हृदय रोग एवं रक्तचाप का कारण और निवारण

July 1975

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अपच एक अत्यंत भयंकर रोग है। पाचन तंत्र खराब होने से खाये हुए पदार्थ पेट में सड़ते हैं और तरह-तरह के विष उत्पन्न करते हैं। वे विष रक्त में घुलते हैं और जहाँ कही अवसर पाते हैं वहीं बीमारियाँ पैदा करते हैं। आयुर्वेद के मतानुसार समस्त रोगों की एकमात्र जड़ें मलावरोध, अपच है। पर यह अपच अब इतना बहु प्रचलित हो गया है कि उसे स्वाभाविक एवं सार्वजनिक माना जाता है। कोई विरला ही ऐसा होगा जो अपच ग्रस्त न हो, आहार-बिहार की अनियमितता का यह स्वाभाविक परिणाम भी है।

अपच की तरह ही अब एक दूसरा रोग बहुप्रचलित एवं सार्वजनिक बनता जा रहा है वह है हृदय रोग और उसका दूसरा अनुचर रक्तचाप। यो चिकित्सा शास्त्र की दृष्टि से यह दोनों अलग रोग है और उनका उपचार भी अलग हैं पर वस्तुतः वे पूर्णतया सजातीय है। अपच और मलावरोध भी दो अलग रोग है। आमाशय में पड़ा आहार अपच कहलाता है और आँतों पर पड़ा अन्न मलावरोध। इन स्थितियों में चिकित्सक अन्तर कर सकते हैं, पर तथ्य ढूंढ़ने वालो की दृष्टि में दोनों सहोदर है। ठीक इसी प्रकार रक्तचाप और हृदय रोग दोनों को एक पंक्ति में खड़ा किया जा सकता है।

यह दोनों ही रोग अब द्रुतगति से अपना क्षेत्र बढ़ा रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले श्रमजीवी यों इस व्यथा से अभी भी मुक्त है, पर शहरों में रहने वाले और कुर्सी पर बैठे रह कर मस्तिष्कीय श्रम करने वालों में से अधिकाँश व्यक्ति इसके शिकार बनते जाते हैं। शरीर शास्त्री इसका कारण अवाँछनीय आहार, शारीरिक श्रम की कमी, नशेबाजी, धूल धुँओं से भरी गन्दी हवा आदि का बताते हैं। इतनी बात सही है पर इन सब से भी बड़ा कारण है-मस्तिष्कीय तनाव उत्पन्न करने वाले मनोविकारों की अभिवृद्धि, चिंता, क्रोध, उद्वेग, खीज, आशंका, ईर्ष्या, द्वेष असुरक्षा एवं कामुकता जैसे विचारों में डूबा रहने वाला मस्तिष्क उसी तरह विकृत होता है जिस तरह आहर बिहार की गड़बड़ी से पेट में अपच उत्पन्न होता है।

कभी पेट को प्रधानता दी जाती थी और दिल की मजबूती एवं रक्त शुद्धि को सुदृढ़ स्वास्थ्य का आधार माना जाता था, अब नवीनतम शोधों ने यह सिद्ध कर दिया है कि मनुष्य की न केवल विचारणा वरन् शारीरिक स्थिति भी मानसिक स्थिति के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है। उद्विग्न रहने वाला व्यक्ति कभी भी अपने शारीरिक स्वास्थ्य की रक्षा नहीं कर सकता। उसे अर्धविक्षिप्त, सनकी, अदूरदर्शी सिद्ध करने वाले अनेकों ऐसे दोष पैदा हो जायेंगे जो दिखाई तो नहीं पड़ते पर उस मनुष्य का जीवन भार रूप अपेक्षणीय, निन्दा योग्य एवं उपहास विरोध से घिरा हुआ बना देते हैं। ऐसे मनुष्य पग-पग पर असफलताओं का मुँह देखते हैं और अपने तथा दूसरों के ऊपर निरन्तर खोजते रहते हैं।

