‘अधिकस्य अधिकं फलम्’ वाली उक्ति हर जगह लागू नहीं होती। सूक्ष्म की शक्ति को अब अधिक अच्छी तरह समझा जाने लगा है, शर्त एक ही है, कि उस सूक्ष्म का उपयोग ठीक तरह किया जा सके।
एक किलो मिट्टी का ढेला वह काम नहीं कर सकता जो अदृश्य जैसी स्थिति में रहने वाला परमाणु। परमाणु क्या है? विद्युत बिन्दुओं का संघात मात्र। इन्हीं में शक्ति का अजस्र स्त्रोत छिपा है और उसी से विश्व का अति सामर्थ्य युक्त क्रिया-कलाप चल रहा है।
शरीर में उत्पन्न होने वाली गड़बड़ी और उसकी साज संभाल के संदर्भ में होम्योपैथी के जन्म दाता हनिमैन ने औषधि की सूक्ष्म शक्ति को महत्व दिया है। उनके बाद डा0 शुशलर ने अपने ‘दिशु रेमिडीज’ सिद्धान्त में इसी बात पर जोर दिया है।
विकास बाद के जन्मदाता डार्विन को सूक्ष्मता के सिद्धान्त में अत्यंत रुचि थी। एक बार एक डच वैज्ञानिक ने उन्हें लिखा था कि एट्रोपिन की एक ग्रेन का एक लाखवाँ भाग भी आंखों पर प्रभाव डालता है। आर्विन ने अपना अनुभव उन्हें बताते हुए लिखा था- “अमोनिया के एक ग्रेन के एक करोड़ वे भाग को भी आँत्र बाहक स्नायु को तेज झटका देते मैंने देखा है। नमक की एक ग्रेन का बारह करोड़वाँ भाग भी वैसा ही प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है।”
डा0 ए॰ शिगर ने अपने प्रयोगों से सिद्ध किया कि स्वस्थ शरीर पर कामिक एसिड जितना विषैला प्रभाव उत्पन्न करता है, उसका दो लाखवाँ भाग भी वैसा ही प्रतिफल उत्पन्न करता है।
शुशलर ने सिद्ध किया था कि नमक की बड़ी मात्रा खाने पर तो वह भार बन जाती है और व्यर्थ निकल जाती है। जीव कोषों द्वारा ग्रहण किये जाने के लिए तो उसकी बहुत छोटी मात्रा ही पर्याप्त है।
दूध में पाये जाने वाले लोहाँश को बहुत सराहा जाता है और कहा जात है दूध की उपयोगिता उसकी लौह पोषक शक्ति से संबंधित है। यह लौह दूध में कितना होता है? एक पाव में एक ग्रेन का छह लाखवाँ भाग। मात्रा की दृष्टि से यह अत्यंत उपहासास्पद है पर चूँकि वह जीव कोषों में घुलने लायक इसी स्थिति में उपयुक्त होता है इसलिए लाभ उचित अनुपात में घुले हुए दूध से ही संभव होता है। यदि इस अनुपात से बहुत गुना बढ़ा कर लौह मिश्रण दिया जाय तो उससे लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक होगी।
शरीर के तापक्रम पर हजार भाग पानी में एक भाग हाइड्रोक्लोरिक एसिड घुला हो तो माँस को फाइव्रित एवं दालों के ग्लूटिन को आसानी से पचा देगा किंतु यदि हाइड्रोक्लोरिक एसिड की मात्रा अधिक हो तो उससे पाचन क्षमता बढ़ेगी नहीं घट ही जायगी।
लाल रक्ताणुओं की शक्ति उसके लोहाँश पर निर्भर रहती है पर उस अंश की मात्रा कितनी स्वल्प होगी यह भी जानना आवश्यक है। एक क्यूविक इंच के 120 लाख वे हिस्से से बड़ा एक रक्ताणु नहीं होता। एक छोटी सी रक्त बूँद में इस तरह के प्रायः तीन लाख होते हैं। इतनी छोटी इकाई कितना कम लोहाँश अपने में लाद कर लिये फिर सकती है, यह कल्पना की जा सके तो प्रतीत होगा कि शक्ति के लिए उपयुक्त अनुपात कितना स्वल्प हो सकता है।
मनुष्य की मूल सत्ता कितनी छोटी है इसका अनुमान लगाने के लिए हमें जानना चाहिए कि जो शुक्राणु डिम्ब के साथ मिलकर भ्रूण में परिणत होता है, वह मूलतः एक क्यूविक मिलीमीटर का दस लाखवाँ भाग होता है। इतनी छोटी सत्ता में मनुष्य का पूरा शारीरिक और मानसिक ढाँचा समाया रहता है।
रेडियम से सारी दुनिया की चिकित्सा की जा सकती है वह संसार भर में 4-5 ओंस है। इसे लगातार खर्च करते रहे तो भी वह कम से कम 24 हजार वर्ष में समाप्त होगा।
