अतीन्द्रिय शक्ति विकास के प्राचीन और नवीन प्रयोग

July 1975

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मनुष्य में दबी हुई प्रसुप्त शक्तियाँ उससे कही अधिक हैं जितनी कि प्रकट में देखी जाती है। धरती के ऊपर जितनी वस्तुएँ है उनसे हजारों, लाखों गुनी सम्पदाएँ भू-गर्भ में दबी पड़ी है। ठीक इसी तरह मनुष्य जैसा कुछ देखा समझा जाता है उसकी तुलना में उसका आन्तरिक वैभव अत्यधिक बढ़ा-चढ़ा हैं। दृश्य क्षमताएँ और विशेषताएँ बढ़ाकर अनेक प्रकार की सफलताएँ प्राप्त करने का क्रिया-कौशल लोग जान गये हैं, पर यह नहीं समझ पा रहे हैं जो अतीन्द्रिय एवं अति मानवी सामर्थ्य उसके भीतर भरी पड़ी है उसे कैसे जगाया जाय और उसका किस प्रयोजन के लिए किस प्रकार उपयोग किया जाय।

कुछ समय पहले तक भौतिक विज्ञानी मनुष्य को ऐ बोलते-चलते वृक्ष की उपमा देते थे, वे उसे उतना ही मानते थे जितना कि आंखों से दिखाई देता है अथवा प्रत्यक्ष रूप से नापा तोला जा सकता है। अब उसकी गहन क्षमताओं को धीरे-धीरे समझा जा रहा है और अनुभव किया जा रहा है-कि मनुष्य के बारे में जो सोचा गया था वस्तुतः वह उससे कहीं अधिक है।

अति मानवी विलक्षण शक्तियों का केन्द्र अब प्रसुप्त मन को माना जा रहा है और उस क्षत्र की तत्परता पूर्वक शोध हो रही है। समझा गया है कि चेतन मस्तिष्क की धमाचौकड़ी के कारण प्रसुप्त मन खिन्न होकर एक कोने में जाकर सो जाता है। उसे जागृत होने और अपना काम करने का अवसर तब मिलता है जब मस्तिष्कीय प्रबुद्ध चेतना को लय किया जा सके या सुषुप्ति अवस्था में पहुँचाया जा सके।

प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के अनेक प्रकार और अनेक प्रयोग हैं उनके द्वारा जागृत मस्तिष्क को किसी बिन्दु पर केन्द्रित करके ध्यानावस्था में लय किया जाता है। यह लय योग है। प्रकाश का ध्यान विंदुयोग, विभिन्न प्रकार की ध्वनियों का श्रवण नादयोग, खेचरी मुद्रा सोमरस का पान, षट्चक्र वर्धन, आज्ञाचक्र उन्मीलन आदि ध्यानयोग परक क्रियाएँ इसी प्रयोजन के लिए हैं। इनमें प्रबुद्ध मस्तिष्क एक केंद्र पर केन्द्रीभूत होता है-एकाग्रता की स्थिति में जाकर अपनी धमाचौकड़ी बन्द कर देता है, इस शान्त वातावरण में अचेतन मन को अपने लिए कार्यक्षेत्र मिल जाता है और उसके साथ जुड़ी हुई शक्तियाँ उगने-बढ़ने और फलने-फूलने का अवसर प्राप्त कर लेती है।

दूसरा मार्ग समाधि मार्ग है। इसकी बाल कक्षा मैस्मरेजम, हिप्नोटिज्म जैसे वेधक दृष्टि एवं संकल्प शक्ति के प्रयोग द्वारा सिखाई जाती है। इन प्रयोगों में भी प्रबुद्ध मस्तिष्क योगनिद्रा में धकेल दिया जाता है और अचेतन मन जागृत होकर अपनी विशिष्ठ भूमिका निबाहने के लिए अभ्यस्त होने लगता है।

स्व सम्मोहन का अपना अलग प्रयोग हैं। इसमें भी संकल्प शक्ति की प्रखरता ही प्रधान है। मस्तिष्क को निश्चेष्ट होने से शरीर निष्क्रिय हो जाता है इसे समाधि अथवा ‘योगनिद्रा’ कहते हैं। शरीर के निश्चेष्ट होने में मस्तिष्क सुषुप्ति अवस्था में चला जाता है इसे सामान्य निद्रा कहते हैं। यह रोज ही कई घण्टे आती है। उसमें अचेतन मन अपना काम तो करता है, पर वह बेतुका होता है उसमें स्वप्न दिखाई पड़ते हैं। वह स्वप्न अनगढ़ होते हैं। जो देखा सुना या सोचा गया है उसी का घुला मिला रूप सपनों के रूप में सामने आता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि साधारण निद्रा में भी योगनिद्रा की स्थिति बन जाय ऐसा हो सके तो सपने सार्थक होते हैं उनमें भूत या भविष्य की सारगर्भित झाँकी रहती है।

