जीवन का क्रम आरम्भ करते हुए नित्य ही दुहराने चाहिए ताकि जीवन का स्वरूप, उद्देश्य और उपयोग सदा स्मरण बना रहे और इस स्मरण के आधार पर अपनी दिशाएं ठीक रखने में भूल-चूक न होने पावें।

अपने आपस तीन प्रश्न पूछने चाहिए-

(1) भगवान के सभी प्राणी समान रूप से प्रिय पात्र है। फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुख, सुविधाएं प्राप्त करने का विशेष अनुदान क्यों मिला? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में इतना असाधारण श्रम क्यों किया?

उत्तर एक ही हो सकता है- “अपने उद्यान - इस संसार को अधिक सुन्दर और सुव्यवस्थित बनाने के लिए परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी और अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वांगपूर्ण प्राणी- मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए बनाया। विशेष साधन सुविधाएं इसलिए दी कि उनके द्वारा वह ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति ठीक तरह कर सकें।”

(2) दूसरा प्रश्न अपने आपसे पूछना चाहिए कि- “जो सुविधाएं विभूतियाँ संपदाएं हमें उपलब्ध हैं- उनका लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो इसमें क्या कोई हर्ज है?”

उत्तर एक ही मिलेगा- “अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी भी बौद्धिक आर्थिक, प्रतिभायुक्त एवं अन्य किसी प्रकार की विशेषताएं हैं, वे विश्व मानव की ही पवित्र अमानत हैं और इनका उपयोग लोक मंगल के लिए ही किया जाना चाहिए। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरण के अतिरिक्त इन साधनों का विश्व कल्याण के लिए ही उपयोग किया जाय।”

(3) तीसरा प्रश्न अपने आपसे करना चाहिए कि- “ क्या इस सुरदुर्लभ मानव शरीर का सही सदुपयोग हो रहा है?”

उत्तर यही मिलेगा- “हम सदाचारी संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हँसमुख, सेवाभावी बने बिना मानव जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिए इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिए जीवनयापन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का सभ्यता और सज्जनता का -पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश करना चाहिए।’

इन्हीं प्रश्नोत्तरों में अध्यात्म तत्वज्ञान का सार सन्निहित हैं। यदि वे प्रश्न जीवन की महान समस्या के रूप में सामने आयें और उन्हें सुलझाने के लिए हम अपने पूरे विवेक का उपयोग करें तो भावी जीवन यापन के लिए एक व्यवस्थित दर्शन और कार्यक्रम सामने आ खड़ा होगा। यदि इस तत्वज्ञान को ठीक तरह हृदयंगम किया जा सका तो आकाँक्षाओं और कामनाओं का स्वरूप बदला हुआ होगा। रीति-नीति और कार्य पद्धति में वैसा परिवर्तन परिलक्षित होगा जैसा आत्म ज्ञान सम्पन्न मनुष्य में प्रत्यक्षतः दृष्टिगोचर होना चाहिए।

(2) इसके बाद - “हर दिन नया जन्म- हर रात नई मौत” इस सूत्र को मन ही मन दुहराना चाहिए और भावना करनी चाहिए कि आज का दिन हमें एक नये जन्म के रूप में मिला है। वस्तुतः निद्रा और जागरण -मृत्यु और जन्म का ही एक छोटा नमूना है। उसमें असत्य भी कुछ नहीं। सचमुच की मृत्यु भी एक लम्बी रात की गहरी नींद मात्र है। हर दिन को एक जन्म कहा जाय तो ऊपर से ही हँसी की बात लगती है, वस्तुतः वह एक स्थिर सचाई है। अतएव इस मान्यता में अत्युक्ति और निराधार कल्पना जैसी कोई भी बात नहीं है।

आज का नया जन्म अपने लिए एक अनमोल अवसर है। कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों के बाद एक बार मनुष्य शरीर मिलता है, उसका सदुपयोग कर लेना ही शास्त्रकारों ने सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता मानी है। अस्तु हमें प्रातःकाल चारपाई पर पड़े पड़े ही विचारना चाहिए कि आज का दिन अनमोल अवसर है, उसे अधिक से अधिक उत्कृष्टता के साथ व्यतीत करना चाहिए। कोई भूल, उपेक्षा अनीति, दुर्बुद्धि उसमें न रहे। आदर्शवादिता का सद्भावना और सदाशयता का उसमें अधिकाधिक समावेश रहे ऐसा दिन भर का कार्यक्रम बना कर तैयार किया जाय।

शारीरिक कार्यक्रमों के साथ-साथ मानसिक क्रिया पद्धति भी निर्धारित करनी चाहिए। किस कार्य को किस भावना के साथ करना है, इसकी रूपरेखा मस्तिष्क में पहले से ही निश्चित रहनी चाहिए। समय-समय पर बढ़े ओछे संकीर्ण स्वार्थपूर्ण हेय विचार मन में उठते रहते हैं। सोचना चाहिए कि आज किस अवसर पर किस प्रकार का अनुपयुक्त विचार उठने की सम्भावना है, उस अवसर के लिए विरोधी विचारों के शस्त्र पहले से ही तैयार कर लिए जाये।