मस्तिष्क ही वस्तुतः शरीर का वास्तविक संचालक है। रक्ताभिषरण, आकुंचन-प्रकुंचन, श्वास-प्रश्वास जैसी निरन्तर चलने वाली क्रियाएं अचेतन मस्तिष्क द्वारा ही संचालित होती है। विचारों का हारमोन वाही ग्रंथियों पर भला-बुरा प्रभाव पड़ता है और वहाँ से निकलने वाले स्राव शरीर में ऐसी विचित्र स्थिति उत्पन्न करते हैं जिसका आहार-बिहार से कोई सीधा संबंध प्रतीत नहीं होता। प्रसन्न चित्त और संतुष्ट रहने वाले निर्धन की तुलना में चिन्तित और उद्विग्न धनाधीश का स्वास्थ्य सदा गिरा बिगड़ा पाया जायेगा भले ही उसका आहार-बिहार कितना ही बहुमूल्य एवं सुविधाजनक क्यों न हो।

आज की विकृत मन स्थिति ही रक्तचाप और हृदय रोगों की वृद्धि का प्रमुख कारण है यों नशेबाजी, कामुकता, चटोरापन,, श्रम असंतुलन, जलवायु की गन्दगी जैसे कारण भी स्वास्थ्य बिगाड़ने में कम भूमिका प्रस्तुत नहीं करते। लगता है कुछ दिनों में अपच की तरह रक्त-चाप और हृदय-विकार भी सामान्य और सर्वव्यापी रोग का रूप धारण कर लेंगे। अपच सह्य था, उसके रहते हुए भी जिन्दगी की गाड़ी लुढ़कती रहती थी और कोई जोखिम मेरा कष्ट नहीं सहना पड़ता था, पर हृदय रोग उतने हल्के नहीं है। वे कभी भी प्राण हरण कर सकते हैं। जब उनका दौरा होता है तो आदमी तिलमिला जाता है और काम करने की क्षमता गँवा बैठता है। रक्त चाप की बेचैनी भी दयनीय होती है। अपच को लेकर आदमी गिरता-पड़ता दुर्बल-बीमार रहता अपना काम चलाता रहता है, पर इन रोगों से तो गतिरोध की स्थिति ही पैदा हो जाती है।

बढ़ते हुए हृदय रोग मनुष्य के सामने एक भयंकर संकट की खतरे से भरी घंटी है। उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। नहीं की जानी चाहिए। अस्तु इन दोनों रोगों के स्वरूप, कारण और निवारण के संबंध में हमें आवश्यक जानकारी प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही चाहिए।

संसार में हृदय रोगों से मरने वाले की संख्या दिन-दिन तेजी से बढ़ रही है। जिन्हें रोगों से कष्ट उठाना पड़ता है उनकी संख्या अब कुल रोगियों में एक तिहाई के करीब पायी जाती है। हार्ट अटैक-हार्ट फैल्योर शब्द अब ऐसे हैं जिनका अर्थ हर कोई समझने लगा है।

हृदय का मुख्य काम है शरीर भ्रमण से लौटे हुए अशुद्ध रक्त को ग्रहण करना और आक्सीजन युक्त शुद्ध रक्त को धमनियों के माध्यम से समस्त शरीर में पहुँचाना। जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत उसे अहिर्निशि यह कार्य करना पड़ता है।

सर्व विदित है कि शरीर के किसी अंग को किसी कारण रक्त की सप्लाई कम मिले तो वह शिथिल, संज्ञा शून्य, शिथिल होते होते किसी समय वह बन्द भी हो जायेगा, कईबार यह कार्य अत्यन्त तीव्र गति से होता है तो उसे प्राण घातक ‘हार्ट अटैक’ कहते हैं। यह क्रिया मंद गति से हो तो सामान्य हृदय रोग की स्थिति में वर्षों बना रहता है और थोड़े बहुत कष्ट को सहन करते हुए काम चलता रहता है।