यह पुरानी योगशास्त्र सम्मत परिपाटियाँ हैं अतीन्द्रिय चेतना विकसित करने के लिए शारीरिक संयम एवं तप का- मानसिक तप के लिए ध्यान एवं भक्ति साधना का आश्रय लिया जाता था। अब भौतिक विज्ञान द्वारा यह प्रयास हो रहे है कि शरीर और मन को वस्तुओं के द्वारा प्रभावित करके वह स्थिति पैदा की जाय जिससे प्रबुद्ध मस्तिष्क को सुषुप्त अवस्था में पहुँचाकर फिर अचेतन मन से वे काम लिये जाय तो योगाभ्यास द्वारा लिये जाते रहे हैं। इस संदर्भ में अब हिप्नोटिज्म स्तर के प्रयोग अब पुराने पड़ते जाते हैं। उसमें यो शरीरगत मानवी विद्युत को संकल्प बल द्वारा दूसरे शरीर में धकेला जाता था इसलिए उसे अर्धभौतिक एवं अर्ध आध्यात्मिक माना जाता था।

सम्मोहन विद्या द्वारा मनुष्य की विशिष्ठ योगनिद्रा ग्रस्त स्थिति कैसे बन जाती है इस पर प्रकाश डालते हुए येल विश्व विद्यालय के स्नायु विशेषज्ञ डा0 कैबिज ने ‘अमेरिकन सोसाइटी आफ क्लिनिकल हिप्नोसिस’ के एक अधिवेशन में अपने प्रयोगों के आधार पर बताया था कि मस्तिष्कीय हलचलों का स्नायविक स्थिति पर पड़ने वाला प्रभाव ही सम्मोहन का मूल कारण है। मस्तिष्क के कुछ विशिष्ठ केन्द्रों में विद्युतीय आवेश की मात्रा अधिक बढ़ जाने से उसका प्रभाव ‘नियोकार्टेक्स’ नाम उसे केन्द्र क्षेत्र पर पड़ता है जो तर्क, निर्णय, संकल्प, इच्छा, विवेक आदि उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है। यह केन्द्र जब अर्थ मूर्च्छित स्थिति में चला जाता है तो तो अन्यान्य ऐसे केन्द्र काम करने लगते हैं जो सामान्य मनःस्थिति में प्रायः प्रसुप्त स्थिति में पड़े रहते हैं। इनका जागरण ही न केवल सम्मोहन विद्या की भूमिका प्रस्तुत करता है वरन् अन्यान्य अतींद्रिय चमत्कारों का भी कारण होता है।

साधारणतया मनुष्य का मस्तिष्क चिन्तनरत रहता है। कई बार तो यह चिन्तन अत्यंत व्यस्त और उद्विग्न होता है। ऐसी स्थिति में वहाँ उत्तेजना और तनाव की मात्रा बढ़ी रहना स्वाभाविक है। इस उद्विग्नता के तूफान में उन विशिष्ठ केन्द्रों की स्थिति दयनीय हो जाती है जो अतीन्द्रिय चेतना को विकसित करके उसे ‘दिव्य’ बना सकते हैं।

