कोशाओं की अंतरंग शक्ति का परिष्कार

September 1974

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन की मूल इकाई कोशिका है जिसे सैल या कोश भी कहते हैं। शरीर का यह सबसे छोटा किन्तु मूलघटक इसी प्रकार माना जाता है जिस प्रकार पदार्थ का मूलघटक परमाणु होता है। कोश रासायनिक पदार्थों से मिलकर बनती है, पर उसके मध्य में जो ‘नाभिक’ है उसी को कोश ब्रह्माण्ड का बिजली घर कह सकते हैं यहीं से सारी हलचलों का प्रवाह चलता है। अब यह स्वीकार कर लिया गया है कि रासायनिक खोखला कलेवर मात्र है, उसका मूल जीवन नाभिक के केन्द्र में सन्निहित है और वह ‘विद्युत’ रूप है। इस प्रकार अब जीवन की व्याख्या एक विशिष्ट विद्युत प्रवाह के रूप में की जाने लगी है और यह माना जाने लगा है कि यह बिजली सामान्य विद्युत जैसी दिखाई पड़ने पर भी उसके भीतर एक सुव्यवस्थित क्रम व्यवस्था ही नहीं जीवनोपयोगी चेतना भी विद्यमान है। जड़ के अंतर्गत इस चेतना की विद्यमानता इन्हीं दिनों मूर्धन्य वैज्ञानिकों द्वारा स्वीकार की गई है। अब मनुष्य सर्वथा जड़—मात्र रासायनिक संयोग नहीं रहा। वह चिन्मय स्वीकार कर लिया गया है।

रासायनिक संयोग में हेर−फेर करके कोशाओं के स्वरूप में परिवर्तन करके मनुष्य का वर्तमान स्तर बदला जा सकेगा ऐसा पिछले बहुत दिनों से सोचा जा रहा है। इस संदर्भ में गुण सूत्रों और जीन्स की खोज खबर ली जा रही थी अब एक नये चरण में विज्ञान ने प्रवेश किया है और माना है कि यदि कोशाओं के स्तर में कुछ परिवर्तन करना हो तो वह रासायनिक हेर−फेर से नहीं विद्यमान विद्युत प्रवाह में ही कुछ उलट−पलट करके सम्भव हो सकेगा। अब रसायन मुख्य नहीं रहे—उनका स्थान विद्युत ने ले लिया है। यह प्रतिपादन लगभग वहीं जा पहुँचता है जो आत्मा की चित् शक्ति से ओत−प्रोत बताया गया है। यों अभी अध्यात्म और विज्ञान की प्रतिपादित चित् विद्युत की परिभाषा एक नहीं हुई है। दोनों के कथन में काफी अन्तर है फिर भी पहले की अपेक्षा वह अन्तर काफी घटा है वह दिन दूर नहीं जब कोश नाभिक में सन्निहित विद्युत को चित् शक्ति के रूप में ही स्वीकार कर लिया जायगा। विज्ञान और अध्यात्म की तेजी से घटती हुई दूरी अगले दिनों दोनों को एक स्थान पर मिलाने वाले केन्द्रबिन्दु तक पहुँचाकर ही रहेगी।

यह समझा जाता है कि पिता के शुक्राणु लगभग वैसी आकृति के होते हैं, जैसे कि पानी के पूँछदार कीड़े दिखाई पड़ते हैं। वर्गीकरण की दृष्टि से उनके दो भाग कि ये जा सकते हैं एक शिर दूसरा पूँछ। शुक्राणु का नाभिक शिर भाग में होता है, पूँछ उसके चलने दौड़ने में गति प्रदान करती है। पूँछ अक्सर हिलती रहती है जिससे शुक्र कीट आगे बढ़ता है और निषेचन के समय दौड़कर डिम्ब अणु के साथ जाकर मिल जाता है। यह एकाकार होने की स्थिति ही गर्भ धारण है। एक नया प्राणी इस सुयोग संयोग से उत्पन्न होता है।

शुक्राणु और डिम्बाणु की उपरोक्त व्याख्या स्थूल है। उनके भीतर भी बहुत बारीक कण होते हैं। क्रोमोसोम—उनसे भी सूक्ष्म जीन्स की प्रजनन शक्ति का उत्तरदायी कहा जा सकता है। जीन्स में भी प्रोटीन की कुछ मात्रा और डी. एन. ए. (डी.ओक्सी बायोन्यूक्लिक एसिड) नामक पदार्थ रहता है। इसी क्षेत्र में वंश परंपरा की शारीरिक और मानसिक विशेषताएं समाविष्ट रहती हैं। वे विशेषताएं केवल माता−पिता की ही नहीं होती वरन् उनके भी मातृ पक्ष और पितृ पक्ष की पीड़ी−दर−पीड़ी से जुड़ी हुई चली आती है। उनमें भी संयोग−वियोग के आधार पर हुए परम्परागत और कुछ समन्वयात्मक विशेषताएँ उभरती रहती है। इसी उथल−पुथल के कारण सभी भाई−बहिन एक जैसे आकार प्रकार के नहीं बन पाते यद्यपि उनमें बहुत सी विशेषताएँ एक जैसी भी बनी रहती हैं।