जिस तरह हृदय सिकुड़ता-फूलता है उसी प्रकार रक्त वाहिनी आर्ट रीजवेन्स भी सिकुड़ती-फूलती है और हृदय के कार्य में सहायता पहुँचाती है। यदि वे नाड़ियाँ कड़ी हो जायँ अथवा सिकुड़ जायँ तो रक्त संसार कार्य पूरा करने में हृदय को दूना और लगाना पड़ता है। इससे उसका श्रम बहुत बढ़ जाता है इतने पर भी नाड़ियों में अवरोध होने के कारण उसका कार्य पूरा नहीं हो पाता। इस दुहरी मार से वह थकावट एवं रुग्णता से ग्रसित होने लगता है यही है-हृदय रोगों की सामान्य पृष्ठ भूमि।

अधिकाँश हृदय रोगी धमनियों के रुँधने या अकड़ने के कारण व्यथित रहते हैं। यो देखने में ऐसे रोग आकस्मिक प्रतीत होते हैं, पर वस्तुतः वे जीर्ण रोग होते हैं जिनकी जड़ तीव्र लक्षण प्रकट होने के बहुत पहले से ही जमती चली जाती है। वस्तुस्थिति का पता तब चलता है जब तड़पाने वाले दौरे पड़ना आरंभ हो जाता है।

धमनियों की कोमलता नष्ट होने और उनमें कड़ापन आने के साथ-साथ उनकी दीवारें मोटी होने लगती है और रक्त का दौरा चलते रहने का मार्ग सिकुड़कर छोटा हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक दूसरा कारण यह होता है कि रक्त में छोटी-छोटी फुटकियाँ पड़ जाती है। वे कभी-कभी रक्त वाहिनी नाड़ियों में बुरी तरह फँस जाते हैं और रक्त संचार की सामान्य प्रक्रिया को बंद कर देते हैं। हृदय को रक्त ने मिलने से वह अपने लिए आवश्यक आहार से वंचित रहकर भूख से तड़पने लगता है इसी को हृदय का तीव्र दौरा कहा जाता है। डाक्टरी भाषा में इसे कोरोनरी थ्राम्बोसिस कहते हैं।

धमनियों की भीतरी दीवारों पर अशुद्ध रक्त प्रवाह के कारण उसका तलछट जमने लगता है जिसमें कोलेस्टरोल, कैल्शियम, फायवरस टिश्यू सरीखे श्वेत जातीय पदार्थ होते हैं। रक्त संचार के सामान्य प्रवाह को जारी रखने में हृदय पर जो अतिरिक्त दबाव पड़ता है उच्च रक्त चाप हाई ब्लड प्रेशर प्रायः उसी को कहा जाता है रक्त चाप हाई ब्लड प्रेशर प्रायः उसी को कहा जाता है रक्त में बढ़ा हुआ-कोलेस्टरोल, धमनियों के कड़ेपन, एथिरोइस्वले रोसिस, के लिये बहुधा उत्तरदायी पाया जाता है।

हृदय रोगों के कारणों में बढ़ा हुआ रक्तचाप, रक्त में अशुद्धता की वृद्धि, शरीर की भार वृद्धि, अधिक खाना, आराम तलबी, नशेबाजी, चिंताग्रस्त रहना, मधुमेह, वंश परम्परा जैसी अवाँछनीयताएं मुख्य है। चिकनाई प्रधान आहार की अधिकता और उसका पाचन ठीक तरह न होना भी एक कारण और जोड़ा जा सकता है। स्वाद की दृष्टि से अमीर लोगों घी तेल आदि बसा वर्ग के पदार्थों का सेवन तो बहुत करते हैं पर उन्हें पचाने के लिए जितना शारीरिक श्रम अपेक्षित है उसे नहीं करते। फलतः वह अनपची चिकनाई रक्त में सम्मिलित होकर उसे गाढ़ा एवं फुटकी दार बनाने लगती है। इन दिनों वनस्पति घी का प्रचलन बढ़ा है, वह हृदय रोगों की दृष्टि से हानिकारक है। सामान्य तेल जो अपने स्वाभाविक रूप में हानिकारक नहीं थे जमाने की, हाइड्रोजिनेशन, प्रक्रिया में होकर गुजरने के कारण दुष्पाच्य हो जाते हैं और हृदय रोगों का कारण बनते हैं।