क्रिया लाभ की दृष्टि से मन की प्रशान्त और शिथिल स्थिति अवाँछनीय है। मन शिथिल पड़ा रहेगा तो चिंतन धीमा और हल्का होगा साथ ही उत्साह एवं स्फूर्ति में भी न्यूनता आवेगी तद्नुसार क्रिया का परिमाण स्वल्प रहेगा और मनुष्य आलसी एवं मन्द कमी बनती दिखाई देगी। सामान्य बुद्धि से ऐसी स्थिति अनुत्पादन होने के कारण अवांछनीय है। उससे प्रत्यक्ष प्रगति में बाधा पहुँचती है। आलसी और प्रमादी प्रायः होते भी इसी स्तर के हैं। यदि ऐसी स्थिति आदत बन जाय और शिथिलता, निरुद्देश्यता, निष्क्रियता की पर्यायवाची बन जाय तो निस्सन्देह वह हानिकारक है। पर जब वह शिथिलता विशिष्ठ प्रयोजन के लिए संकल्पपूर्वक उत्पन्न की जाती है और उस प्रशान्त स्थिति का लाभ अन्य प्रकार के महत्वपूर्ण उत्पादन अभिवर्धन के लिए उठाया जाता है तो उसे हेय नहीं ठहराया जा सकता है। योगनिद्रा एवं समाधि स्थिति इसी प्रयोजन के लिए हैं। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की साधनाएँ मस्तिष्क की बहुमुखी हलचलों को रोककर न केवल केन्द्रीभूत करता है वरन् मन क्षेत्र ने शान्ति शिथिलता और निष्क्रियता का वातावरण भी उत्पन्न करती है। ध्यान का अर्थ मात्र एकाग्रता नहीं है-वरन् मस्तिष्क के महत्वपूर्ण केन्द्रों को प्रशान्त वातावरण का लाभ देकर उन्हें सजग एवं परिपुष्ट बनाना भी है। इन्हीं केंद्रों से चमत्कारी अतीन्द्रिय उपलब्धियाँ उत्पन्न होती है।

समाधि की स्थिति में मस्तिष्क में अल्फा तरंगें अधिक मात्रा में निकलती हुई पाई गई हैं। मन के एकाग्र होने पर वीटा, डेल्टा और यीटा तरंगों का निस्सरण कहीं अधिक बढ़ जाता है। मन और बुद्धि की मंदता और प्रखरता की जानकारी मस्तिष्क से निकलने वाली अल्फा किरणों को मापकर जानी जा सकती है।

मस्तिष्कीय आवेश से कई प्रकार की ध्वनियाँ उत्पन्न होती है। शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह ध्वनियाँ ई॰ एस॰ बी0 इलेक्ट्रिक्ल स्टि मुलेशन आफ व्रेन से उद्भूत होती है। योगी लोग अनहद नाद के रूप में इसी प्रवाह को सुनते हं इस सूक्ष्म श्रवण से यह पता चलता है कि मस्तिष्क में विद्युतीय ऊर्जा किस स्तर पर काम कर रही है।

मिशिगन विश्व विद्यालय के चिकित्सा संस्थान द्वारा समाधि की स्थिति के शरीर और मन की स्थिति का विवेचन करने के लिए एक भारतीय योगी शान्तानन्द को चुना था। प्रयोगशाला में उनकी समाधि स्थिति का अनेक यन्त्रों से परीक्षण किया गया था उससे निष्कर्ष निकला कि उस अवस्था में शरीर की आन्तरिक हलचलें अत्यन्त न्यून हो जाती हैं-मस्तिष्क मूर्च्छा स्थिति में चला जाता है फिर भी शरीर में सड़न अथवा विघटन की कोई बुरी प्रक्रिया आरम्भ नहीं होती। यहाँ तक कि विभिन्न छिद्रों से निसृत होते रहने वाले मलों में प्रक्रिया रुक जाने से भी कोई विषाक्त प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता।

हारवर्ड इन्स्टीट्यूट फार साइकिक एण्ड कलचर रिसर्च की ओर से डा0 थेरेस ब्रोसे अपने दल के साथ भारत में योग विलक्षणता की शोध करने आई थीं। उन्होंने समाधिस्थ योगियों के शरीरों की उसी स्थिति में पूरी-पूरी जाँच की ओर पाया कि वे लगभग मृत स्थिति में पहुँचने पर भी सामान्य स्थिति में जीवित रह रहे है और उनके शरीर से कोई अवांछनीय स्थिति उत्पन्न हो रही है। इस सम्बन्ध में आगे के अनुसन्धान करने के लिए श्रीमती ब्रोसे एक फ्राँसीसी शरीर डा0 माइलोवेनोविच के साथ भारत आई थीं, उन्होंने इस सम्बन्ध में अपने शेष सन्देहों को भी दूर कर लिया। कुछ समय के लिए दिल की धड़कन बिल्कुल बन्द कर लेने का दावा भी उनने सही पाया। ऐसे योगी तो बहुत से हैं जो सामान्यतया प्रति मिनट 72 बार की धड़कन को घटाकर 301 की संख्या तक शिथिल कर लेते हैं। तीन दिन से लेकर 28 दिन तक बिना साँस लिए, बिना अन्न, जल ग्रहण किये, बिना मल-मूत्र विसर्जन किये-समाधिस्थ रहने वाले योगियों में से भी अधिकांश के दावे सही पाये गये। उनके संज्ञा शून्य होने की बात उनका हाथ बर्फ में दबाये रहने और आगे का स्पर्श करने पर भी परीक्षा में खरी उतरी। एक योगी संकल्प बल से जिस भी अंग से कहा जाय उसी से पसीना निकाल देते थे।