‘दि ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ नामक ग्रन्थ में जीव विज्ञानी एडलस हक्सले ने डिम्ब और शुक्र कीटों के क्रिया−कलाप का मात्रा रासायनिक संयोग नहीं माना है वे उन्हें ‘अल्फा’ ‘बीटा’ और ‘गामा’ किरणों का उत्पादन मानते हैं।

पूर्वजों के जीन्स अपने साथ जिन विशेषताओं को लपेटे चलते हैं उनमें बहुत सी अच्छी होती हैं और बहुत सी बुरी। परम्परागत बीमारियों का लिपटा हुआ कुचक्र परिधान निश्चित रूप से बुरा है। डायबिटीज, एलर्जी, ब्रोनोचिट्स, हेमाफीलिया, दमा, कोढ़, गर्मी, सुजाक, रक्त −विकार, दृष्टि मंदता जैसी बीमारियाँ बच्चों को अपने पूर्वजों से भी विरासत में मिलती हैं।

अफ्रीका महाद्वीप के काँगो देश में तीन−चार फुट ऊँचे बौनों की बड़ी संख्या है वे शिकार पर निर्वाह करते हैं और आदिवासी यायावरों की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान में अपने डेरे डालते रहते हैं। पेरु के जंगलों में यूस जाति के ऐसे आदिवासी पाये गये हैं जिनकी ऊँचाई तीन फुट रह जाती है। माल्योनैटो के रोम कैथलिक चर्च द्वारा प्रकाशित ‘रीजन फ्राम दी जंगल’ पुस्तक में इन बौनी जातियों की वंश परम्परा पर अधिक प्रकाश डाला गया है। इन ‘यूश’ जाति के बौनों की अधिक संख्या ब्राजील, बोलीबिया तथा क्यूरा नदी के तट पर पाई जाती है। यह लोग 20 कबीलों में बँटे हुए हैं।

बैंगलौर में बी.एन. थिम्मया नामक एक नाई के घर ऐसा बालक जन्मा था जो जन्म के समय तो केवल 5.14 पौण्ड का था पर कुछ ही दिन बाद तेजी से उसका शरीर फैलने फूलने लगा। 11 वर्ष की उम्र पर पहुँचने तक 162 पौण्ड भारी और 50 इन्च ऊँचा हो गया। इतना ही नहीं उसकी छाती 46 इञ्च की हो गई। लगभग फुटबाल जैसा गोल−मटोल वह दिखाई पड़ने लगा। बढ़ोतरी इस तेजी से हुई कि हर महीने पुराने कपड़े रद्द करना और नये बनवाना उस गरीब आदमी के लिए अत्यन्त कठिन हो गया। अच्छा इतना ही रहा कि खुराक साधारण स्तर के बालकों जितनी ही बनी रही।

डाक्टरों ने खोज−बीन करके यह बताया कि यह हारमोन का चमत्कार है। खुराक आदि घटाकर बच्चे को नई विपत्ति में न डाला जाय। यदि कभी सम्भव हुआ तो हारमोन सन्तुलन कर सकने वाले चिकित्सक ही उसे सामान्य स्थिति में ला सकेंगे।

हारमोन कुछ समय पूर्व तक मात्र रासायनिक पदार्थ मात्र जाते थे अब उनकी विलक्षणता उनकी सूक्ष्मता में —विद्युत तरंग स्पन्दन में—ढूँढ़ लिया गया है। हारमोन बाहर से एक जैसे ही दिखते हैं रासायनिक विश्लेषण करने में उनमें कुछ बहुत बड़ा अन्तर नहीं पाया जाता—पर उनके भीतर पाये गये विद्युत प्रवाह में इतना अन्तर रहता है जिसे विभिन्न मनुष्यों में विभिन्न प्रकार की विशेषताएं उत्पन्न करने का आधार माना जा सके। ‘जीन्स’ स्वयं अत्यन्त सूक्ष्म हैं फिर उनके भीतर का जो वर्गीकरण है उसे रासायनिक स्तर पर नहीं विद्युत कम्पनों के स्तर पर ही विभाजित किया जा सकता है। हारमोन रसायनों का विश्लेषण वर्गीकरण करना हो तो भी उसके घटक इन्हीं शक्ति कम्पनों से ओत−प्रोत पाये गये हैं। इनकी भिन्नता पृथकता भी इसी प्रवाह आधार पर है।

