अस्त व्यस्त एवं असंबद्ध विचार करने की मानसिक बर्बादी

July 1975

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यों मस्तिष्क कुछ न कुछ विचार करता ही रहता है। पर वे होते हैं अप्रासंगिक, असम्बद्ध और अस्त-व्यस्त। इस बिखराव के कारण ही वे निरर्थक सिद्ध होते हैं और मस्तिष्क में थोड़ी-सी हलचल उत्पन्न करके अन्तरिक्ष में विलीन हो जाते हैं। यह चिन्तन तन्त्र पर पड़ने वाला एक अनावश्यक भार है।

सोचना वस्तुतः एक बहुमूल्य क्रिया हैं। यह अदृश्य तो अवश्य रहती है किन्तु सभी दृश्यमान कर्म उन्हीं के फलस्वरूप आकार धारण करने में समर्थ होते हैं। जो कुछ किया जाता है वह ऐसे ही-अनायास ही नहीं हो जाता। बहुत पहले से उनका ताना-बाना मस्तिष्क में बुना जाता है। लाभ-हानि का विश्लेषण किया जाता है-सम्भव असम्भव का पता लगाया जाता है और साधनों के साथ इस आकाँक्षा का तालमेल बिठाया जाता है। इतना मंथन हो चुकने के बाद किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने की स्थिति आती है। जब मस्तिष्क में पूरी तरह पककर कोई विचार सुनिश्चित संकल्प के रूप में परिणत हो जाता है तब उसके लिए साधन जुटाने और सक्रिय कदम बढ़ाने की स्थिति आती है। इतनी मस्तिष्कीय खिचड़ी पके बिना किसी कार्य का आरम्भ हो ही नहीं सकता। चलते हुए कामों का ढर्रा सहज प्रक्रिया भी अभ्यस्त रूप से करती रहती हैं उसमें सामान्य व्यवस्था के अतिरिक्त कुछ बहुत बड़ा सोच-विचार करने की आवश्यकता नहीं पड़ती किन्तु किसी कार्य का प्रारम्भ तो विचार मंथन के बिना हो ही नहीं सकता। दैनिक कार्य-पद्धति में भी गुण दोष एवं हानि-लाभ देखने और परिवर्तन परिवर्धन की व्यवस्था करने वाली विचार प्रक्रिया को सजग रखकर ही चलना पड़ता है। अन्यथा चलते हुए क्रिया-कलाप का अभ्यस्त ढर्रा भी लड़खड़ाने लगेगा और काम का स्तर गिरने लगेगा।

निरर्थक काम करते रहने वाले की भर्त्सना की जाती है-उसे मूर्ख ठहराया जाता है क्योंकि कर्तृत्व शक्ति को उपयोगी प्रयत्नों में लगाने की अपेक्षा वह उसे बर्बाद करता है। इससे समय एवं श्रम शक्ति नष्ट होती है और उससे जो लाभ उठाया जा सकता था उससे वंचित रहना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार विचार शक्ति की बर्बादी को भी हानिकारक और अबुद्धिमत्तापूर्ण ठहराया जाना चाहिए। चिन्तन वस्तुतः अदृश्य रूप से किया जाने वाला कर्म ही है। क्रिया शक्ति को बर्बाद करना और विचार शक्ति को निरर्थक बखेरना वस्तुतः एक ही भूल के दो रूप है।

विचारों को क्रमबद्ध और योजनाबद्ध बनाना चाहिए। मनोनिग्रह की बात योगाभ्यास के प्रसंग में बार-बार कही जाती है। एकाग्रता की महिमा गाई जाती है और उसे बढ़ाने के लिए ध्यान साधना कराई जाती है। इस सबका मतलब विचारों के उत्पादन अथवा प्रवाह का रोक देना नहीं है। वैसा तो हो भी नहीं सकता। मानवी मस्तिष्क की संरचना ही ऐसी है जिसके कारण हर घड़ी अगणित विचार तरंग उठते रहने का क्रम चलता ही रहेगा और उसे किसी भी प्रकार रोका न जा सकेगा। एकाग्रता अथवा मनोनिग्रह का मतलब यही है कि अस्त-व्यस्त ढंग से सोचने की बुरी आदत को क्रमबद्ध एवं सुसंस्कृत बनाया जाय। इतना अभ्यास यदि हो सके तो एक सुनिश्चित दिशा में विचारों का प्रवाह चलने लगेगा और उसका आश्चर्यजनक सत्परिणाम सामने प्रस्तुत होगा।

वैज्ञानिक, दार्शनिक एवं दूसरे बुद्धिजीवी कलाकार अपने अभीष्ट प्रयोजन पर समय चिन्तन को एकत्रित करते हैं। छोटे से आतिशी शीशे के घेरे में बिखरी हुई सूर्य किरणों को जब एक केन्द्रबिन्दु पर एकत्रित कर लिया जाता है तो उससे प्रचण्ड गर्मी उत्पन्न होती है आग जलने लगती है। ठीक यही बात विचारों के केन्द्रीकरण के सम्बन्ध में लागू होती है यदि किसी निर्धारित लक्ष्य पर देर तक गम्भीरतापूर्वक चिन्तन कर सकने की आदत बढ़ जाय तो इस संदर्भ में आशातीत और आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हस्तगत होती है।

