जिसने सृष्टि रची है उसने कोई कमी नहीं छोड़ी है। रची, सृष्टि को स्वर्ग बनाने, सामग्री पूरी-पूरी है।।
हरी-भरी धरती दी उसने, दिये रसीले फल खाने को।
निर्मल नदियों की पनिहारी, सोंपी हैं पानी लाने को।।
रंग-बिरंगे फूल खिलाये, हंसने और हंसाने को। मन बहलाने, धीर बंधाने चन्दा-सूरज की जोड़ी है।।
हैं समतल मैदान बनाये, समता अपने चरण धर सके।
पर्वत खड़े किये हैं, जिनकी चोटी, पौरुष वरण कर सके।।
श्रम को सोंपी धरा- उर्वरा साहस को सोंपा रतनाकर- विस्तृत-नभ है, जहां कल्पना, पंख लगा करके दौड़ी है।।
अपनी जान डालकर उसने मानव का निर्माण किया है।
अपने श्रेष्ठ गणों का मानव के मिस ही क्रियमाण किया है।।
स्नेह जन्म-सहभोग, शुद्धता, निश्छलता, समता की धारा- देवलोक से मनुज-लोक में, अरमानों के संग मोड़ी है।।
उसने स्वप्न सजाया था यह मनुज-लोक ही स्वर्ग बन सके।
देवों को दुर्लभ- तन पाकर मनुज देवता स्वयं बन सके।।
पर न धरा यह स्वर्ग बन सकी और न मनुज देव बन पाया- कमी न थी साधन की, फिर भी आशा हुई न क्यों पूरी है।।
सचमुच कोई कमी नहीं थी, इस धरती को स्वर्ग बनाने।
पर मानव रह गया स्वयं ही देव-शक्ति को बिन-पहिचाने।।
मानव की ही भाव-भूमि में स्वर्ग-सृजन की कमी रह गई- उतना दूर स्वर्ग, देवों के चरित्र से जितनी दूरी है।।
स्वार्थ-सिद्धि में ग्रसित मनुज के लिये स्वर्ग भी नर्क बनेगा।
सेवा, त्याग, स्नेह, समता से रहित मनुज को सुख न मिलेगा।।
अज्ञानी, स्वार्थान्ध मनुज ने स्वार्थ भरी बारूद बिछाकर- सबके ही सुख की दुनिया में निर्मम चिनगारी छोड़ी।।
*समाप्त*