न्यूयार्क विश्व−विद्यालय के तत्वावधान में बफेले नगर की प्रयोगशाला ने इस असम्भव समझे जाने वाले कार्य को सम्भव करके दिखाया है। विश्व−विद्यालय के अनुसंधान सम्बन्धी उपाध्यक्ष डा. रेमण्ड इवेल तथा जीव विज्ञान केन्द्र के निर्देशक जेक्स डेनिमाली द्वारा इस शोध निष्कर्ष की चर्चा करते हुए कहा गया है कि वंश परम्परा से चली आ रही आकृति−प्रकृति तथा शारीरिक, मानसिक स्थिति में अब आमूल−चूल परिवर्तन कर सकना सम्भव हो सकेगा। वंश परम्परा की बीमारियों पर काबू प्राप्त किया जा सकेगा। सूक्ष्म कोषों की शल्य क्रिया करना उनमें दूसरे कोषों के आँशिक पैबन्द लगा सकना सम्भव होने से यह भी शक्य हो जायगा कि इच्छानुरूप विशिष्टताओं वाले बच्चे पैदा किये जा सकें। सन् 1967 का नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले विज्ञानी डा. आर्थर कारन वर्ग ने कैलीफोर्निया के स्टेन फोर्ड विश्व−विद्यालय ने जीवकोषों का प्राण ‘डी.एन.ए.’ खोजा था अब उस खोज ने इतनी प्रगति कर ली है कि जीवकोषों की स्थिति में इच्छानुसार एवं आवश्यकतानुसार फेर बदल किया जा सके।

न के वल वंश परम्परा की दृष्टि से वरन् मनुष्य की रोग मुक्ति, बलवृद्धि तथा दीर्घजीवन की दृष्टि से इन कोश कणों की स्थिति में सुधार परिवर्तन अपेक्षित है। यह कार्य दवादारू के आधार पर अथवा आहार−विहार के मोटे परिवर्तनों से भी सम्भव नहीं हो सकता। बहुत बार देखा गया है कि सही आहार−विहार रखने और उपयुक्त चिकित्सा उपचार करने पर भी कई व्यक्ति रुग्ण बने रहते हैं और स्वल्पजीवी होते हैं। इसका कारण कोशाओं और हारमोन रसायनों में घुसकर बैठी हुई विकृतियाँ होती हैं जिन पर सामान्य चिकित्सा प्रक्रिया एवं भोजन परिवर्तन जैसे उपचारों से काबू नहीं पाया जा सकता। इस सुधार के लिए ऐसे विशिष्ट उपाय ढूँढ़ने पड़ते हैं जो कोशाओं के अन्तस्थल में छिपे विद्युत प्रवाह को प्रभावित कर सकें।

मनुष्य का शरीर भवन जिन ईंटों से चुना गया है उन्हें कोश या सैल कहते हैं। इन्हीं के बनने−बिगड़ने का क्रम हमें जीवित और स्वस्थ रखता है और रुग्ण−दुर्बल बनाते हुए मृत्यु के मुख में धकेल देता है।

सामान्यतया यह कोशाएँ टूट कर बँटती रहती हैं और नई कोशाओं को जन्म देती रहती हैं। चमड़ी की कोशाएँ प्रायः 4-5 दिन में पुरानी से बदल कर नई हो जाती हैं। जिस प्रकार साँप अपनी केंचुली बदलता है, उसी प्रकार हम भी अपनी चमड़ी हर चौथे पांचवें दिन बदल देते हैं। यों यह बात आश्चर्य जैसी लगती है, पर वस्तुतः होता यही रहता है। जिन्दगी भर में हमें हजारों बार चमड़ी की केंचुली बदलनी पड़ती है। यही हाल शरीर के भीतर काम करने वाले प्रमुख रसायन प्रोटीन का है। वह भी प्रायः 80 दिन में पूरी तरह बदल कर नया आ जाता है। यह परिवर्तन अपनी पूर्वज कोशाओं के अनुरूप ही होता है अस्तु अन्तर न पड़ने में यह प्रतीत नहीं होता कि पुरानी के चले जाने और नई के स्थानापन्न होने जैसा कुछ परिवर्तन हुआ है।