अमेरिका के अन्तरिक्ष विज्ञानी अब इस खोज में लगे हुए हैं कि लम्बी अन्तरिक्ष यात्राओं में जाने वाले लोगों के शरीरों में ऐसी विशिष्टताएँ उत्पन्न की जायं जिनके आधार पर वे उस कष्टकर अवधि को स्वल्प साधनों से सुविधापूर्वक सम्पन्न कर सके। सर्दी, गर्मी, भूख-प्यास आदि पर लम्बे समय तक बिना कष्ट सहे, क्या विजय प्राप्त की जा सकती हैं ? क्या देर तक मूर्च्छित और शीतल रहा जा सकता है ? इस संदर्भ में वे योगियों में पाई जाने वाली विलक्षणताओं को अपना शोध आधार बना रहे है।

अन्तरिक्ष अनुसन्धान विज्ञानी टावी फ्रेडमेन का एक लेख कुछ समय पूर्व ‘लाइफ’ पत्रिका में छपा था। जिसमें उन्होंने चमत्कारी योगियों को विलक्षणताओं के कारण जानने पर बहुत जोर दिया था। उन्होंने कहा है-चमत्कार नामक कोई वस्तु इस संसार में नहीं। यहाँ जो कुछ होता है वह सब विज्ञान के नियमों के आधार पर ही होता है-चमत्कार हम इसलिए कहते हैं कि वे क्रियाएँ प्रचलित नहीं है और उनके कारण सर्वविदित नहीं है। जिस दिन उनका रहस्य जान लिया जाता है, उस दिन वे सामान्य क्रिया-कलाप बन जाते हैं। चमत्कारी योगियों में यदि कोई विशेषता दिखाई पड़ती है तो उसका कारण प्रकृति के मान्य सिद्धान्तों पर ही आधारित होना चाहिए और वह विशेषता उत्पन्न करना किसी भी पुरुषार्थी के लिए सम्भव होना चाहिए।

भारतीय योगीजन साधना के लिए शीत प्रधान हिमालय जैसे पर्वतों को अपना निवास स्थान बनाते थे और ध्यान समाधि द्वारा प्रबुद्ध चेतना को निद्रित करके अन्तः चेतना की गहराई में उतरते थे। अब ध्यान द्वारा समाधि का तो नहीं केवल शीत का उपयोग करके समाधि स्थिति उत्पन्न करने का गुर ढूंढ़ निकाला गया है। अत्यधिक शीत में शरीर के अंग-प्रत्यंगों को विश्राम मिलता है मस्तिष्क को भी। अस्तु आयु का आगे बढ़ना रुक जाता है। शीत समाधि में जो जिस समय उतारा गया था वह आयु की दृष्टि से जहाँ का तहाँ बना रहता है। दस वर्ष के लड़के को शीत समाधि दी जाय और उसे पन्द्रह वर्ष बाद जगाया जाय तो वह पच्चीस वर्ष का युवक नहीं वरन् दस वर्ष का बच्चा ही मिलेगा। इन पन्द्रह वर्षों में दो लाभ और भी होंगे एक यह कि जन्म से दस वर्ष की आयु तक जितनी शक्ति खर्च हुई होगी उसकी क्षति पूर्ति हो जायगी। जीवाणु अभिनव उत्साह से काम करने योग्य बन जायेंगे। दूसरा लाभ है, प्रबुद्ध मस्तिष्क के सुषुप्ति स्थिति में रहने के कारण अचेतन को अपनी हलचलें जारी रखने में रहने के कारण अचेतन को अपनी हलचलें जारी रखने का अवसर मिल जायेगा और अतीन्द्रिय क्षमता विकसित करने का अवसर मिल जायेगा। चूहे आदि छोटे जीवों को कृत्रिम शीत वातावरण में रखकर निद्रित करने में सफलता प्राप्त कर ली गई हैं। अब यह सोचा जा रहा है कि मनुष्य को भी क्यों न इस स्थिति का लाभ लेने दिया जाये। शीत निद्रा का सबसे बड़ा लाभ यह है कि कोशिकाओं और तन्त्रिकाओं को उतने समय तक काम करने से छुट्टी मिल जाती हैं। शरीर निर्वाह के लिये जब उन्हें कुछ नहीं करना पड़ता तो वे अपनी दुर्बलता को दूर करने में लग जाती है। ऐसे विश्राम काल में उन्हें नव-जीवन प्राप्त होता है। अस्तु जागरण के उपरान्त वे अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह जीवन यात्रा को चला सकने में समर्थ होती हैं। वृद्धि और क्षति का क्रम रुक जाने से भी उन दिनों का लाभ दीर्घजीवन की-बुढ़ापे को आगे खिसकाने की दृष्टि से भी मिलता ही है।

