“सृष्टि-स्वर्ग” (kavita)

July 1975

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जिसने सृष्टि रची है उसने कोई कमी नहीं छोड़ी है। रची, सृष्टि को स्वर्ग बनाने, सामग्री पूरी-पूरी है।।

हरी-भरी धरती दी उसने, दिये रसीले फल खाने को। निर्मल नदियों की पनिहारी, सोंपी हैं पानी लाने को।।

रंग-बिरंगे फूल खिलाये, हंसने और हंसाने को। मन बहलाने, धीर बंधाने चन्दा-सूरज की जोड़ी है।।

हैं समतल मैदान बनाये, समता अपने चरण धर सके। पर्वत खड़े किये हैं, जिनकी चोटी, पौरुष वरण कर सके।।

श्रम को सोंपी धरा- उर्वरा साहस को सोंपा रतनाकर- विस्तृत-नभ है, जहां कल्पना, पंख लगा करके दौड़ी है।।

अपनी जान डालकर उसने मानव का निर्माण किया है। अपने श्रेष्ठ गणों का मानव के मिस ही क्रियमाण किया है।।

स्नेह जन्म-सहभोग, शुद्धता, निश्छलता, समता की धारा- देवलोक से मनुज-लोक में, अरमानों के संग मोड़ी है।।

उसने स्वप्न सजाया था यह मनुज-लोक ही स्वर्ग बन सके। देवों को दुर्लभ- तन पाकर मनुज देवता स्वयं बन सके।।

पर न धरा यह स्वर्ग बन सकी और न मनुज देव बन पाया- कमी न थी साधन की, फिर भी आशा हुई न क्यों पूरी है।।

सचमुच कोई कमी नहीं थी, इस धरती को स्वर्ग बनाने। पर मानव रह गया स्वयं ही देव-शक्ति को बिन-पहिचाने।।

मानव की ही भाव-भूमि में स्वर्ग-सृजन की कमी रह गई- उतना दूर स्वर्ग, देवों के चरित्र से जितनी दूरी है।।

स्वार्थ-सिद्धि में ग्रसित मनुज के लिये स्वर्ग भी नर्क बनेगा। सेवा, त्याग, स्नेह, समता से रहित मनुज को सुख न मिलेगा।।

अज्ञानी, स्वार्थान्ध मनुज ने स्वार्थ भरी बारूद बिछाकर- सबके ही सुख की दुनिया में निर्मम चिनगारी छोड़ी।।

*समाप्त*


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