इस परिवर्तन क्रम को चलाने की सीमा हर अवयव की अलग−अलग है। किसी अवयव का काया−कल्प जल्दी−जल्दी होता है किसी का देर−देर में। इसी प्रकार उनके काम करने की—सक्षम रहने की अवधि भी भिन्न−भिन्न है। डा. केनिव रासले की पर्यवेक्षण रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य के गुर्दे 200 वर्ष तक, हृदय 300 वर्ष तक, चमड़ी 1000 वर्ष तक, फेफड़े 1500 वर्ष तक और हड्डियां 4000 वर्ष तक जीवित रह सकने योग्य मसाले से बनी है। यदि उन्हें सम्भाल कर रखा जाय तो वे इतने समय तक अपना अस्तित्व भली प्रकार बनाये रह सकती है। इनके जल्दी खराब होने का कारण यह ही है−उनसे लगातार काम लिया जाना और बीच−बीच में मरम्मत का अवसर न मिलना। यदि इसकी व्यवस्था बन पड़े तो निश्चित रूप से मनुष्य की वर्तमान जीवन अवधि में कई गुनी वृद्धि हो सकती है।

न्यूयार्क युनिवर्सिटी के डा. मिलन कोपेक और तकफेलर इन्स्टीट्यूट के डा. ऐलोक्सिस कैरलन द्वारा किये गये प्रयोगों से एक ही निष्कर्ष निकला है कि कोशाएँ जब तक अपनी वंश वृद्धि करने में सक्षम रहती हैं तब तक बुढ़ापा किसी प्रकार नहीं पाता, पर जैसे−जैसे वे नई पौध उगाने की क्रिया शिथिल करती हैं वैसे ही वैसे अवयव कठोर और निष्क्रिय होते चले जाते हैं और अन्ततः मृत्यु के मुख में जा घुसते हैं। यदि इन कोशाओं की क्षमता घटने न दी जाय और उन्हें उत्पादन की अपनी स्वाभाविक संरचना अवधि तक क्रियाशील रहने का उपाय ढूँढ़ निकाला जाय तो शरीर को अमर न सही उसे दीर्घायुषी तो बनाया ही जा सकता है।

क्रमिक गति से—स्थूल से सूक्ष्म के क्षेत्र में प्रवेश, करता हुआ विज्ञान अब रासायनिक पदार्थों की परिधि लाँघ कर उस गहराई तक जा पहुँचा है जहाँ शक्ति−शक्ति का ही साम्राज्य शेष रह जाता है। शरीर एवं मन के प्रयोजनों में लगी इस धारा को विज्ञान में मानवी विद्युत नाम दिया है अध्यात्म उसे चित् शक्ति अथवा प्राण−शक्ति कहता है। अन्ततः मानव का मूलभूत आधार इसी केन्द्र पर टेका हुआ सिद्ध होता है।

शरीर और मन में रासायनिक परिवर्तन करने के लिए पदार्थों का चयन करना हो तो उसका चयन प्रयोगशाला के निष्कर्ष पर नहीं, वरन् उनमें सन्निहित सूक्ष्म चेतना को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए। सतोगुणी प्रकृति के, सात्विक उपार्जन के—एवं सद्भावना के वातावरण में पकाये बनाये अन्न में वह दिव्य विद्युत भरी होती है जो कोशाओं के अस्ततल को स्पर्श करके उनमें समाविष्ट वंश परम्परा से तथा दूसरी प्रकार से उत्पन्न विकृतियों का निराकरण कर सकता है। साथ ही वह तत्व भी बढ़ सकता है जिसमें व्यक्तित्व का समग्र विकास, हो सके।

योगाभ्यास, तपश्चर्या, उपासना एवं साधना की पुनीत प्रक्रियाएँ जीवनचर्या में सम्मिलित की जा सकें तो वह प्रखर विद्युत प्रवाह उत्पन्न होगा, जिसे अध्यात्म की भाषा में ब्रह्मवर्चस् और विज्ञान की भाषा में प्राण−तेजस् कहा जा सकता है।

भावी पीढ़ियों का स्तर उठाना—व्यक्तित्व का विकसित करना—शारीरिक, मानसिक सामर्थ्य को बढ़ाना तथा चिर−यौवन एवं दीर्घजीवन जैसी विभूतियों को प्राप्त करना वैज्ञानिक विद्युत उपचारों की अपेक्षा अध्यात्म साधना प्रक्रिया अपनाकर अधिक अच्छी तरह और अधिक सरलतापूर्वक सम्भव हो सकता है। प्रयोग करके इस तथ्य को अपने सामने प्रत्यक्ष खड़ा देख सकते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles