ब्रह्माण्ड एक चैतन्य शरीर

July 1975

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मनुष्य शरीर में किसी भी भाग पर आघात या चोट पहुँचती तो उससे देह का रोम-रोम काँप उठता है। पाँव की अंगुली में चोट लगे तो मस्तिष्क भी उद्विग्न हो उठता है, हाथ भी काम करने से इन्कार कर देते है- कहने का अर्थ यह कि शरीर का अंग-अंग प्रभावित होता है। शरीर की चेतनता का यह एक चिन्ह है। दृश्य और अदृश्य प्रकृति- समूचा ब्रह्माण्ड भी इसी प्रकार एक चेतन पिण्ड है, जिसमें किसी भी छोर पर कुछ घटित होता है तो अन्यान्य स्थानों पर भी उसका प्रभाव परिलक्षित होता है। वैज्ञानिक खोजों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सका है कि जिसे हम जड़ समझते हैं वह वस्तुतः जड़ है नहीं, चेतना उसमें भी विद्यमान है और संसार में घटने वाले घटनाक्रमों से लेकर प्राकृतिक हलचलों का भी उस पर प्रभाव पड़ता है।

विज्ञान जिन निष्कर्षों पर पहुँच रहा है, भारतीय तत्व मनीषी उस पर हजारों वर्ष पूर्व पहुँच चुके है। जड़ और चैतन्य का भेद वस्तुतः हमारी स्थूल दृष्टि के कारण ही है। वस्तुतः जड़ता कहीं भी नहीं है- सब में आत्म-चेतना विद्यमान है। यह प्रतीत इसलिए होती है कि वह चेतना व्यक्त अलग-अलग प्रकारों से होती है। इसी आधार पर ऋषि विश्वात्मा तक पहुँच सके।

भारत में इस तत्व दर्शन को प्रतिपादित करने के लिए जो वैज्ञानिक प्रयत्न चले उन्हें ज्योतिर्विज्ञान का नाम दिया गया। यह बात अलग है कि इस विशुद्ध विज्ञान का-जिसका उद्देश्य आकाशीय स्थिति और ग्रह-नक्षत्रों का मौसम विज्ञान और प्राणियों पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन था- सर्वाधिक दुरुपयोग हुआ है।

ज्योतिर्विज्ञान की एक मान्यता है कि सूर्य, मात्र अग्नि का धधकता पिण्ड ही नहीं एक जीवन्त और सक्रिय अग्नि पुंज है। वेदों में तो सूर्य को सर्व समर्थ देवता मानकर उसकी कई ऋचायें लिखी गई है। गायत्री मंत्र में भी सूर्य को सविता का-परमात्मा का प्रतीक माना गया है। लेकिन विज्ञान मानता आ रहा था कि सूर्य केबल आग का एक जलता हुआ गोला भर है। रूस के एक वैज्ञानिक चीनेवस्की भी अपनी वैज्ञानिक शोधों से इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सूर्य एक जीवित अग्नि पिण्ड है। यही नहीं 1920 में उन्होंने यह भी सिद्ध किया- ‘सूर्य पर प्रति ग्यारहवें वर्ष एक आणविक विस्फोट होता है और जब भी यह विस्फोट होता है तो पृथ्वी पर युद्ध और क्रान्तियाँ जन्म लेती है।’ इस मान्यता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने तेरहवीं शताब्दी से तब तक ही महत्वपूर्ण राज्य क्रान्तियों और ऐतिहासिक युद्धों का विवरण एकत्रित किया व प्रमाणित कर दिखाया।

यह तो सभी जानते हैं कि सूर्य पृथ्वी के जीवन का केन्द्र है। प्रतिपल सूर्य से ही पृथ्वी के जीवों को प्रकाश और प्राण मिलते हैं। चीनेवस्की का कहना था कि पृथ्वी पर घटित होने वाले किसी भी बड़े परिवर्तन का सूर्य से सम्बन्ध होता है।

इन्हीं आधारों पर सन् 1950 में विज्ञान की एक नयी शाखा खुली। जियोजारजी गिआरडी नामक वैज्ञानिक ने ब्रह्माण्ड रसायन को जन्म दिया। गिआरडी का कहना था कि समूचा ब्रह्माण्ड एक