श्रम जीवियों की अपेक्षा बड़े आदमी कहलाने वालों को हृदय रोग अधिक घेरते हैं। इस दृष्टि से उनकी शारीरिक श्रम से बचे रहने की आराम तलबी बहुत महँगी पड़ती है। इसी प्रकार उनका चिकनाई प्रधान मसालेदार, भुना-तला बहुमूल्य आहार अमीरी की शान तो बढ़ाता है पर परिणाम में वह भी हृदय रोग जैसी विपत्ति खड़ा करता है।

यों हृदय रोगियों को पूर्ण विश्राम की सलाह दी जाती हैं पर यह तीव्र आयात के समय ही ठीक है। सामान्य तथा उन्हें टहलने, मालिश करने, हलके आसन जैसे कम दबाव डालने वाला शारीरिक श्रम करते रहना ही चाहिए ताकि रक्त संचार प्रणाली में अवरोध उत्पन्न न हो उसी प्रकार उन्हें आहार भी फल, शाक प्रधान बना लेना चाहिए। चिकनाई कम से कम लें दूध भी मक्खन निकाल कर लें तो अच्छा है।

स्वस्थ मनुष्य के हृदय में एक बटा आठ हार्स पावर शक्ति काम करती है। इसे यदि बिजली में परिवर्तित कर दिया जाय तो साठ-साठ बाट के दो बल्ब जल सकते हैं। छह हृदय मिलकर एक स्कूटर इंजन का काम दे सकते हैं

इतना सब होते हुए भी पेट का अपच, इन्द्रिय असंयम का अपव्यय और मानसिक उत्तेजनाओं का दबाव मिलकर हृदय की दीवारों को कमजोर या कठोर बना देते हैं। रक्त में गाढ़ा पन और विषैलापन अधिक रहने से भी हृदय कमजोर होता चला जाता है फिर तनिक से आघात लगने पर भयंकर रोगों से ग्रसित हो जाता है। यदि उसे अनावश्यक दबावों से बचाया जा सके तो वह सहज ही पूर्ण सौ वर्ष तक काम देते रहने योग्य बना रह सकता है।

सामान्य स्वास्थ्य की स्थिति में नाड़ी की चाल प्रति मिनट इस प्रकार होनी चाहिए। पैदा होते समय 130 से 150 बार। 1 से 2 वर्ष की आयु तक 110 से 120 बार तक। 2 से 4 साल तक 60 से 110 बार तक 6 से 10 साल तक 60 से 100 तक। 10 से 14 साल तक 80 से 90 तक। युवा मनुष्य की लगभग 78 बार तक।

श्वासों का आवागमन भी आयु के हिसाब से घटता बढ़ता रहता है। सामान्यतया प्रति मिनट इसका औसत हिसाब इस प्रकार हे-पैदा होने पर 40 बार। 2 वर्ष की आयु में 28 बार 4 वर्ष में 25 बार। 10 वर्ष में 20 बार। युवावस्था में 12 से 16 तक।

स्वस्थ रक्त में पाये जाने वाले अणुओं की मात्रा एक व्यवस्थित क्रम से रहती है। उनमें से पोली मार्फ 40 से 75 प्रतिशत, इजीना फिल 1 से 6 प्रतिशत, वेसोफिल ॰ से 1 प्रतिशत, पाये जाते हैं। न्यूकीमिया जिसे एक प्रकार का रक्त केन्सर माना जाता है। इसलिए उत्पन्न होता है कि रक्त में श्वेत अणु अपरिपक्व अवस्था में भारी मात्रा में बढ़ने लगते हैं।

रक्त में एक घुलनशील प्रोटीन रहता है-’फाइव्रिनाजन’ । चोट लगने पर यह फाइव्रिन के रूप में बदलता है और मकड़ी के जाले जैसा जाल रक्त में बुन देता है। रुधिर कण उसमें अटक जाते हैं। यही वह थक्का है जो चोट लगने के स्थान से बहते हुए रक्त का द्वार बन्द करके उसे रोकता है।

