डबल रोटी—डबल खोटी

September 1974

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‘सभ्य’ कहलाने वाली दुनिया में अब घर में चौका चूल्हा जलाने, रोटी बेलने, सेकने का झंझट उठाने की प्रथा बन्द हो चली है और उसके स्थान पर फैक्टरी की बनी डबल रोटी का प्रचलन बढ़ रहा है। गनीमत इतनी ही है कि गरीब घरों अथवा पुराने ढर्रे के लोगों में ताजी रोटी बनाने की प्रथा अभी भी विद्यमान है।

खाद्य−पदार्थों के पीछे सभ्यता का—वैज्ञानिकरण का−आधुनिकता का जो समावेश हुआ है उसमें फैशन शोभा और स्वाद का आकर्षक समन्वय जरूर है, पर परिणाम में उसने ऐसी विकृतियाँ उत्पन्न की हैं जो उस स्वस्थ संरक्षण के उद्देश्य को नष्ट ही करती चली जा रही हैं जिनके लिए कि इन खाद्य−पदार्थों का प्रादुर्भाव किया गया है।

बात वहाँ से शुरू होती है जहाँ खेत में गेहूँ बोया जाता है। पशुओं की दिन−दिन कमी पड़ती जा रही है। माँसाहार और चमड़े के उपयोग में जिस गति से बढ़ोत्तरी हो रही है उसके फलस्वरूप पशु धन का विनाश होता चला जा रहा है उनके गोबर और मूत्र से जमीन को जो पौष्टिक खाद मिलता है वह कहाँ मिल पाता है। फलतः रासायनिक खादों का उपयोग बढ़ रहा है। गोबर के सड़े खाद को ढोना आज के फैशनेबुल मनुष्य के लिए भारी भी पड़ता था। रासायनिक खाद पैक बन्द थैलों में साफ सुथरा आता है और तुर्त−फुर्त खेत में फैला दिया जाता है। फसल भी ज्यादा उगती है। इस वैज्ञानिक उपहार का लाभ कैसे छोड़ा जाय। रासायनिक खाद के कारखाने धड़ाधड़ खुल रहे हैं और उनका उपयोग भी खूब हो रहा है। लोग प्रसन्न हैं कि बेवकूफ पूर्वजों की तुलना में कैसी अच्छी तरकीब अधिक अनाज उपजाने की ढूँढ़ निकाली गई है।

किन्तु इसका दूरगामी परिणाम बहुत ही हानिकारक सामने आ रहा है। भूमि में कुछ ऐसे कीटाणु होते हैं, जो न केवल पौधों को पुष्ट करते हैं वरन् उनके भीतर रहने वाले उपयोगी रासायनिक पदार्थों की भी वृद्धि करते हैं, जिससे उगा अनाज, खाने वालों के लिए बलवर्धक होता है। रासायनिक खादों से वे कीटाणु मर जाते हैं। मिली हुई उत्तेजना से फसल जल्दी तो उग आती है, पर वैज्ञानिक खादों की विषाक्त ता भी पौधों में घुल जाती है और जो अनाज उगता है उसमें भी ऐसे हानिकारक तत्व रहते हैं जो खाने वाले के स्वास्थ्य का बिगाड़े। दूसरी क्षति यह होती है कि इन खादों की विषाक्त ता से भूमि के उर्वरता सहायक कीटाणु मर जाने से उसकी स्वाभाविक उत्पादन शक्ति घटती चली जाती है और पीछे इन खादों की भरमार करते रहने पर भी उत्पादन घटता ही चला जाता है।

एक तो ऐसे ही बाढ़−वर्षा की अधिकता से भूमि की ऊपरी उपजाऊ परत पानी के साथ बहकर नदी, नालों में चली जा रही है और निचली कम उपजाऊ जमीन ऊपरी सतह पर आ रही है इससे उर्वरता तो घट रही है। इसके उपरान्त रासायनिक खाद रहा सहा सर्वनाश पूरा कर रहा है।

इन सब कारणों के मिलने से न केवल अन्न का उत्पादन घट रहा है वरन् उसका पोषण स्तर भी गिर रहा है। अमेरिका के कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि पिछले एक सौ वर्षों में उस देश की उपजाऊ ऊपरी सतह का 40 प्रतिशत भाग बाढ़ और वर्षा में बह गया। मिसोरी विश्वविद्यालय के कृषि विशेषज्ञ विलियम अलव्रेश ने हिसाब लगाकर बताया है कि पिछले दस वर्षों में गेहूँ में रहने वाले प्रोटीन की मात्रा 9 प्रतिशत घट गई है। इसका कारण बताते हुए वे कहते है रासायनिक खादों में रहने वाले पोटाश के कारण अन्न अधिक तो उपजता है पर उसमें प्रोटीन घटता है और कार्बोहाइड्रेट बढ़ता है। इस प्रकार उपजे हुए अन्न में पौष्टिकता का अंश कम पड़ा जाता है। न केवल प्रोटीन वरन् 20 प्रकार के ‘अमायनों एसिड’ भी अन्न तथा चारे में रहते हैं जिसके कारण खाने वाले पशुओं तथा मनुष्यों में रोग निरोधक शक्ति उचित मात्रा में बनी रहती है। रासायनिक खाद फसल में प्रोटीन ही नहीं इन उपयोगी अमायनों एसिडों की मात्रा भी घटा कर कमजोर बना देते हैं।