कस्तूरी की शीशी का बार-बार धोते रहने पर भी उसकी गंध आती रहती है, इससे प्रतीत होता है कि सूक्ष्मता का प्रभाव उससे कही अधिक होता है जितना कि आम लोग समझते हैं।
स्थूल संसार, स्थूल जीवन को मोटी दृष्टि से देखने पर वह सब कुछ जाना पहचाना, घिसा-पिटा, मामूली, महत्वहीन और ढर्रे का दिखाई पड़ता है। उसमें न कुछ विशेषता है न महत्ता। पर जब गहराई में उतरने और अधिक खोजने, समझने और प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाता है तो यहाँ सब कुछ अद्भुत और रहस्य मय दिखाई पड़ने लगता है। भौतिक जगत में भी यही बात है और आत्मिक जगत में भी। गहराई में उतरना ही शक्ति को खोजने और प्राप्त करने का एक मात्र उपाय है। उस उपाय को भौतिक क्षेत्र में प्रयुक्त करना विज्ञान कहलाता है और आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रयोग करना योग साधन- तत्व-दर्शन इससे हमें दोनों ही क्षेत्रों में एक से एक बढ़कर उपलब्धियाँ प्राप्त हो सकती है।
दृश्य का अदृश्य में और अदृश्य का दृश्य में बदल जाना वस्तुतः विश्व का एक चमत्कार है। पर यह है सरल, सहज और स्वाभाविक। शक्ति पदार्थ में प्रकट होती है और पदार्थ का शक्ति में लय होता है। ब्रह्म माया में परिणत होता है और माया ब्रह्म सत्ता मैं लीन होती है, कैसा है यह सहज ही समझ में न आ सकने वाला गोरख धंधा। पर विज्ञान एक के बाद एक रहस्यों की परतें खोलता चला जा रहा है और हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचा रहा है कि निर्जीव स्थूल के भीतर प्रचंड शक्ति सम्पन्न सूक्ष्म सन्निहित है। जड़ में भी संव्याप्त चेतना का दर्शन हमें इस आधार पर ही हो सकता है। विज्ञान क्रमशः अध्यात्म के सिद्धान्तों का समर्थन करने की दिशा में आगे बढ़ता चला जा रहा है।
भौतिक विज्ञान के दो भागों में विभक्त किया जा सकता है- (1) पदार्थ (2) ऊर्जा। पदार्थ उन वस्तुओं को कहते हैं जो हमारे चारों ओर बिखरी पड़ी है, जिन्हें हम देखते या अनुभव करते हैं, इन्हें तोला जा सकता है। वे ठोस, द्रव एवं गैस के रूप में रहते हैं और एक स्थिति से दूसरी स्थिति में परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं।
ऊर्जा उस विभाग को कहते हैं जिसमें ताप, विद्युत, चुम्बक, प्रकाश, शब्द आदि की गणना आती है। इन्हें तोला तो नहीं जा सकता फिर भी उन्हें तरंगों के रूप में गतिशील देखा जा सकता है, और उनकी सामर्थ्य को अनुभव किया जा सकता है।
ठोस पदार्थ अपना रूप बिना किसी बाहरी दबाव के नहीं बदलते। उनके परमाणुओं में घनिष्ठता होती है। तरल पदार्थों के अणुओं में उतना आकर्षण नहीं होता इस लिए वे बहने लगता है। जिस पात्र में रखे उसी की आकृति ग्रहण कर लेते हैं। गैस के अणुओं में परस्पर कोई बंधन नहीं होता वे सब दिशाओं में फैलते हैं। जरा सी गैस एक बड़े कमरे में भर सकती है। तीनों स्थितियाँ एक होते हुए भी परस्पर बहुत भिन्न है तो भी ऊर्जा की थोड़ी सी हलचल उन्हें कुछ से कुछ बना देती है। तापमान 100 से0 से अधिक घट जाने पर पानी बर्फ बन जाता है और 1050 से अधिक बढ़ जाने पर भाप बन जाता है।
पदार्थ जिन परमाणुओं से मिलकर बनता है; वे निरन्तर गतिशील रहते हैं। यह गति तापमान से प्रभावित होती है। गति बढ़ने से अणुओं के पारस्परिक संबंध सूत्र में परिवर्तन होता है और वे अपनी संघबद्ध आकृति बदलने लगते हैं।