शरीर है और इसका कोई भी अंग अलग नहीं, वरन् संयुक्त रूप से एकात्म है। इसलिए कोई भी तारा कितनी ही दूर क्यों न हो पृथ्वी के जीवन को प्रभावित करता है और प्राणियों की हृदयगति बदल जाती है।

ग्यारह वर्षों में हर बार सूर्य पर आणविक विस्फोट की धारणा को प्रतिपोषित करते हुए जापान के प्रख्यात जैविकी शास्त्री तोनातो इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि जब भी ये विस्फोट होता है, पृथ्वी पर पुरुषों के रक्त में जल तत्व बढ़ जाते हैं और पुरुषों का खून पतला पड़ जाता है।

सूर्य ग्रहण के समय प्रकृति पर पड़ने वाले प्रभाव तो आसानी से देखे व समझे जा सकते हैं। जब सूर्य का ग्रहण होता है चौबीस घंटे पूर्व से ही कुछ पक्षी चह-चहाना बन्द कर देते हैं, बन्दर वृक्षों को छोड़कर चुप-चाप जमीन पर आकर बैठ जाते हैं। सदा चंचल रहने वाला बन्दर उस समय इतना शाँत हो जाता है कि लगता है उस जैसा शाँत और सीधा प्राणी कोई है ही नहीं। बहुत से जंगली जानवर भयभीत से दीखने लगते हैं।

अमेरिका के रिसर्च सेण्टर आफ ट्री रिंग ने यह पता लगाया कि वृक्षों के तनों में प्रति वर्ष पड़ने वाला एक वृत्त हर ग्यारहवें वर्ष सामान्य वृत्तों की अपेक्षा बड़ा होता है। स्मरणीय है वनस्पति विज्ञान के वृक्षों के जीवन का अध्ययन करने के लिए वृक्ष के तनों में बनने वाले वर्तुलों का अध्ययन किया जाता है। यह एक तथ्य है कि वृक्ष में प्रतिवर्ष एक वृत्त बनता है, जो उसके द्वारा छोड़ी गयी छाल से निर्मित होता है। रिसर्व सेण्टर आफ ट्री रिंग के प्रो0 डाँगलस ने इस दिशा में खोज करते हुए यह भी पता लगाया कि ग्यारहवें वर्ष जब सूर्य पर आणविक विस्फोट होते हैं तब वृक्ष का तना मोटा हो जाता है और उसी कारण बड़ा वृत्त बनता है।

कहने का अर्थ यह कि सूर्य पर होने वाले परिवर्तनों से मनुष्य और पशु-पक्षी ही नहीं पेड़-पौधे भी प्रभावित होते हैं। यही नहीं जड़ कहे जाने वाले नदी, नाले भी प्रभावित होते हैं, उनका भी पानी घटता-बढ़ता है-बिना वर्षा और बिना गर्मी के ही सूर्य ही नहीं चन्द्रमा का भी पृथ्वी के जीवन पर असाधारण रूप से प्रभाव पड़ता है। समुद्र में पूर्णिमा के दिन ही अक्सर तूफान और ज्वार आते हैं अपेक्षाकृत अन्य दिनों के। इसके विपरीत अमावस के दिन अन्य दिनों की तुलना में समुद्र शाँत रहता है। समुद्र तट पर रहने वाले और इस सम्बन्ध में थोड़ा बहुत जानने वाले लोग यह अच्छी तरह जानते हैं। इसका कारण यह बताया जाता रहा है कि चन्द्रमा और पृथ्वी एक दूसरे के समीप है इसलिए चन्द्रमा जब अपनी सोलहों, कलाओं के साथ उदित होता है तो पृथ्वी के समुद्र का पानी उफनता है परन्तु अब यह भी पता लगाया जा चुका है कि न केवल समुद्र ही वरन् मनुष्य भी प्रभावित होता है।

अमेरिका के पागलखानों में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार मानसिक रोगी पूर्णिमा के दिन अधिक विक्षिप्त हो जाते हैं। साधारण और कमजोर मनोभूमि के व्यक्ति को भी इस दिन पागलपन के दौरे पड़ने लगते हैं और अमावस के दिन धरती पर लोग सबसे कम पागल होते हैं। न केवल पूर्णिमा और अमावस के दिन वरन् चाँद के बढ़ने घटने के साथ भी मनुष्यों में पागलपन बढ़ता-घटता है। विक्षिप्त मनुष्यों के साथ-साथ सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों की चित्त दशा पर भी इन उतार-चढावों का प्रभाव पड़ता है। सम्भवतया इसी कारण भारतीय तत्वदर्शियों ने प्रत्येक पूर्णिमा पर धर्म-कर्म में व्यस्त रहने का निर्देश दिया है।