बीज को सुरक्षित रखने के लिए उन्हें कीटाणु नाशक औषधियाँ छिड़क कर गोदामों में रखा जाता है। इसका भी एक अंश पौधों पर जाता है। फसल पैदा होने के बाद उसे गोदामों में भरते समय कीटाणु नाशक घोलों से छिड़का जाता है। आटा पीसने वाली बड़ी मिलें गेहूँ को नरम बनाने के लिए नमी पहुँचाती हैं और इस क्रिया में भी रसायनों का प्रयोग होता है। आटा अधिक सफेद निकले इसके लिए गेहूँ को धोया जाता है इस धुलाई में भी साबुन जैसे—तीव्र रसायन रहते हैं। बड़ी आटा मिलों के पीसने वाले पाट पत्थर के नहीं लोहे के हते हैं, रगड़ से उनकी गर्मी बढ़ी−चढ़ी रहती है और उसके कारण गेहूँ में पाया जाने वाला विटामिन बी. 1 लगभग 10 प्रतिशत ही शेष रह जाता है शेष 90 प्रतिशत को पिसाई के समय की तेज गर्मी जलाकर समाप्त कर देती है। इस कमी का दुष्परिणाम खाने वालों को दाँतों की खराबी, कब्ज तथा स्नायविक रोगों के रूप में भुगतना पड़ता है।

अधिक सफेद आटा प्राप्त करने के लिए गेहूँ को धोया जाता है, उस धुलाई में नाइट्रोजन, ट्रिक्लोराईड या एजीन जैसे रसायन डाले जाते हैं। यह रसायन एक प्रकार के विष हैं। इसे खाने से मनुष्य या पशुओं के शरीर में ऐंठन शुरू हो जाती है। लन्दन के सेन्ट्रल मिडल्सैक्स अस्पताल के निर्देशक डा. पोलक ने बताया कि उनके अस्पताल में ऐसे मरीज आते रहते हैं जो आटे के साथ रहने वाले एजीन के कारण बीमार पड़े। सर एलनवे ने भी एजीन के कारण जन−साधारण के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव की बात सर्वसाधारण के तथा सरकार के सामने रखी। फलतः एजीन का उपयोग तो रुक गया पर न्यूनाधिक उसी सतर के अन्य रसायन उस प्रयोजन के लिए प्रयुक्त होते रहते हैं।

इतने कुकर्मों से गेहूँ की दुर्गति करने के उपरान्त उसका जो मैदा बनकर सामने आता है उसमें जीवन तत्व नहीं के बराबर रह जाता है। एक प्रकार से वह अखाद्य ही बन जाता है। केवल मैदे के खाद्यों पर रखे गये कुत्ते और चूहे कुछ ही दिन में बीमार पड़ गये। यह देखकर बिकने वाले मैदा में उसके प्रस्तुतकर्त्ताओं ने सस्ते विटामिन मिलाने आरम्भ किये और उनके आकर्षक विज्ञापन छपाये। किन्तु यह सर्वविदित है कि अलग से मिलाये हुए या खिलाये हुए विटामिन वह कार्य नहीं कर सकते जो उनके स्वाभाविक रूप में लिए जाने से होता है। स्वाभाविक मात्रा से अधिक मात्रा में लेने पर भी विटामिन हानिकारक बन जाते हैं। उन्हें देर तक खुला हुआ रखा नहीं जा सकता इस प्रकार वह आँसू पोंछने के लिए की गई विटामिनों की मिलावट भी कुछ उपयोगी सिद्ध नहीं होती। मैदा अपौष्टिक स्तर का ही बना रहता है।

डबल रोटी बनाने वाले नानवाई उसे क्रिमिविहीन और कई दिन तक नरम बनी रहने योग्य बनाने के लिए तथा खमीर उठाने के लिए उस में फिर रासायनिक सम्मिश्रण करते हैं। अंडा पड़ा होने का भ्रम उत्पन्न करने के लिए भी कुछ रसायन ही मिला दिये जाते हैं, जिससे डबल रोटी पर चमक, चिकना और जर्दी दिखाई पड़ने लगे। इन प्रयोजनों के लिए पोलो ओक्सीइथीलीन मोनोस्वीट जैसे रसायन प्रयुक्त होते हैं। इन रसायनों का प्रयोग करने के कारण उन कारखानों के मजदूरों में से कितने ही खाज, खुजली या दमा जैसे रोगों के शिकार हो जाते हैं। इस तथ्य का रहस्योद्घाटन स्वास्थ्य पत्रिका ‘इन्डस्टरियल मेडीशन एण्ड सर्जर’ पत्रिका ने अपने एक विस्तृत लेख में किया था।

हर क्षेत्र में बढ़ती हुई कृत्रिमता, फैशनपरस्ती तथाकथित सभ्यता का अंग बनती जा रही हैं। इस अत्युत्साह ने भोजन को भी नहीं बख्शा है। अब पुराने जमाने की हाथ से बनी ताजी रोटियाँ, पुराने जमाने की प्रतिगामी रिवाजें कहकर उपेक्षित कर दी गई हैं। उनका स्थान डबल रोटियाँ ग्रहण करती चली जा रही हैं। सभ्यताभिमानी उत्साहपूर्वक उनका स्वागत कर रहे हैं। इसका परिणाम क्या निकलेगा यह धीरे−धीरे सामने आता जा रहा है। इस घुड़दौड़ में अगले दिनों हम इतने आगे निकल चुके होंगे कि गँवाये हुए स्वास्थ्य की क्षति पूर्ति भी न हो सकेगी। तब अपनी मूर्खता पर आँसू बहाने से भी कुछ काम न चलेगा।


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