जीवन लक्ष्य की प्राप्ति दूरदर्शी दृष्टिकोण से

September 1974

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मनुष्य का अवतरण—ईश्वरीय अवतार धारण का ही छोटा स्वरूप है। ईश्वर अवतार लेता है, धर्म के संस्थापन और अधर्म के निराकरण के लिए—साधुता का परित्राण और दुष्कृतों का शमन करने के लिए। भगवान की लीलाएँ इसी का ताना−बाना बुनने के लिए बनती चलती है। अवतार निरुद्देश्य हास−विलास के लिए नहीं होते। वे अतिरिक्त ईश्वरीय शक्ति लेकर निजी मोद−प्रमोद के लिए नहीं आते वरन् उस सामर्थ्य का उपयोग सृष्टि सन्तुलन के लिए ही करते हैं। मनुष्य निश्चित रूप से एक छोटा अवतार है। सृष्टि के समस्त प्राणियों की तुलना में उसे जो अतिरिक्त मिला है उसे विशुद्ध रूप से दिव्य प्रयोजनों के लिए दी गई अमानत पूँजी ही समझा जाना चाहिए। जिस प्रकार हम अवतारी देवदूतों को असाधारण क्षमताओं से भरा−पूरा देखते हैं ठीक उसी प्रकार जीव जगत के समस्त सदस्य मनुष्य को धरती पर विचरण करने वाले देव सम्पदा सम्पन्न सत्ता के रूप में देख समझ सकते हैं। वह असाधारण अनुदान उसे अकारण ही नहीं मिला होता। उसके पीछे निश्चित रूप से ईश्वर प्रदत्त महान् कर्त्तव्य और महान् उत्तरदायित्व जुड़े होते हैं।

माया उसी भ्रान्ति का नाम है जो आत्मा के स्वरूप, कर्त्तव्य और लक्ष्य को भला देती है। वासना और तृष्णा के हेय आकर्षणों में फँसा देती है। लोभ और मोह के भव−बन्धनों में बाँध देती है। माया के जाल−जंजाल से छुटकारा पाकर जीवन के स्वरूप, संसार के व्यक्तियों तथा पदार्थों के साथ अपने सम्बन्धों का यथार्थता के आधार पर निर्धारण करना ही मुक्ति है। मुक्ति को परम पुरुषार्थ माना गया है। उसमें लोक−प्रवाह से उलटी दिशा में सोचने और चलने का साहसिक पराक्रम करना पड़ता है। अपना चिन्तन और कर्तव्य लोगों के अनुकरण या परामर्श पर निर्धारित न रहने देकर विवेक भरी दूरदर्शिता के सहारे निश्चित करना पड़ता है। जो ऐसा कर सके समझना चाहिए कि वह जीवित रहते हुए भी मोक्ष का महान् अनुदान प्राप्त कर सकने में सफल हो गया।

आमतौर से लोगों का सारा चिन्तन—सारा कर्तव्य शरीर और मन की आकाँक्षाएँ पूरी करने में ही लगता है। पेट और प्रजनन के लिए ही जीते हैं। इन्द्रिय जन्य वासनाओं की पूर्ति और मनोगत तृष्णाओं को जुटाने के अतिरिक्त और कुछ सूझता ही नहीं। आकाँक्षा की धुरी−लोभ और मोह के पहियों के सहारे ही घूमती है। यही है मानव−जीवन का घृणित और भ्रमित स्वरूप। इसका दुष्परिणाम जीवन काल में हर घड़ी भुगतना पड़ता है। शोक, संताप, अभाव, दारिद्रय, क्लेश−कलह की ठोकरें पग−पग पर लगती हैं। शरीर को रोग और मन को उद्वेग घेरे रहते हैं। जिनको सुखी बनाने की बात सोची गई थी वे भी क्षणिक लिप्सा की ललक में पाते कम और खोते बहुत हैं। भोग भोगने की लिप्साएँ तो पूरी नहीं हो पातीं उलटे स्वयं ही जरा−जर्जर होकर रोते−कलपते—जलते−जलते रहते हैं। माया का, भ्रमग्रस्तता का यही स्वाभाविक परिणाम है, जिसे दुनियादार लोग शोक−सन्ताप ग्रसित होकर निरन्तर सहन करते रहते हैं। सुख की आशा करते चलते जरूर हैं, पर दुख—निराशा के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता नहीं। यही है मायाग्रस्त जीवन का निरूपण और विश्लेषण।