कभी कभी शारीरिक विकृतियों के कारण रक्त में यह थक्के बनने की प्रक्रिया अपने आप विकसित हो जाती है, रक्त नलिकाओं में भ्रमण करने लगते हैं और रक्त विवाह की स्वाभाविक प्रक्रिया में अड़चने उत्पन्न करते हैं। जहाँ अटक जाते हैं वहाँ बेचैनी, भड़भड़ाहट उत्पन्न करते हैं। हाथ पैर हृदय से दूर है अस्तु इन थक्कों को वहाँ के हल्के रक्त प्रवाह में अधिक ठहरने रुकने की सुविधा मिल जाती है। फलतः जरा-जरा सी बात पर हाथ पैरों में भड़भड़ाहट होने लगती है। दबाने से कुछ राहत मिलने का कारण यह है कि उन थक्कों को इस प्रकार की कूट-पीट से आगे बढ़ने की बात एक सीमा तक बन जाती है।

इन थक्कों को ‘थ्राम्बोसिस’ कहा जाता है, वे अभी कभी हृदय नलिका में जा पहुँचते हैं और ‘हार्ट अटैक’ जैसा प्राण घातक संकट उत्पन्न करते हैं यदि उनका अवरोध कुछ मिनट ही रक्त प्रवाह को अवरुद्ध करदे तो समझना चाहिए कि हृदय की धड़कन बन्द हुई और प्राण गये। थोड़ी देर का अवरोध भी भयंकर छटपटाहट पैदा कर देता है और रोगी को लगता है कि वह अब गया- तब गया।

बालकोमं का सामान्य रक्त चाप लगभग 120 मिली मीटर एच0बी0 सिस्टोलिंक और लगभग 80 किलोमीटर एच0जी0 डायास्टेलिक होता है। इसे सामान्यतः 120/80 मिली मीटर एच.जी. लिखा जाता है। आमतौर से रोगी की आयु में 90 और जोड़ दिया जाता है। यही स्वाभाविक रक्त चाप है ।10 का अंक व्यक्तिगत विशेषता को ध्यान में रखते हुए न्यूनाधिकता के लिए छोड़ा जाता है। जैसे मनुष्य की आयु 40 वर्ष हो तो उसमें 90 जोड़ने से 130 बना। इसमें 10 न्यूनाधिकता के लिए छोड़ा जाय तो 120 से 140 तक का सामान्य स्वाभाविक माना जायगा। इससे घटना और बढ़ना असाधारण स्थिति है। स्फिग्मों मैनोमीटर नामक यंत्र से रक्त चाप नापा जाता है।

बढ़े हुए रक्त चाप से अनिद्रा दुर्बलता मूर्च्छा दौरे पड़ना अपच, बुरे स्वप्न, पसीने की अधिकता जैसी शिकायतें होती हैं।

रक्त में खटाई की मात्रा का बढ़ना तथा शरीर एवं मस्तिष्क का उत्तेजित रहना बढ़े हुए रक्त चाप का मुख्य कारण है। घटा हुआ रक्त चाप बताता है कि अवयवों के संचालन में जितनी ऊर्जा जुटाई जानी चाहिए वह जुट नहीं पा रही है। इन विकारों को दवा दारु के द्वारा सामयिक रूप से ही ठीक किया जा सकता है। स्थायी समाधान एक ही है कि शरीर यात्रा को प्राकृतिक आहार बिहार के अनुरूप सुसंयत किया जाय और मस्तिष्क को मनोविकारों से रहित बना कर चित्त की स्थिति हल्की फुलकी और हँसी-खुशी की बनाये रखी जाय।

संक्षेप में शारीरिक और मानसिक संयम ही वह चिरस्थायी उपाय है जो न केवल हृदय रोग एवं रक्त चाप को दूर करता है वरन् अन्य सभी बीमारियाँ एवं कमजोरियों की जड़ पर कुल्हाड़ा चलाता है। अध्यात्म का समस्त कलेवर इस शारीरिक मानसिक असंयम को दूर करने के लिए ही खड़ा किया गया है उसे अपना कर हम उन रक्त चाप, हृदय रोग, अनिद्रा, मधुमेह जैसे उन प्राण घातक रोगों से छुटकारा पा सकते हैं जो निकट भविष्य में अपच की तरह ही सर्वजनीन बनते जा रहे हैं और मनुष्य को हर दृष्टि से दीन दुर्बल बनाने के लिए तुले हुए हैं।


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