पृथ्वी सौरमंडल का ही एक सदस्य है और चन्द्रमा उसका ही एक उपग्रह। वैज्ञानिक दृष्टि से पृथ्वी और चन्द्र की उत्पत्ति सूर्य से ही हुई है इसलिए इन तीनों के बीच एक अंतर्संबंध बन सकता है। एक दूसरे पर इसका प्रभाव हो सकता है परन्तु यह स्थिति मात्र यहाँ तक ही सीमित नहीं है, प्रोफेसर ब्राउब के अनुसार अन्य ग्रहों से भी पृथ्वी का जीवन प्रभावित होता है। उन्होंने यह भी सिद्ध कर दिखाया कि मनुष्य शरीर की संरचना और मानवीय काया की संरचना में एक अद्भुत साम्य है। पृथ्वी पर समुद्र में पानी और नमक का जितना अनुपात है वही अनुपात मनुष्य देह में भी है। यही नहीं पृथ्वी पर 65 प्रतिशत पानी है तो मनुष्य शरीर में भी इतना रही जल तत्व है।

प्रोफेसर ब्राउन में मंगल, बृहस्पति, शुक्र और शनि आदि ग्रहों का अध्ययन कर यह सिद्ध किया कि उनकी गतियों और स्थितियों के परिवर्तनों का भी पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों ने इन सबको समानुभूति का नाम दिया। पृथ्वी, चन्द्र, मंगल, बृहस्पति और शुक्रादि ग्रहों का उद्भव सूर्य से हुआ। ये सभी सूर्य की सन्तान है इसलिए इनकी जीवन व्यवस्था एक दूसरे से प्रभावित होती है। जुड़वा जन्म लेने वाले बच्चों के सम्बन्ध में भी यही सिद्धान्त घटित होता है।

न केवल सौरमंडल के सदस्यों में एक समानुभूति है वरन् दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले तारा नक्षत्र भी पृथ्वी के जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। विभिन्न विषयों में किये गये प्रयोगों से अनायास ही जो निष्कर्ष सामने आये है उनसे वैज्ञानिकों का ध्यान अनायास ही ब्रह्माण्ड- रसायन की ओर आकृष्ट हुआ है। इस दिशा में जैसे-जैसे आगे बढ़ा जा रहा है यह स्पष्ट होता चल रहा है कि समूचा ब्रह्माण्ड एक चैतन्य शरीर है; जिसका हर स्पन्दन समूचे जीवन को प्रभावित करता है। जिस प्रकार कि शरीर के किसी भी हिस्से पर आघात हमारी समग्र चेतना को छूता और कष्ट या आनन्द पहुँचाता है।

कहना नहीं होगा कि ज्योतिर्विज्ञान इसी दिशा में गहरे और ठोस प्रमाण जुटाने के लिए सचेष्ट था; परन्तु लोगों ने जैसे ही उसका दुरुपयोग किया- दिशा भटक गयी। यह निश्चित है कि विज्ञान आज नहीं तो कल ऐसे प्रमाण खोज लेगा जिनके आधार पर ग्रहों की स्थिति और दूसरी अन्य वस्तुओं पर उनके प्रभाव का अध्ययन कर उससे लाभान्वित हुआ या हानि से बचा जा सकेगा। भारतवर्ष ने इस दिशा में बड़ी प्रगति की थी। आर्य भट्ट का - ज्योतिष सिद्धान्त, काल क्रिया पाद, गोलपाद, सूर्य सिद्धान्त और उस पर नारदेव, ब्रह्मगुप्त के संशोधन परिवर्धन, भास्कर स्वामी का महाभाष्कारीय आदि ग्रन्थ उन अमूल्य खोजो और निष्कर्षों से भरे पड़े है, जिनके आधार पर कुछ प्रयत्न किये जायं तो वैज्ञानिक पद्धति से भी विश्वात्मा के साथ सम्बद्ध हुआ जा सकता है।


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