भगवान् बुद्ध को परमज्ञान की उपलब्धि तो अन्तिम जन्म में हुई; इससे पूर्व उन्हें कई बार जन्म लेना पड़ा और तप, त्याग तथा तितिक्षा साधनाओं के माध्यम से अपने अंतरंग को निखारना पड़ा। उन सभी पूर्व जन्मों का विवरण जातक कथाओं के नाम से उपलब्ध है। त्याग, प्रेम, करुणार्द्र और सत्यनिष्ठा के उच्च स्तर पर वे किस गरिमा के साथ पहुँच चुके थे, इसका उत्कृष्ट उदाहरण व्याघ्री जातक प्रसंग में आता है।
उस जन्म में वे एक महान् ब्राह्मण कुल के सदस्य थे। पूर्वार्जित संस्कारों और आध्यात्मिक उपलब्धियों के परिणामस्वरूप वे स्वभावतः ही मेधावी, जिज्ञासु और उद्यमी थे। परिणामस्वरूप जातक धर्म, उपनयन आदि संस्कारों के उपरान्त अल्प समय में ही ज्ञान साधना में उनकी अच्छी गति हुई थी। वंश परम्परा के अनुरूप सभी विद्याओं में पारंगतता प्राप्त कर जब वे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए तो लगा कि इस पद पर रहते हुए लोक-मंगल के लिए पर्याप्त और अभीष्ट श्रम नहीं कर पा रहा हूँ। यद्यपि उनकी कीर्ति और ख्याति देशकाल की सीमाओं को पार कर दिक् देशान्तर में व्याप्त हो रही थी, परन्तु इससे उन्हें संतोष नहीं हो रहा था।
निदानतः प्रव्रजित होने का निश्चय किया और आत्मकल्याण के साथ-साथ लोक-मंगल की सेवा-साधना में निरत होने के लिए कटिबद्ध होकर पारिवारिक दायित्वों से निवृत्त हो गये। प्रव्रज्या ग्रहण कर वे वनगिरी में जा रहने लगे। पवित्र आचरण, आत्म-संयम, संतोष और करुणा भरे तेजस्वी व्यक्तित्व ने वहाँ निवास करने वाले व्यक्तियों को अप्रतिम रूप से प्रभावित किया। उनका स्वयं का अन्तरंग और बहिरंग तो निखर कर सामने आया ही था किन्तु भी असाधारण रूप से परिवर्तित होने लगा। वनगिरी के निवासियों में शाँतिरस की धारा बहने लगी।
बोधिसत्व के शिष्यों की संख्या बढ़ने लगी और स्वयं भी आत्म-साधना के साथ-साथ अपने शिष्यों व शील, संयम सजगता और साक्षित्व के मार्ग पर अग्रसर करने लगे। एक समय व अपने शिष्यों के साथ विहार कर रहे थे कि मार्ग में किसी गुफा के अंदर से बाघ का आर्तनाद सुनाई पड़ा। करुणार्द्र बोधिसत्व उसी दिशा में बढ़ चले और उनका अनुगमन करते हुए शिष्यगण भी जाकर देखा तो एक युवती बाघिन जो कुछ समय पूर्व प्रसव से गुजरी थी, प्रसव पीड़ा से पीड़ित और शिथिल हुई क्षुधार्त होकर कराह रही थी।
रह-रहकर उसकी दृष्टि अपने नवजात शिशुओं पर जाती। मातृत्व की ममता और भूख की पीड़ा में अन्तर्द्वन्द्व चल रहा था। क्षुधा तो बाध्य कर रही थी इन नवजात शिशुओं का भक्षण करने के लिए परन्तु मातृत्व का ममता भरा हृदय उसे निरंतर दमित किये दे रहा था। ममता भूख की बढ़ती ज्वाला को कब तक शाँत रखे रहेगी कहा नहीं जा सकता। बोधिसत्व बाघिन की पीड़ा को अंतर्चक्षुओं में समझ रहे थे। उन्होंने अपने सभी शिष्यों को बाहर जाते और बाघिन का आहार ढूंढ़ कर लाने के लिए कहा। यद्यपि उनका मनोगत कुछ और ही था।
अनात्म, असार, विनाशवान और दुखमय शरीर यदि दूसरों के काम आ सके तो यह खेदजनक नहीं, आह्लादनीय ही है और उन्होंने अपनी अर्जित आध्यात्मिक शक्ति के बल पर शरीरोत्सर्ग कर दिया। जिसे बाघिन ने खा लिया और क्षुधा तृप्त होकर जैसे उसमें नये प्राण संचरित हो उठे। अभी जो अपने ही बच्चों को खाने के लिए आतुर दिखाई दे रही थी वही उन्हें प्यार से खिलाने लगी। शिष्यगण जब लौटे तो उन्हें वहाँ बोधिसत्व की मृत देह के अतिरिक्त कुछ नहीं मिल