मेरे समर्पण को स्वीकारो (kahani)

September 1974

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सरिता समुद्र में विलीन होने के लिए द्रुतगति से बढ़ती चली जा रही थी। प्रेमिका को प्रेमी के बिना चैन कहाँ? मार्ग की बाधाएँ उसके उत्साह को द्विगुणित कर रहीं थीं। सरिता को आता देख समुद्र ने सचेत किया—’तुम एक क्षण रुककर विचार करो कि मुझमें विलीन होकर तुम्हें क्या मिलने वाला है? मेरे खारे जल की एक भी बूँद किसी यात्री के मुख में चली जाती है तो वह थू−थू करने लगता है। फिर तुम्हारी अपरिमित मधुरता मेरे सान्निध्य में आते ही खारेपन में परिवर्तित हो जायगी। तुम मुझमें मिलकर अपने अस्तित्व से भी हाथ धो बैठोगी। जल्दी न करो। विचार कर लो कि मुझसे मिलकर तुम्हें किस सिद्धि की उपलब्धि हो सकेगी।’

सरिता ने कभी एक क्षण रुककर विश्राम करना तो जाना न था। उसने बढ़ते हुए कहा—’वर्षों से मिलन की जिस कामना को सँजोकर रखा था उसमें किसी प्रकार का विलम्ब असहनीय है। मेरा ध्यान कभी तुम्हारे खारेपन की ओर गया भी नहीं। अपने को तुममें विलीन कर देने पर ही मुझे सन्तोष मिल सकेगा। मुझे अपने चरणों में स्थान दो। मेरे समर्पण को स्वीकारो।’

समुद्र जब तक उससे कोई बात कहे सरिता ने उदधि के अंक में अपना मुँह छिपा लिया।


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