बढ़ती हुई जनसंख्या के संकट

September 1974

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संयुक्त राष्ट्र संघ के एक प्रतिवेदन में कहा गया कि सन् 1970 में विश्व की समस्त जनसंख्या 333 करोड़ 20 लाख थी, जिस क्रम से वह पिछले दिनों बढ़ी है वही क्रम जारी रहा तो सन् 2005 में संसार की जनसंख्या तीन गुनी बढ़ जायगी अर्थात् 11 अरब से भी ऊपर निकल जायगी।

मोटे तौर पर यह समझदारी बढ़ी है कि लोग कम बच्चे पैदा करने की आवश्यकता को अनुभव करें। इसलिए जन्म दर यत्किंचित घटी है। यही क्रम जारी रहा तो प्रति हजार जनसंख्या पीछे हर साल इस समय जो 33.2 बच्चे पैदा होने का क्रम है वह घट कर 25.1 हो जायगा। लेकिन मृत्यु दर भी घट रही है। वह इन दिनों 12.8 प्रति हजार के क्रम पर है। वह भी भविष्य में घट कर 8.1 रह जायगी। इस प्रकार बढ़ोत्तरी और घटोत्तरी का हिसाब लगाने पर अंतिम निष्कर्ष यह रहेगा कि वृद्धि 55.5 प्रति हजार से बढ़कर 65.5 हो जायगी।

मनुष्यों की बढ़ती हुई जनसंख्या का सबसे बड़ा दुष्परिणाम पशुओं का भुगतना पड़ेगा। जो जमीन अभी उनके निवास, भ्रमण और चारे के काम आती है यह सारी की सारी मनुष्यों के निर्वाह में प्रयुक्त होने लगेगी। जब उन बेचारों के लिए कहीं जगह ही न बचेगी तो वे हवा में थोड़े ही उड़ेंगे। उनका अस्तित्व समाप्त हो जायगा। क्या गाय, क्या गधा सभी को धरती का मोह छोड़ कर किसी अन्य लोक में अपने लिए स्थान ढूँढ़ना पड़ेगा। यह स्थिति आने में बहुत देर नहीं पचास वर्ष बाद ही यह विषम स्थिति सामने आ खड़ी होगी और तब वर्तमान पशुओं की नसल देखने के लिए सुरक्षित चिड़िया घरों में कौतूहल पूर्वक जाना पड़ा करेगा।

पशुओं का अस्तित्व मिट जाने पर दूध का प्रश्न सामने आयेगा। मातायें नवजात शिशुओं की भूख शाँत कर सकने जितना दूध उत्पन्न नहीं करतीं उन्हें बाहरी दूध देकर ही बचाया जाता है। दूध−दही, घी के बिना तो काम चल जायगा पर चाय, काफी से सफेदी बनाये रखने के लिए दूध की आवश्यकता पड़ेगी। पशुओं के न रहने पर इन आवश्यकताओं को कैसे पूरा किया जा सकेगा। वैज्ञानिक इस दिशा में सचेष्ट हैं और कृत्रिम दूध बनाने में संलग्न हैं।

ब्रिटेन के रसायन शास्त्री डा. हुग फ्रेंकलिन ने बन्दगोभी, मटर की कोंपलों में अन्य रासायनिक पदार्थ मिला कर एक गाढ़ा घोल बनाया है जो दूध की जगह काम में लाया जा सकता है। उसका रंग और स्वाद लगभग वैसा ही बना दिया गया है। समुद्री घास का रस भी दूध की जगह पर काम लाने योग्य कैसे बनाया जा सकता है, इसकी खोज अब सफलता के नजदीक ही पहुँच चुकी हैं।

मैसूर के खाद्य औद्योगिकी अनुसन्धान शाला ने मूँगफली के प्रोटीन में कई तरह के रसायन मिलाकर पेय दूध बना दिया है और उसका नाम ‘मिलटोन’ रखा है। बताया गया है कि इसके सामने परम्परागत पशु दुग्ध नाचीज है जिसकी जीभ में इस वैज्ञानिक दूध की ओर मुख करके भी न देखेगा। यह दूध अपेक्षाकृत सस्ता पड़ेगा और अधिक आकर्षक है। रोज−रोज खरीदने का झंझट उठाने की अपेक्षा इस महीनों के लिए एक बार ही जमा करके रखा जा सकने की भी सुविधा मौजूद है। उत्तर प्रदेश के नैनीताल के कृषि विश्वविद्यालय ने भी सोयाबीन के दानों को पीस कर कृत्रिम दूध बनाने में सफलता प्राप्त की है।

बढ़ती हुई जनसंख्या पर नियन्त्रण न किया जा सका तो अन्न संकट−दुग्ध संकट जैसे असंख्य संकट सामने प्रस्तुत होंगे और मानवी अस्तित्व को ही चुनौती प्रस्तुत करेंगे।


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