व्यक्ति का समाज के प्रति दायित्व

July 1975

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व्यक्ति और समाज, शरीर और उसके अंगों के सदृश है दोनों परस्पर पूरक है, एक के बिना दूसरे का स्थायित्व सम्भव नहीं है। आपसी सहयोग आवश्यक है।

मनुष्य की समाज के प्रति एक जिम्मेदारी है जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित नहीं बन सकता है।

इसे हम मनुष्य शरीर के उदाहरण द्वारा भली-भाँति समझ सकते हैं। मनुष्य शरीर के विभिन्न अंग यदि अपना काम करना छोड़ दे तो शरीर शिथिल एवं जर्जर हो जायगा, शरीर को सुदृढ़ और बलिष्ठ बनाने के लिए प्रत्येक अंग का कार्यरत एवं क्रियाशील होना अत्यावश्यक है, ठीक यही दशा समाज के लिए आवश्यक है समाज को समुचित स्थिति में रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए क्रियाशीलता अपेक्षित है।

भिन्न अंगों के भिन्न ढंग से कार्य करने पर एक असहयोग की अवस्था पैदा होगी। तब शरीर की दशा अत्यन्त शोचनीय हो जायेगी। शरीर एक मशीन के समान है जिसके सारे पुर्जे यथास्थान फिट रहकर कार्य करते हैं यदि एक पुर्जा बिगड़ जाय तो सारी मशीन ठप्प हो जाती है, इसी प्रकार शरीर और समाज की भी दशा है।

व्यक्ति का स्वार्थमय जीवन भी समाज के लिए अत्यंत दुःखदायी है जो समाज के लिए पापपूर्ण है। इस दशा में समाज का सदस्य सुखी नहीं रह सकता है, समाज में शक्ति सम्पन्नता और उसका विकास पूर्णतया असम्भव है।

यदि किसी व्यक्ति ने अपनी उन्नति या विकास कर लिया; किन्तु उससे समाज को कोई लाभ न मिला तो उसकी सारी उपलब्धियाँ व्यर्थ है। जिस प्रकार जंगल में किसी सुगन्धित और मनमोहक पुष्प का खिलकर मुरझा जाना, क्योंकि उसके सौंदर्य एवं सुगन्धि का किसी ने भी लाभ नहीं उठा पाया अतः प्रमाणित है कि व्यक्ति की मर्यादा समाज में ही अपेक्षित है।

संकुचित और स्वार्थी व्यक्ति समाज का शोषण एवं अहित करते हैं। इस तरह के व्यक्ति समाज के घातक शत्रु होते हैं जो सदैव समाज में असहयोग की भावना फैलाते हैं और उसमें अनेक अव्यवस्थाएँ उत्पन्न करते हैं।

ऐसे व्यक्ति समाज को पतन के गर्त में ले जाते हैं। इस प्रकार के व्यक्ति अविश्वास, छली, सन्देहास्पद, भ्रष्ट, लूट-खसोट करने वाले एवं झगड़ालू होते हैं और ये स्वार्थी एवं व्यक्तिवादी विचारधारा के कारण, समाज में पैदा होते और पनपते हैं।

स्वार्थपरता को समस्त पापों की जननी समझना चाहिए। अतः सुखी और सम्पन्न समाज तभी निर्मित हो सकता है जब मानव व्यष्टिवादी विचारधारा छोड़कर समष्टिवादी बने इसी में समाज का कल्याण है और व्यक्ति का भी हित है। समाज में पारस्परिक हमदर्दी, आपसी मदद, प्रेमभावना, उदारता, सेवा एवं संगठन की भावनाएँ अत्यन्त आवश्यक है तभी समाज का विकास और समृद्धि सम्भव है।

समाज में व्यक्ति का सबसे महान दायित्व समाज कल्याण एवं परमार्थ है। समाज के दीन-हीन अपंग, वृद्ध, जर्जर एवं निराश्रित व्यक्तियों की सेवा-सुश्रूषा एवं पालन करना व्यक्ति का एक महान दायित्व है।

दूसरों के प्रति प्रेम, सहयोग, सहायता, त्याग और सहानुभूति की भावना के अभाव में जो व्यक्ति, समाज के लिए हितकारी सिद्ध नहीं हो सकता है ऐसा व्यक्ति समाज के लिए कलंक है वह स्वयं ही अपने विकास को रोक देता है इससे समाज का विकास स्वतः ही रुक जाता है। अतः समाज की समृद्धि एवं विकास के व्यक्ति का दूसरों का कल्याण करना एवं परमार्थी बनना अत्यावश्यक दायित्व है।


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