हमें अपने विचारों तन्त्र का गहराई के साथ निरीक्षण करना चाहिए और यह देखना चाहिए के निष्प्रयोजन निरर्थक असंबद्ध और अस्त-व्यस्त, सोच-विचार करते रहने की बुरी आदत तो अपने को नहीं लग गई है। यदि ऐसा कुछ हो तो उसे बर्बादी को रोकने के लिए सक्रिय कदम बढ़ाने चाहिए। जीवन के साथ जुड़ी हुई असंख्य दिशाएँ एवं समस्याएँ सामने होती है। उन पर क्रमबद्ध रूप से विचार करें और किसी उपयोगी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए तर्क, तथ्य और प्रमाणों करें तो कुछ ही समय में ऐसे निष्कर्ष ढूंढ़े निकाले जा सकेंगे जिन्हें कार्यान्वित करके वर्तमान स्थिति में क्रान्तिकारी सुधार कर सकना सम्भव हो सके।

स्वास्थ्य-संवर्धन, ज्ञान-सम्पादन, परिवार-निर्माण, अर्थ सन्तुलन, समय का क्रमबद्ध विभाजन जैसी व्यक्तिगत समस्याओं पर लगातार गहराई तक विचार करते रहें और स्थिति के हर पहलू का निरीक्षण करते रहें तो ऐसे निष्कर्ष निकाले जा सकेंगे जिनके आधार पर आज की अपेक्षा कल कहीं अधिक अच्छी रीति-नीति अपनाई जा सके। इन सभी महत्वपूर्ण विषयों में सुधार करने की काफी गुंजाइश मिलेगी। जो इन दिनों किया जा रहा है वह सर्वथा ठीक ही हो और उसमें परिष्कार करने की तनिक भी आवश्यकता न हो ऐसी बात नहीं है। वर्तमान गतिविधियों में उपयोगी हेर-फेर करके कल अधिक अच्छी स्थिति प्राप्त करने की सदा की गुंजाइश रहती है। इस संदर्भ में ढूंढ़े-खोज जारी रखा जाय और जहाँ सुधार की आवश्यकता प्रतीत हो वहाँ उसके लिए कदम बढ़ाया जाय तो क्रमशः उत्कर्ष के अनेकों अवसर सामने आते चले जायेंगे। विचारों का दिशा निर्धारण दिन-दिन नित नये चमत्कार प्रस्तुत करता चला जायगा।

आवश्यक नहीं कि निरन्तर अपनी व्यक्तिगत समस्याओं में ही उलझें रहा जाय। परिवार के हर सदस्य के व्यक्तित्व को अपेक्षाकृत अधिक विकसित करने का प्रश्न भी उतना ही अहम् है जितना कि अपने उत्कर्ष का। प्रत्येक के सम्बन्ध में अनेकों विकल्प हो सकते हैं किसी एक ही बात पर अड़े रहने की अपेक्षा उन सभी विकल्पों पर विचार करना चाहिए। जो रास्ते सूझे उनमें से अधिक सरल और अधिक उत्तम को कार्यान्वित करने का प्रयत्न किया जा सकता है। सोचने की यह आदत अपने परिवार का भी बहुत भला कर सकती है। इस चिन्तन के आधार पर ऐसे उपाय सामने आ सकते हैं जिनसे वर्तमान परिस्थिति के रहते हुए भी कुटुम्ब के लोग अधिक उन्नति कर सके अधिक सुख पा सकें।

कितनी ही ऐसे सामाजिक समस्याएँ प्रथा परम्पराएँ तथा घिरी हुई परिस्थितियाँ ऐसी हो सकती है जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से हमें प्रभावित कर रही है। उन्हें यथास्थान रहने देने से कई प्रकार की हानियाँ उठानी पड़ती है। इनसे किस प्रकार बचा जाय, इन्हें किस प्रकार बदला जाय। जिस समाज में हम रह रहे हैं उसमें प्रचलित अनेकानेक परंपराएं हमें उठाती गिराती है। इनमें जो उपयोगी हों उन्हें बढ़ाना और जो हानिकारक हों उन्हें मिटाना आवश्यक है।

धार्मिक आध्यात्मिक, राजनैतिक, दार्शनिक प्रचलनों में से ऐसे कितने ही हैं जिन पर नये सिरे से विचार किया जाना चाहिए। बदलती परिस्थितियाँ पुराने ढर्रे में पग-पग पर नये मूल्यों की स्थापना चाहती है। यह सब किस प्रकार सम्भव हो सकता है, इसे केवल कुछेक बड़े लोगों पर नहीं छोड़ा जा सकता है। हममें से प्रत्येक को समान रूप से विश्व नागरिकता के कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व मिले हैं इसलिए आवश्यक है कि जो कहा और बताया जा रहा हैं उस पर गहराई से विचार करके यह देखें कि यथार्थता एवं उपयोगिता के निकट पहुँचने के लिए क्या कुछ सुधर, परिवर्तन किया जाना चाहिए।

ऊपर की पंक्तियों में चिन्तन के लिए कुछ उपयोगी आधारों के संकेत हैं। ऐसी अनेकों धाराएँ हैं जिन पर हमारी विचार शक्ति यदि केन्द्रित रखी जा सके तो उसके परिणाम निश्चित रूप से श्रेयष्कर होंगे। ऐसा सम्भव तभी होगा जब अस्त-व्यस्त रीति से असंबद्ध विचार करते रहने की मानसिक बर्बादी के कारण उत्पन्न होने वाली क्षति को समझें और उसे रोकने के लिए साहसपूर्ण कदम बढ़ाये।


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