अत्यधिक ठंडा करने पर लोहा रेत की शकल में बदल सकता है। ऊर्जा का हेर-फेर वस्तुओं की शकल को इतनी अधिक बदल सकता है कि उनके पूर्व रूप की कल्पना तक पर विश्वास करना कठिन पड़ेगा।
जो कुछ हम आँखों से देखते हैं वह वस्तुतः वैसा ही नहीं होता। आकाश का रंग हम नीला देखते हैं। गहरे पानी का रंग भी नीला होता है। पर क्या जो कुछ हम देखते हैं वह सत्य है। वस्तुतः यह आँखों का सरासर धोखा खाना है। आकाश या पानी इन दोनों में से एक भी नीला नहीं है, दोनों ही बिना रंग के है। प्रकाश की रश्मियाँ एक विशेष कोण से दिखाई पड़ने के कारण यह नीलापन भ्रम के रूप में हमारे मस्तिष्क में घुस पड़ता है। क्या फूलों का वास्तविक रंग वही होता है जो हमारी आंखें देखती है। वैज्ञानिक परीक्षण हमारी आँखों को भ्रम ग्रस्त सिद्ध करते हैं। प्रकाश की किरणें पदार्थों से टकरा कर जिस प्रकार के अनुभव देती है वस्तुएँ उस रंग की लगती भर है। वस्तुतः वे उस रंग की होती नहीं।
देखने में हर चीज स्थिर दिखाई पड़ती है; पर उनके भीतर अणुओं की भारी धमा चौकड़ी हर घड़ी मची रहती है। समतल दिखाई पड़ने वाले भी वस्तुतः खुरदरे और छेदों से भरे होते हैं। मेज की सतह को आंखों से देख कर या हाथ से छूकर समतल ही कहा जा सकता है पर माइक्रोस्कोप से देखने पर उसमें असंख्य छिद्र दिखाई पड़ते हैं। पानी में पोल दिखाई नहीं पड़ती पर जब चीनी उसमें घोलते हैं फिर भा आयतन नहीं बढ़ता तो पता चलता है कि उसके अणुओं में पोल मौजूद थी। रेत को पानी में डालने से आयतन बढ़ता है पर नमक डालने से नहीं। इससे स्पष्ट है कि पानी के अणु नमक या चीनी को अपने भीतर भर लेने के लायक जगह पहले से ही रखे हुए थे। यद्यपि रेत के कण भिन्न स्तर के होने के कारण उनमें घुल नहीं पाते।
परमाणु पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है और उसे ठोस समझा जाता है पर वस्तुतः उससे भी 90 प्रतिशत स्थान पोला होता है। संसार में असंख्य पदार्थ है, उनकी गणना नहीं हो सकती पर जिन तत्वों, एलीमेन्टस्, से वे बने है उनकी संख्या अब तक मात्र 106 गिनी जा सकी है। इन्हीं कणों के मिलने बिछुड़ने एवं अनुपात घटने बढ़ने से तरह-तरह की आकृति-प्रकृति वाले पदार्थ बनते बिगड़ते रहते हैं।
अब पदार्थों का ऊर्जा में और ऊर्जा का पदार्थोँ में परिवर्तन संभव हो गया है। प्रकृति यही खेल करती रहती है, वह कभी पदार्थ को ऊर्जा में बदलती है कभी ऊर्जा को पदार्थ में, कभी निराकार साकार बनता है और कभी साकार का निराकार में विलयन हो जात है। हमारे चूल्हे, वायलर यही उलट-पुलट करने में लगे रहते हैं।
हमारी इन्द्रियाँ भी कितनी विलक्षण है। समीपवर्ती क्षेत्र में चल रहे इलेक्ट्रॉन स्पंदनों की सूचना अपने-अपने छिद्रों द्वारा मस्तिष्क तक पहुँचाती है। बस इतनी भर नगण्य घटना को मस्तिष्क शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श के मीठे कडुए अनुभवों के साथ अनुभव करता है और उनमें प्रिय अप्रिय की प्रतीति होती है। यदि मस्तिष्क में रसानुभूति की विशेषता न होती तो और वह ऊर्जा अंकन यंत्र मात्र रहा होता तो जो अनुभूतियाँ हमें होती है। उनके से एक भी न होती, मात्र अणुओँ की हलचलें नोट होती रहती और उनका प्रभाव उतना ही होता जितना कि समीपवर्ती तरंगों के साथ जुड़ा होता। रसानुभूति जैसी कोई स्थिति इस संसार में नहीं है। हमारे मस्तिष्क की विलक्षण संरचना ही है जो हमें कभी हर्ष कभी विषाद, कभी प्रिय और कभी अप्रिय अनुभव कराती है। कभी हम रोते हैं कभी गाते हैं, इसका घटनाओं से नहीं मात्र अपने निज के अनुभूति तंत्र से ही संबंध है।