सचेत पक्षियों के शरीर का तापमान प्रायः 100 फारेनहाइट होता है। शीतकाल में सुषुप्त पक्षियों के शरीर में वह घटकर 65 डिग्री ही रह जाता है।

ठण्डे प्रदेश के चमगादड़ अति शीत ऋतु में गहरी नींद में सोये रहते हैं। ठंडे प्रदेशों में रहने वाले रीछ और गिलहरियाँ अधिक ठण्ड के दिनों में सोते तो रहते हैं, पर उनकी निद्रा बहुत गहरी नहीं होती। वे उस ऋतु के लिये भोजन जमा कर लेते हैं और बीच-बीच में उठ-उठकर खाने और मल-मूत्र त्यागने की आवश्यकता पूरी कर लेते हैं।

इस नींद में शरीर की आन्तरिक गतिविधियाँ इतनी शिथिल हो जाती हैं कि उस प्रसुप्त शरीर में कहीं कुछ विषाणु प्रवेश करा दिये जाये तो वे जहाँ के तहाँ पड़े रहेंगे आगे बढ़कर शरीर में अन्यत्र कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न न कर सकेंगे।

ऐसी सुषुप्तावस्था में इन प्राणियों का तापमान घट जाता है, श्वसन गति न्यून हो जाती हैं, हृदय की धड़कन घट जाती हैं, ऑक्सीजन की भी उन्हें बहुत थोड़ी आवश्यकता रहती हैं, शरीर की समस्त मैटावोलिक क्रियाएं मन्द होती चली जाती हैं। इस स्थिति की गहराई जब होती हैं तब प्रायः सभी जीवन क्रियाएं एक प्रकार से अवरुद्ध ही हो जाती हैं और वह मृतक जैसा दिखाई पड़ता है। इस अवस्था को शरीर विज्ञानियों के शब्दों में ‘एनावायोसिस’ कहा जाता है।

जिन जलाशयों की ऊपरी सतह पर बर्फ जमती हैं उनमें रहने वाले कीड़े उस स्थिति का सामना करने के लिये निद्राग्रस्त हो जाते हैं। मछलियाँ यों पानी पर तैरती तो रहती है, पर उनकी स्थिति भी निद्रालु जैसी रहती हैं।

सर्वविदित है कि मेढक शीत ऋतु में सुषुप्तावस्था में चले जाते हैं और वर्षा की अनुकूल ऋतु आने पर उस घोर निद्रा का परित्याग करते हैं। न केवल मेढक वरन् घोंघे, केंचुए, साँप और कई तरह के सरीसृप भी प्रतिकूल ऋतु प्रभाव से बचने के लिये लंबे समय की समाधि लगा लेते हैं। आहार, जल आदि की उन्हें उस स्थिति में आवश्यकता नहीं पड़ती। संचित चर्बी से ही शरीर को आवश्यक ऊर्जा उस अवधि में मिलती रहती हैं। घोंघे एवं अन्य जाति के निमेटोड कीड़े कड़ी सर्दी से प्राण रक्षा करने के लिये अपने भीतर से ही एक विशेष प्रकार का रस निकाल कर उसका कवच मढ़ लेते हैं और उसी के भीतर प्रतिकूल ऋतु में पड़े-पड़े सोते रहते हैं।