दिन भर के समय विभाजन तथा विचार संघर्ष की योजना बनानी चाहिए और ऐसी दिनचर्या तैयार करनी चाहिए, जिसमें शरीर से ठीक तरह कर्तव्य पालन और मन में ठीक तरह सद्भाव चिन्तन होता रहे। इस कार्य के लिए पन्द्रह मिनट से लेकर आधा घन्टे का समय पर्याप्त होना चाहिए। उस निर्धारित दिनचर्या को कागज पर नोट कर लेना चाहिए और समय-समय पर जाँचते रहना चाहिए कि निर्धारण के अनुरूप कार्यक्रम चल रहा है या नहीं? जहाँ भी चूक होती हो वही उसे तुरंत सुधारना चाहिए। यदि सतर्कतापूर्वक दिनचर्या के पालन का ध्यान रखा जाय, शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाणिकता से पग-पग पर लड़ते रहा जाय तो प्रातःकाल की निर्धारित योजना रात को सोते समय तक ठीक ही चलती रहेगी।

इस प्रकार हर दिन नया जन्म वाले मन्त्र का आधा भाग रात को सोते समय तक पूरा होते रहना चाहिए हर घड़ी अपने को सतर्क, जागरुक रखा जाय, चूक को बचाने के लिए सतर्क रहा जाय- उत्कृष्टता का जीवन में अधिकाधिक समावेश करने के लिए प्रयत्न किये जाय तो निस्संदेह वह दिन पिछले अनय दिनों की अपेक्षा अधिक सन्तोषप्रद अधिक गौरवास्पद होगा। इस प्रकार हर दिन पिछले दिन की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक आदर्श बनता चला जायेगा और कर्मयोग के तत्व दर्शन में हमारी जीवन पद्धति ढलती चली जायेगी।

(3) अब मंत्र का आधा भाग प्रयुक्त करने का अवसाद आता है- “हर रात नई मौत” इस भावना को रात्रि सोते समय प्रयुक्त करना चाहिए। सब कामों में निवृत्त होकर जब निद्रा देवी की गोद में जाने की घड़ी आये तब कल्पना करनी चाहिए कि -”एक सुन्दर नाटक का अब पटाक्षेप हो चला। यह संसार एक नाट्यशाला है आज का दिन अपने को अभिनय करने के लिए मिला था सो उसको अच्छी तरह खेलने का ईमानदारी से प्रयत्न किया। जो भूलें रह गई उन्हें याद रखेंगे और अगले दिन वैसी पुनरावृत्ति न होने देने की अधिक सावधानी बरतेंगे

“अनेक वस्तुएं इस अभिनय में प्रयोग करने को मिली। अनेक साथियों का साथ रहा। उनका सान्निध्य एवं उपयोग जितना आवश्यक था कर लिया गया, अतः उन्हें यथा समय छोड़कर पूर्ण शान्ति के साथ अपने आश्रयदात्री माता निद्रा -मृत्यु की गोद में निश्चित होकर शयन करते हैं।

इस भावना में वैराग्य का अभ्यास है। अनासक्ति का प्रयोग है। उपलब्ध वस्तुओं में से एक भी अपनी नहीं साथी व्यक्तियों में से एक भी अपना नहीं। वे सब अपने परमेश्वर के और अपने कर्तृत्व की उपज है। हमारा न किसी पर अधिकार है, न स्वामित्व। हर पदार्थ और हर प्राणी के साथ कर्तव्य बुद्धि से ठीक व्यवहार कर लिया जाय, यही अपने लिए उचित है। इससे अधिक मोह, ममता के बन्धन बाँधना-स्वामित्व और अधिकार की अहंता जोड़ना -निरर्थक है। अपना तो यह शरीर भी नहीं- कल परसों इसे धूलि बन कर उड़ जाना हैं। तब तो संपदा, प्रयोग सामग्री, पद, परिस्थिति, उपलब्ध है उस पर अपना स्वामित्व जमाने का क्या हक? अनेक प्राणी सृष्टि के आदि से लेकर अब तक अपने कर्म भोगो को भुगतने अनेकों के साथ, आये दिन आयोग-वियोग करते रहते हैं। अपने साथ भी आज कितने ही प्राणी एक सज्जन साथी की तरह रह रहे है, इनके लिए कर्तव्य धर्म का ठीक तरह पालन किया जाय इतना ही पर्याप्त है। उनसे आवश्यक ममता जोड़कर ऐसा कुछ न किया जाय। जिससे अनुचित पाप कर्मों में संलग्न होना पड़े।

यह विवेक हमें रात को सोते समय जागृत करना चाहिए और अनुभव करना चाहिए कि अहंता और ममता के बन्धन तोड़कर एकात्म भाव से भगवान की मंगलमय गोदी -निद्रा मृत्यु में परम शान्ति और सन्तोषपूर्वक निमग्न हुआ जा रहा है।

इस प्रकार की मनोवृत्ति का विकास होने से जीवन के अनेक क्षेत्रों में प्रगति होने की संभावना रहती है और अन्त में मानव जन्म की सार्थकता उपलब्ध हो सकती है।


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