समाज के प्रति हर मनुष्य का प्रचण्ड कर्त्तव्य है। वस्तुतः इसी के लिए मनुष्य का जन्म हुआ है। संसार को सुखी, समुन्नत और सुन्दर बनाने के लिए अपनी अधिकाधिक क्षमताएँ और विभूतियाँ लगनी चाहिए। यही तो मानव−जीवन के दिव्य अवतरण का एकमात्र उद्देश्य है। पर होता यह है कि इन्द्रियजन्य लिप्सा, वासना, मनोगत, अहंता, तृष्णा की पूर्ति में ही अधिकाँश क्षमता समाप्त हो जाती है। रही बची परिवार की संख्या बढ़ाने और उन्हें अमीर उभराव स्तर का बनाने के लिए ताना−बाना बुनने में चुक जाती है। शारीरिक श्रम, मानसिक चिन्तन एवं आर्थिक उपार्जन से जो कुछ मिलता है वह शरीर, मन और परिवार के लिए ही कम पड़ता है। अभाव अनुभव होता रहता है और अधिक कमाकर उसकी पूर्ति की उद्विग्नता छाई रहती है। ऐसी दशा में जीवनोद्देश्य को पूर्ति के लिए—लोक−मंगल के लिए कुछ करना सम्भव ही नहीं हो पाता है।

इस विडम्बनाग्रस्त जीवन जंजाल में अन्तरात्मा के मनोस्थल सदा कराहते रहते हैं। मनुष्य अपने आपको खोया−खोया किंकर्तव्यविमूढ़-सा अनुभव करता है। निर्वाह के आवश्यक साधन रहते हुए भी ऐसा लगता है मानो वह मरघट में रहकर अशान्त जीवन जी रहा हो न कहीं चैन न शान्ति न सन्तोष। लीज और बेचैनी छोटे−छोटे कारणों के सहारे बेहिसाब उठती रहती है। भीतर ही भीतर कोई काटता, कचोटता रहता है। जिसकी प्रतिक्रिया बाहरी जीवन में पग−पग पर झल्लाहट के रूप में प्रकट होती है। मायाग्रस्त जीवन की यही दुखद प्रतिक्रिया है। इस अन्तर्व्यथा से बचने के लिए कितने ही लोग गम गलत करने के लिए नशे पीते हैं—कभी भड़काने वाले मनोरंजनगृहों का चक्कर काटते हैं, कभी घर छोड़कर तीर्थयात्रा सैर−सपाटे के लिए निकलते हैं, कभी ताश, शतरंज जैसे व्यसनों में भीतरी कसक को भुलाने का प्रयत्न करते हैं, पर वे सभी साधन मृग तृष्णावत् लगते हैं। एक की निस्सारता अनुभव करने के बाद दूसरे पर भटकना पड़ता है, पर प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता। बाहर से सुख−साधन कितने ही बढ़े−चढ़े क्यों न हों—भीतर की जलन−ज्वाला को शान्त करने में बेपानी की बूँद अपर्याप्त ही लगती रहती है।

हम भ्रान्तियों से भरा−पूरा मायाग्रस्त जीवन जीते हैं। शरीर, मन, परिवार, समाज, भगवान किसी के भी प्रति हमारा दृष्टिकोण सही नहीं है। किसी भी क्षेत्र में सही रीति−नीति नहीं अपनाई जा सकी, इसका एकमात्र कारण आत्मा और संसार के साथ अपने सम्बन्धों को ठीक तरह न समझ पाना ही है। इस भ्रान्ति को सुधारना—मायाग्रस्त मनःस्थिति को बदलना और लोक−व्यवहार की रीति−नीति का पुनःनिर्धारण करना यही है अध्यात्म दर्शन का उद्देश्य। इसे जितना प्राप्त किया जा सके, उतना ही सुख−शान्ति का जीवन जिया जा सकता है।


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