शीत समाधि पर जोर इसलिये दिया जा रहा है कि उसके माध्यम से मनुष्य सैकड़ों वर्ष लंबी अन्तरिक्ष यात्राएं पूरी कर सकेगा। उसे नित्य कर्म के लिये किसी वस्तु की आवश्यकता न पड़ेगी। नियत कार्य करके लौटने पर यथासमय स्वसंचालित यन्त्र उसे गरमी देकर पुनर्जीवित कर दिया करेंगे। इसके अतिरिक्त शीत समाधि में पड़ा हुआ व्यक्ति रोगी या बढ़ा होगा तो उस विश्रान्ति काल में प्रकृति जीर्ण-शीर्ण शरीर की मरम्मत करके नया कर दिया करेगी। इस प्रकार कायाकल्प का पुराना उद्देश्य इस नवीन ढंग से पूरा हो जाया करेगा।

इतने पर भी योग समाधि की उपयोगिता अपने स्थान पर बनी हुई हैं। उसमें संकल्प शक्ति इतनी सुदृढ़ बनानी पड़ती है कि शरीर की स्वसंचालित क्रियाओं का घटाया बढ़ाया जाना पूर्णतया रोका जा सके सामान्यतया यह कार्य भौतिक विज्ञान की दृष्टि से अति कठिन माना जाता है। संकल्प शक्ति यदि इतनी परिपक्व हो गयी है कि वह श्वास-प्रश्वास, आकुँचन-प्रकुंचन, रक्त-संचार जैसी क्रियाओं को रोक सके तो निश्चय ही उसका प्रयोग प्रबुद्ध मस्तिष्क के अथवा अचेतन मन के किन्हीं रहस्यमय संस्थानों को जागृत करने एवं मूर्च्छित करने के लिये भी किया जा सकता है। ऐसा पूर्ण स्वशासन मनुष्य को सच्चे अर्थों में महा सिद्ध पुरुष बना सकता है।

भूमि समाधि की घटनाओं में से एक का परीक्षण उदयपुर आयुर्विज्ञान, महाविज्ञान के प्राँगण में ली गई एक समाधि का हुआ था। डाक्टरों ने समाधि से पूर्व विविध परीक्षाएं लीं। योगी के शरीर के साथ ‘इलेक्ट्रो कार्डियो’ ग्राम आदि कई यन्त्र फिट किये और उनका लेखा-जोखा बाहर निरन्तर अंकित होता रहे ऐसी व्यवस्था की। आठ दिन में समाधि खोली गईं। योगी मूर्च्छित था उसका तापमान 87.6 था जबकि सामान्यतया 98.4 होता है। निर्धारित सूचना के अनुसार गरम पानी से स्नान कराया गया और मालिश की गई तो चेतना फिर लौट आई।

समाधि में वही हाइवर्नेशन स्थिति उत्पन्न हो जाती हैं जिसमें मेढक, रीछ आदि लंबे समय तक पड़े रहकर जीवित बने रहते हैं। इसमें वेसलमेटा वोतिक रेट-घट जाने से जीवन काल बढ़ जाता है। समाधि के लिये प्रयुक्त संकल्प शक्ति मस्तिष्क स्थित बुद्धि केन्द्र के उस मर्म स्थल पर प्रहार करती है जिसे डाक्टरी भाषा में सोरिब्रल कार्टेस कहते हैं। यहीं से हाइपोथैलेमस नामक ग्रन्थि का नियन्त्रण होता है। यह ग्रन्थि ओटोर्नामिक नर्वस सिस्टम-स्वसंचालित नाडी मण्डल का नियमन करती हैं। स्वतन्त्र स्नायु मण्डल की नियामक सत्ता जिस ‘वेगस नर्व’ में मानी जाती हैं उसका मूल केन्द्र यही है। मेडयुला आब्लामेटा पर यदि इच्छा शक्ति का नियन्त्रण हो जाये तो शरीर की वह स्थिति बन सकती हैं जिसे तापमान और हृदय स्पन्दन की गिरी हुई स्थिति में बन पड़ने वाली समाधि कह कहते हैं।

सम्मोहन एवं शीत समाधि जैसे प्रयोग एक सीमित उद्देश्य ही पूरे कर सकेंगे। यदि अचेतन मन की दिव्य शक्तियों से लाभान्वित होना हो तो विज्ञान को ध्यान एवं समाधि स्तर के उन्हीं योग साधनों को अपनाना पड़ेगा जो न केवल अतीन्द्रिय शक्तियों को जागृत करके उसे चमत्कारी सिद्धि शक्तियों से संपन्न करते हैं वरन् शक्ति के भाव स्तर को भी देव भूमिका तक पहुँचाकर उसे नर शरीर में निवास करने वाला नारायण बना देते हैं।


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