‘मेरा उपयोग न कोई सजावट के लिये करता है और न शृंगार के लिये। मेरे रूप सौंदर्य से तो आप भी परिचित है। मेरा जैसा रक्त वर्ण विधाता ने शायद ही किसी को दिया हो। फिर भी मेरी उपेक्षा होती है। मुझे कोई तोड़ने ही नहीं आता।’ पलाश पुष्प ने दुःखी होकर अपने पिता से पूछा।
‘वत्स! इसमें निराश होने की बात क्या है?’ पिता ने समझाते हुए कहा—’माली तो सुगन्धित पुष्पों को चुनकर ही माला बनाता है; और ललनायें भी महकते फूलों से ही अपनी केशराशि को सुसज्जित करती हैं। तुझमें सुगन्धि का अभाव है इसीलिये तो तेरे पास कम ही आते हैं।’ ‘तब तो मेरा जीवन बेकार ही जायेगा।’ ‘नहीं! तेरे रंग की कीमत तुझे अवश्य प्राप्त होगी।’