आश्रम के शिष्यों ने महर्षि को अनुरोध किया—’गुरुदेव! इन दिनों धरती हरित परिधान धारण कर बड़ी मनोहारी लग रही है। कल−कल निनाद करते हुए जल प्रपात कर्णरंध्रों को भले लग रहे हैं। तीव्रगति से उफनती हुई सरितायें परमात्मा रूप समुद्र से मिलने के लिए व्यग्र हो रही हैं। मेघराज द्वारा गिराई जाने वाली जल की नन्हीं−नन्हीं बूँदें फव्वारे जैसा आनन्द दे रही हैं। ऐसे सुन्दर समय में यदि आज प्रकृति निरीक्षण के लिये चला जाये तो कितना अच्छा रहे? सरिता तट पर ही मध्याह्न का भोजन बनाया जाये और भ्रमण करते हुये हम लोग शाम को लौटें।’
प्रकृति निरीक्षण के लिए महर्षि को भला क्यों आपत्ति होती। उन्होंने सोचा आश्रम के ब्रह्मचारियों को प्रकृति से ही बहुत कुछ सीखने और समझने के लिये मिल जायेगा वह शिष्यों को लेकर चल पड़े। परस्पर अनेक प्रकार की चर्चायें हो रहीं थीं। महर्षि द्वारा शिष्यों की अनेकानेक समस्याओं को समाधान दिया जा रहा था।
जलचर की तरह गुरु−शिष्य घण्टों झल−क्रीड़ा करते रहे। भोजन तो पूर्व में ही तैयार करके रख दिया था। जल−विहार के पश्चात् भोजन किया। अपने−अपने उत्तरीय बिछाकर बट वृक्ष की सघन छाया में विश्राम करने हेतु लेट गये। मौसम वैसे ही बड़ा सुहावना था। शीतल वायु प्रवाहित हो रही थी। लेटते ही निद्रादेवी ने उनकी क्लान्ति का शान्त करने के लिये अपने अंक में ले लिया। पर्याप्त समय के पश्चात् ऋषि की निद्रा भंग हुई। उस समय तक सूर्यदेव पश्चिम दिशा की ओर काफी बढ़ चुके थे। उन्होंने उठकर घास में ही लेटे शिष्य गार्ग्य को जगाया। उसने धीरे से गुरुदेव के कान में फुसफुसाते हुए कहा—’मैं उठ तो काफी देर का गया हूँ पर मेरे पैरों में लिपटा हुआ सर्प बड़ी गहन निद्रा में निमग्न है। मैंने यह उचित नहीं समझा कि उसकी निद्रा को भंग किया जाये जब उसकी नींद पूरी हो जायेगी वह अपने आप ही चला जायेगा।’
घण्टे भर बाद सर्प की नींद खुली। वह गार्ग्य के पैरों से उतर कर बिल की ओर चला गया। महर्षि ने अपने शिष्य को अंक में भर कर आशीर्वाद दिया—’तुम्हारा यह धैर्य और साहस भरा आत्मबल अक्षय रहे।’