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July 1975

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सन्त राविया जब ईश्वर प्रेम की मस्ती में आती तो कहती- ऐ मेरे मुहब्बी, मुझे ऐसी दुनिया में ले चल जहाँ तेरे सिवा और कोई न हो। जन्नत (स्वर्ग) तू अपने दोस्तों को दे। दोजख (नरक) में अपने दुश्मनों को डाल। मेरे लिये तो एक तू ही काफी है।

प्रकृति और पुरुष का, जड़ और चेतन का, स्थूल और सूक्ष्म का यह अद्भुत समन्वय अज्ञानी को सामान्य और ज्ञानी को असामान्य प्रतीत होता है। मोटी दृष्टि से यहाँ सब कुछ कूड़ा-करकट भरा पड़ा है; पर तत्वदर्शी देखता है कि कण-कण शक्ति का अनंत भंडार भरा पड़ा है। भावना की प्रत्येक तरंग में अमृत कलश छलक रहा है। वस्तुतः यहाँ सब कुछ निरर्थक है और सब कुछ सार्थक। सामान्य में असामान्य के दर्शन हो सकते हैं, पाषाण में भगवान प्रकट हो सकते हैं, पर इसके लिए सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता है। गहराई में जितने ही हम उतरते हैं उतने ही चकित करने वाले चमत्कारों का दर्शन करते हैं। यदि दर्शन प्रखर हो तो हर दिशा में उतनी विभूतियाँ परिलक्षित होगी जिनके आधार पर अपनी इसी दुनिया को चमत्कारों से भरा देव लोक कहा जा सके।


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